फुटनोट से शीर्षक तक का सफर
विपिन चौधरी
अमरीका की धरती पर नस्ल के मुद्दे पर बात करना आज भी असुविधाजनक माना जाता है. नस्ल के इसी असहज मुद्दे को 1960 में अस्तित्व में आए अश्वेत नारीवादी यानी ब्लैक फेमिनिस्ट आंदोलन ने अपने एजेंडे में शामिल करते हुए नारीवादी आंदोलन को ऐसा आयाम दिया, जिससे इस आंदोलन का आकार रूप ले सका. जहां प्रबुद्ध स्त्रियां अपनी चेतना को धार दे रही थी वहीं नस्लीय उत्पीड़न की शिकार अश्वेत गुलाम महिलाओं ने बंधुआ मजदूरी को ध्यान में रखते हुए संतानों को जन्म देने से इंकार कर दिया. इस तरह स्त्रियों ने अपनी प्रजनन शक्ति को अपने अधिकार में रखते हुए यह निर्णय लिया. पूंजीवादी व्यवस्था में कठोर श्रम करके अपने अधिकारों को समृद्ध करने और पुरुषों द्वारा शारीरिक और यौन शोषण को सहने के लिए अब वे तैयार नहीं थी.
श्वेत नारीवाद बनाम अश्वेत नारीवाद
श्वेत महिलाओं द्वारा नारीवादी आंदोलन में व्याप्त नस्लवाद के उपकरण का भेदभावपूर्ण प्रयोग अश्वेत आंदोलन को बाहर करने के लिए किया गया था. अपने श्वेत वर्चस्व के जरिये ही उन्होंने अश्वेत स्त्रियों को नारीवाद विमर्श से बाहर रखा. अश्वेत नारीवादी स्त्री जाति, वर्ग और लिंग तीनों पक्षों से पीड़ित थी, वहीं उत्पीड़न की आपस में गुंथी हुई यह प्रणाली श्वेत समृद्ध महिलाओं पर लागू नहीं थी होती थी क्योंकि उन्हें जाति और वर्ग का विशेषाधिकार विरासत में प्राप्त था. श्वेत नारीवादियों द्वारा सक्रिय नारीवादी आंदोलन के बुनियादी ढांचे में नस्लवाद की मजबूत उपस्थिति ने अश्वेत स्त्री आंदोलन को वह नींव प्रदान की जिसपर उन्होंने अपने लिए एक पृथक स्त्रीवादी आंदोलन खड़ा किया. ब्लैक फेमिनिस्टों का यह मानना था कि लिंगवाद दरअसल वर्ग उत्पीड़न, लिंग अभिन्नता और नस्लवाद का आपसी मेल है. आगे चलकर साल 1989 में इन तीनों के आपसी संबंधों को नागरिक अधिकारों की अधिवक्ता किम्बर्ले क्रेनशॉ ने ‘इंटरसेक्शनैलिटी’ का नाम दिया. इसके अलावा पितृसत्ता के प्रभाव और अपने औपनिवेशिक अनुभवों के साथ अश्वेत स्त्रियों के जीवन-आयाम, श्वेत स्त्रियों से कई मायनों में अलग थे. समूचे अमरीका में अल्पसंख्यक महिलाएं जातीय व लिंग के स्तर पर भेदभाव सहन कर रही थी. अश्वेत स्त्रियों को हर आंदोलन में हाशिए पर रखा जा रहा था. इसी तरह मुख्यतः स्त्रियों को वोट देने अधिकार पर केंद्रित आंदोलन में अफ्रीकी-अमरीकी महिलाओं के मताधिकार पर बात नहीं की गयी. श्वेत मताधिकारवादी स्त्रियों के इस रुख से खफ़ा होकर प्रसिद्ध दासप्रथा-विरोधी और स्त्रीवादी कार्यकर्ता सोजॉर्नर ट्रूथ इस आंदोलन से अलग हो गयीं. अमरीका में, विशेष रूप से दक्षिणी क्षेत्र में 1954–1968 तक सक्रिय रहे ‘नागरिक अधिकार आंदोलन’ जिसकी अगुवाई मार्टिन लूथर किंग जूनियर, रोजा पार्क, मैल्कम जैसे लोग कर रहे थे और जो आंदोलन ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ की टैगलाइन को सामने रख कर लड़ा जा रहा था, उसमें भी अश्वेत स्त्रियों के प्रति नस्लीय भेदभाव कायम था. अश्वेत नारीवादियों का यह मानना था कि लिंग और लैंगिकता को व्यक्तिगत मुद्दे के रूप में नहीं बल्कि इन दोनों को आवश्यक रूप में राजनीतिक विश्लेषण और संघर्ष का हिस्सा होना चाहिए. सामाजिक कार्यकर्ता और लेखिका एंजेला डेविस ने कहा था, “अगर अभी भी हम नस्लवाद के बारे में अर्थपूर्ण बात करना शुरू नहीं करेंगे, तो हमारे संघर्षों को भ्रामक दिशाओं में स्थानांतरित कर दिया जाएगा.”
