तो क्या सच में रंगकर्म में इतनी निराशा है?

रंगमंच का माहौल डरपोक, लिजलिजे और चंपू किस्म के लोगों से भरा हुआ है, जिनको अपनी कला और पुरूषार्थ से अधिक अपनी चमचई और कैनवासिंग पर भरोसा है, इसके लिए वो अपनी राह बनाते भी है और दूसरों की राह खोदते भी हैं.

अमितेश कुमार

2012 का भारंगम था. मैं नाटक देख कर फूड हब की तरफ आ रहा था, उन दिनों पहले की तरह फैला हुआ फ़ूड हब नहीं बनता था. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय परिसर में प्रवेश करने के साथ जो लॉन है, उसमें एक पेड़ है उसको केंद्र मानकर एक वृताकर फूड हब बनाया जाता, जिसमें लोग कम आते थे लेकिन वहां बैठ कर बात करने का माहौल खूब बनाता था. सालों-साल इसको डिजाइन करने की जिम्मेदारी एक ही रंगकर्मी को दी जाती रही. मैं उस दिन नाटक देख कर फूड हब में कुछ मित्रों से मिलने पहुंचा था, मिलकर निकलते ही एक सज्जन दौड़ कर मेरे पीछे आए, कंधे पर हाथ रखा और आश्वस्त हुए कि मैं ही अमितेश कुमार हूं. उन्होंने इशारा किया कि वहां कुछ लोग बैठे हैं आपसे बात करना चाहते हैं कुछ देर बैठेंगे. मैंने कहा क्यों नहीं. मैं उन रंगकर्मियों के गोल में जाकर बैठ गया, वे सब रानावि के पास आउट थे, एकाध दूसरे लोग भी थे जिनमें एक चर्चित डाक्यूमेंट्री फिल्मकार भी थे. उनमें से दो तीन को मैं जानता था, एक दो आज भी फिल्मों में छो़टी बड़ी भूमिकाएं करते थे, एक की हाल ही में दो बड़ी चर्चित फिल्में आई है. अब वहां मेरा इंटेरोगेशन करना शुरू हुआ, इसको इंटेरोगेशन कहना चाहिए, उसको रैगिंग भी कहा जा सकता है लेकिन मैं उनका जूनियर नहीं था. शुरु होने के बाद पता लगा कि वो मेरे एक लेख पर मेरी सफाई चाहते थे. मैंने नटरंग में 2011 में एक लेख लिखा था, जिसमें मैंने 2008 से 2011 तक के भारंगम में मंचित नाटकों की पड़ताल करके बताया था कि किस तरह भारंगम में एक खास तरह के रंगमंच, एक खास तरह के फेवरेटिज्म, और विदेशी नाटकों में भी खास लोगों को मौका दिया जा रहा था. उस समय तक लोक नाटकों का खण्ड नहीं होता था, और कई भाषाओं के नाटक ही नहीं होते थे.