अपने प्रति दुराग्रहों के प्रति जागरूक अश्वेत महिलाओं ने अश्वेत स्त्रीवाद के रूप में अपने लिए एक विस्तृत स्पेस बनाया और पूरी गंभीरता से उसके भीतर अपनी आवाज़ को मुखर करते हुए इस आंदोलन की जमीन पुख्ता की. सच तो यह है कि मुख्यधारा के नारीवादी आंदोलन में भेदभाव स्वरुप उपजी परिस्थितियों की वजह से अश्वेत स्त्रियों को ऐसी उत्प्रेरक शक्ति मिली जिसकी ऊर्जा का प्रयोग उन्होंने अपने लिए अलग अश्वेत नारीवाद की स्थापना में किया.
नारीवादी आंदोलन में प्रयोग किए जाने वाले ‘सिस्टरहुड इस पावरफुल’ नारे के ठीक पीछे अश्वेत स्त्रियों के प्रति दुर्भावना देखी गयी. “सिस्टर” और “सिस्टरहुड” के नारे को व्यावहारिक तौर पर अमल में लाने से बेरुखी का विरोध हुआ, पहले धीमे स्वर में, बाद में मुखरता से. अमरीकी दार्शनिक और नारीवादी लेखिका टी-ग्रेस एटकिनसिन का यह कथन “इस शक्तिशाली बहनापे ने ही बहनों को मार डाला है” ही इस आंदोलन के अंधेरे पक्ष का पता देता है कि किस तरह मुख्यधारा के फेमिनिज्म में निर्धारित मानदंड उस समय भ्रामक और अविश्वसनीय हो गए थे, जब उन्होने इन मानदंडों को अश्वेत स्त्रियों के मुद्दों को बहिष्कृत करने के लिए इस्तेमाल किया, जो उनके बहनापे के सांचे में फिट नहीं बैठती थीं. जबकि सिस्टरहुड का सही अर्थ सभी स्त्रियों को एकसाथ लेकर चलने में निहित है.
1971 में अमरीकी नारीवादी लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता बेल्ल हुक्स ने अपनी किताब “ऐन्ट आई अ विमन” में लिखा है, “सिस्टरहुड एक सामाजिक जमावड़ा नहीं बल्कि एक राजनीतिक बल का नाम है, जिसका इस्तेमाल हम अपनी देह को स्वयं से मुक्त करने और अपनी बहनों को पुरुषों द्वारा निर्मित पिंजरों से मुक्त करने के लिए चाहते हैं.”
अश्वेत नारीवाद ने श्वेत नारीवाद के सभी रूपों में व्याप्त साम्राज्यवाद की सभी बुराइयों की गिनती करते हुए उन्हें चुनौती भी दी. यही नहीं अश्वेत महिलाओं ने मुख्यधारा के श्वेत नारीवादी आंदोलन की पहचान “श्वेत महिलाओं की सांस्कृतिक संपत्ति” के रूप में करनी शुरू कर दी. स्त्रीवादी आंदोलन के लिए अश्वेत नारीवादी स्त्रियों द्वारा दी गयी यह नयी पहचान निश्चित रूप से घातक थी क्योंकि उस समय न केवल अमरीका या रूस बल्कि समूचे संसार की स्त्रियां इस नारीवादी आंदोलन से खुद को जोड़कर देख रही थी और इसकी उन्नति की कामना कर रही थी.