लब्बोलुआब यह था कि मिलाजुलाकर भारंगम में भारत का प्रतिनिधित्व नहीं हो पा रहा था, और चयन प्रक्रिया एनएसडी एलमुनाई के पक्ष में झुकी हुई था, आप एनएसडी पासआउट हैं तो आपका नाटक चुने जाने की संभावना अधिक थी. नाटकों के वीडियो से चयन पर भी सवाल उठाया गया था.  इस लेख को खूब पढ़ा गया, नटरंग के अंक की बिक्री भी हुई. ये इंटेरोगेशन इसलिए हो रहा था कि मैंने वो लेख क्यों लिखा, किसके एजेंडे पर या किसके कहने पर, उस वक्त भी मैंने उनके सामने स्वीकारा था कि अपरिपक्वता के कुछ कथनों को छोड़कर मैं पूरे लेख पर कायम हूं और मुक़दमा भी झेलने के लिए तैयार हूं. उनको सुझाव भी दिया कि आप चाहें तो नटरंग मे एक लेख लिखकर प्रतिवाद कीजिए. उन सभी ने मुझे वर्ल्ड थिएटर को जानने-समझने की सलाह देकर छोड़ दिया. उस दिन के बाद से मेरी कभी इच्छा नहीं हुई कि रंगमंच के लोगों से परिचय रखूं. जितनी दोस्तियां हुईं, उनके अलग कारण हैं. लेख का असर भी हुआ था. और असर ये हुआ था कि अगले भारंगम के दौरान रानावि सोसाईटी की तत्कालीन अध्यक्ष ने बाकायदा चयन की पारदर्शिता के लिए तर्क दिए थे. ये बताया था कि इस बार किन भाषाओं के नाटक शामिल किए थे. लोकनाटकों का एक सेक्शन शामिल हुआ था. नटरंग के संबंध एनएसडी से खराब हुए थे. रंग-प्रसंग में मेरा लेख प्रूफ रीडिंग कराने के बाद निदेशक की संभावित नाराज़गी की आशंका से नहीं छापा गया. ये यादें इसलिए नहीं कि मुझे विक्टिम कार्ड खेलना है, इसलिए भी नहीं कि एक बार फिर रंग-प्रसंग के एक अतिथि संपादक मुझसे लेख लिखवा-लिखाकर छापने का साहस नहीं दिखा पाए. बल्कि इसलिये कि रंगमंच का माहौल ही यही है डरपोक, लिजलिजे और चंपू किस्म के लोगों से भरा हुआ, जिनको अपनी कला और पुरूषार्थ से अधिक अपनी चमचई और कैनवासिंग पर भरोसा है, इसके लिए वो अपनी राह बनाते भी है और दूसरों की राह खोदते भी हैं.

रंगमंच के ये प्राणी रंगकर्म में जितना मुखर हैं जीवन में उतना ही कम बोलते हैं, ऐसे किसी जगह पर उनका हस्तक्षेप नहीं है जहां होना चाहिए. वो रंगमंच के हर सत्ता के पास नतमस्तक हैं, चाहे मंत्रालय हो, संगीत नाटक अकादमी हो, या राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय हो. लोग पूछते हैं मासूमियत से कि रानावि सत्ता कैसे है? ये समझना चाहिए. रानावि एक शिक्षण संस्थान है, जहां से 30 रंगकर्मी पासआउट होते हैं जिनका एक नेटवर्क है जो हर संस्थान मे होता है, जो आपस में एक दूसरे की मदद करते हैं. ये सिनेमा और रंगमंच के दुनिया मे असफल लोगों का पुनर्वास केंद्र भी है. ये इतने योग्य होते हैं कि इनकी खपत केवल रानावि में होती है, ये मैं नहीं बल्कि वरिष्ठ रंगकर्मी प्रसन्ना कहते हैं. रानावि छात्रों को काम यानी रोजगार देता है. एक्सटेंशन के जरिये, अपने सेंटर के जरिए, अपनी प्रस्तुतियों में, अपने महोत्सवों में. रंगमंच की हर प्रमुख कमेटी में रानावि से कोई होता है, रानावि रेपर्टरी ग्रांट बांटता है, रानावि संगीत नाटक अकादमी की पुरस्कार समिति में होता है. इतने अधिकारों से संपन्न सत्ता के विरोध में जाने वाला रंगकर्मी क्या ख़त्म नहीं हो जाएगा? रंगकर्मी ऐसा सोचते हैं लेकिन रंगकर्मियों के अनुभव और उदाहरण ही इस बात का प्रमाण है कि रानावि से दूर रहकर अच्छा और सशक्त रंगमंच हो सकता है जो अधिक लोगों तक पहुंच सकता है. लेकिन जिन्हें अपनी कला पर भरोसा नहीं है वो रानावि की परिक्रमा करते रहते हैं.

यहां यह कहना चाहिए कि रानावि की सत्ता का असर हिन्दी प्रदेश के रंगकर्मियों पर अधिक है, जो इसके बाहर देखना नहीं चाहते और अपने रंगकर्म की वैधता का स्रोत रानावि से खोजते रहते हैं, ना मिलने की सूरत में रानावि के प्रति हमलावर होते है. लेकिन इस सत्ता के समानांतर बेहतर रंगमंच करने की कोई जिजीविषा आज के दौर में कम से कम हिन्दी प्रदेश के रंगकर्मियों में नहीं दिखाई पड़ती. दक्षिण और पश्चिम से युवा रंगकर्मियों में अपने समय को व्यक्त करने की एक भाषा की ललक दिखाई पड़ती है. यहां कहना चाहिए कि हिन्दी प्रदेश में यह तत्परता रानावि के पासआउट ही दिखा पाए हैं और अपने शहरों में लौटकर या दिल्ली में ही सतत रंगकर्म कर रहे हैं. लेकिन चिंता का सबब है कन्फर्मिस्ट रंगकर्मियों की संख्या में वृद्धि.

8th Theatre Olympics (Facebook)

रंगमंच में “हां हां” करने वालों की यह जमात आपको रंगमंच की सत्ता के समर्थन में सारे तर्क जुटा देगी कि भारत रंग महोत्सव को टालकर थिएटर ओलंपिक्स क्यों जरूरी है? थिएटर ओलंपिक्स में नहीं झेले जाने वाली प्रस्तुतियों को रखना क्यों जरूरी है? ओलंपिक्स समिति के सदस्यों के आठ नाटकों के तीन-तीन शो और हर शो के लिए तीन लाख देना क्यों जरूरी है? ओलंपिक्स में चयनित नाटकों की सूची अंत तक जारी नहीं करने के लाभ क्या हैं? और कई शहरों में दर्शक जो ओलंपिक्स के नाटक देखने पहुंचे ही नहीं, उससे रंगमंच का कैसे प्रसार हो रहा है? रंगकर्मियों में से कोई नहीं पूछता कि रानावि निदेशक ने ख़ुद को फायदा पहुंचाने वाले नियम क्यों बना लिए? अपने ही नाटक को मुंबई अध्याय की उद्घाटन प्रस्तुति क्यों बनाया? अपने एक नाटक के तीन शो क्यों लगाए? जिन निर्देशकों के नाटक चयन में रिजेक्ट हुए, उनके दूसरे नाटक कैसे इनवाइट हो गए?

रंगकर्मी ये भी नहीं पूछते कि अनुदान को बांटने में इतनी अनियमितता क्यों है? रेपर्टरी ग्रांट समय से जारी क्यों नहीं किया जाता? जारी होता है तो रेपर्टरी के सदस्यों का पैसा किसी एक जेब में क्यों चला जाता है? रंगमंच में 18 प्रतिशत जीएसटी आखिर क्यों लगाया गया है? रंगमंच के लिए बुनियादी संरचना मुहैया कराने में सरकार नाकाम क्यों है? क्यों रंगकर्मियों को छोटी-छोटी चीजों के लिए जूझना पड़ता है? जब दिल्ली की ‘आप’ सरकार ने अपने महोत्सवों के लिए विषय निर्धारित करने की कोशिश की तो बहुत सारे रंगकर्मियों को यह समझ में ही नहीं आया कि ऐसा करना खतरनाक क्यों है? दिवंगत रंगकर्मी पद्मभूषण कन्हाईलाल ने इंतकाल से कुछ दिनों पहले मुझसे हुई बातचीत में बताया था कि कैसे वे अपनी रेपर्टरी के सदस्यों को चौदह महीने से पैसे नहीं दे पाए हैं.

भारत के रंगमंच में जो हस्तक्षेप और असहमति मुखर प्रतिनिधि हैं, वे भी मैनेज्ड हो चुके हैं. जबकि रंगमंच के मूल में संघर्ष है, वह स्थितियों का हो, विचार का हो या सही गलत का. एक प्रसिद्ध रंगकर्मी ने कभी मुझसे कहा था कि सत्ता रंगमंच का खुले मन से इसलिए समर्थन नहीं कर सकती क्योंकि उसे भय होता है कि असली रंगमंच ऐसे सत्य के साथ खड़ा होगा जो कि सत्ता के सच के विपरीत है. रंगमंच में कभी-कभी आप अपने विरोध में भी खड़े हो जाते हैं लेकिन आज रंगमंच की असहमति की इस प्रवृति को सत्ता ने रंगकर्मियों से ही मैनेज करा लिया है.

मैं इतने गुस्से में क्यों हूं? इसे लोग कुंठा और नकारात्मकता कहकर खारिज़ कर सकते हैं. लेकिन मैं भूल नहीं पाता कि रंगमंच का अर्थ ही है एक जड़ टाइम और स्पेस में जीवंत हस्तक्षेप. विश्व में और भारत में भी रंगमंच की परंपरा भी हस्तक्षेप की है. अंग्रेजों ने रंगमंच को काबू करने के लिए एक खास कानून बना दिया, आजादी के बाद इप्टा के लोगों की धरपकड़ हो गयी. सफ़दर हाशमी की हत्या का प्रसंग हमें याद है और सांप्रदायिकता का विरोध करने के लिए हबीब तनवीर पर हमले हुए. लेकिन अभी मैंने इप्टा से जुड़े रहे एक रंगकर्मी की वाल पर लिखा कि “क्या युवा, वरिष्ठों की तर्ज पर रंगमंच की लूट का भी स्वागत करें” तो उन्होंने मेरा कमेंट ही डिलीट कर दिया. यूं, लोग अपने विचार को तो सत्ता के अनुकूलित कर ही चुके हैं, दूसरों के विचार को भी रोकना चाहते हैं.  यहीं रंगमंच की प्रवृत्ति है, जहां रंगकर्मी अपने समय में हस्तक्षेप करने की बजाय दूसरों के तमाशे में जमूरे बने हुए हैं, अपनी स्वायत्तता भूलकर वे विश्व रंगमंच को बधाई दे रहे हैं. एक असहज करने वाला सवाल पूछने और सहने का किसी को साहस नहीं है.

तो क्या सच में रंगकर्म में इतनी निराशा है? है, लेकिन उम्मीद भी है. क्योंकि कोई निर्देशक सत्ता की चारण परंपरा से दूर रहकर अपने समय का भाष्य नाटक के जरिए पेश करता है. क्योंकि कोई निर्देशक रंगमंच में चल रहे उत्सवी तमाशे का हिस्सा बनने से इनकार कर देता है. क्योंकि कोई इसी में हबीब तनवीर के “दो पैसे लूंगा, चार गाली दूंगा” की तर्ज पर सत्ता से सच कहने का साहस करता है. कोई मुख्यधारा से दूर रहकर एक रंग माहौल बनाने की कोशिश करता रहता है. ऐसे ही लोगों को आगे आकर रंगमंच की सत्ता को “नहीं” कहना होगा इससे पहले कि असहमति की सारी आवाजें अनुकूलित कर ली जाएं, क्योंकि इस समय सत्ता का घेरा हमारे इर्दगिर्द ऐसे बना हुआ है, जो हमारे जीवन के बुनियादी मूल्यों को बदलने की कोशिश कर रहा है. रंगमंच जैसे लोकतांत्रिक माध्यम में ही क्षमता है कि समाज को बुनियादी मूल्यों की तरफ वापस ले आए.


[इस आलेख में बहुत तेज़ी है, कई प्रश्नों को एक छोटे और समग्र में समाहित करने की कोशिश है. आंच इतनी है कि उसकी जद में, संभवत:, कोई भी रंगकर्मी नहीं आना चाहेगा. अमितेश कुमार हिन्दी साहित्य, रंग-आलोचना और पत्रकारिता में नया नाम नहीं हैं. अपने पैने विश्लेषण से उन्होंने कई शत्रुओं का निर्माण किया है. यहां निर्माण पर ज़ोर समझें. यह आलेख एक अध्याय है. ‘रंगविमर्श’ ब्लॉग के साथ-साथ कई अख़बारों और पत्रिकाओं के लिए लिखते रहते हैं. यह लेख थिएटर ओलंपिक्स के दरम्यान और आसपास फैली भ्रष्ट और प्रश्नोचित गतिविधियों को रेखांकित करता है.]

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