इतिहास का उत्खनन
अमरीका की धरती पर एक के बाद एक सक्रिय हुए आंदोलनों में अश्वेत लोगों को दरकिनार किया गया लेकिन एक समय के बाद अश्वेत स्त्रियां समझ चुकी थीं कि किसी व्यक्ति का सामाजिक परिवेश उसकी पहचान के निर्माण में एक निश्चित कारक होता है. इसी तरह उनका सामाजिक परिवेश ही उनकी पहचान है. अश्वेत आंदोलन में सक्रिय होने के बाद स्त्रियों ने अपने परिवेश और इतिहास की पड़ताल करते हुए पाया कि इसी क्रम में उन्हें अश्वेत स्त्रियों के लिए गढ़ी गयी नकारात्मक धारणाओं से भी निजात पाना होगा, जिसमें उन्हें ख़राब रूपों में दर्शाया गया था. उनकी ये छवियां अश्वेत पुरुषों और श्वेत स्त्रियों की छवियों से कहीं अलग थी. लम्बे समय से इन खराब छवियों को श्वेत समाज ने न केवल बनाए रखा बल्कि उनका विस्तार भी किया. अश्वेत स्त्रियों की छवि घरेलू अयोग्य नौकर की थी या फिर वे दबंग मातृत्व वाली महिला तो कभी वे सेक्स ऑब्जेक्ट के तौर पर आंकी गयी. लंबे समय तक नस्लवाद और लिंगविशेष के वर्चस्व में रहने के कारण विरासत में मिले इस इतिहास में वे अपने लिए बनी बेहद अजीब और अपमानजनक छवियों को बगल में दबाए हुए जिए जा रही थीं. उनकी ये छवियां ‘एंटेबैलम युग’ की देन मानी गई. दक्षिणी अमरीका के इतिहास में ‘एंटेबैलम युग’ 1861 के अंत से अमरीकी नागरिक युद्ध की शुरुआत तक यानी 1861 तक चला था. माना गया था कि इस समय दास लोगों ने वृक्षारोपण और खेती की मदद से दक्षिण के आर्थिक विकास में काफी योगदान दिया था.
इसी युग में अश्वेत स्त्री के लिए बुरी छवि गढ़ी गयी, जिसका नकारात्मक प्रभाव लंबे समय तक बना रहा. इस संकल्पना ने अश्वेत महिलाओं को सभी नकारात्मक लक्षण मिले जिसके फलस्वरूप समाज द्वारा उन्हें अपमानित करने का लाइसेंस भी मिल गया. दूसरी तरफ श्वेत स्त्रियों को “सच्ची स्त्री” साबित करने में कोई कोर-कसर नहीं रखी गयी, वे सभी सकारात्मक गुणों को धारण करने वाली नारियां बनी, उन्हें शुद्धता का परिचायक माना गया. उन्हें हर तरह का सम्मान दिया गया और वे कुशल पारिवारिक स्त्री मानी गयी. इस प्रकार अफ्रीकी-अमरीकी समुदायों में आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और पर्यावरणीय चुनौतियां अश्वेत स्त्रियों के इतने खिलाफ थीं कि शायद ही अन्य नस्लीय समुदायों में उस तरह की दुर्दशा की मिसाल मिल सके.
निजी अनुभव की प्राथमिकता
अमरीका में अश्वेत स्त्री का इतिहास ऐसा इतिहास है जिसे सिर्फ अश्वेत स्त्रियां ही बयां कर सकती थीं. अश्वेत स्त्रीवादी आंदोलन में सक्रिय होने के बाद वे अपनी जड़ों तक गयीं, जहां इतिहास से आती हुई हल्की रोशनी में उन्होंने अपने वर्तमान को बांचकर भविष्य की तैयारी की. अश्वेत स्त्रीवादी आंदोलन अपनी सोच में श्वेत स्त्रीवादी आंदोलन से कहीं अलग था. अश्वेत आंदोलन की पैरोकार करने वाली स्त्रियां स्त्री और अश्वेत दोनों के भार को अपने से अलग कर आइडेंटिटी की तरफ लौट रही थीं और उनकी आदर्श श्वेत महिलाऐं नहीं, बल्कि अपने आस-पड़ोस की वे अश्वेत स्त्रियां थीं, जिन्होंने अपने जीवन को खुद साधा.
श्वेत स्त्री ‘ट्रू विमनहुड’ से ‘रियल विमनहुड’ के सफर में संघर्षरत थी, वही अश्वेत स्त्री उन्नीसवीं सदी के दास-प्रथा के अनुभवों को बीसवीं सदी के स्त्रीवादी आंदोलन में शामिल कर रही थी. यहां दोनों आंदोलन में शामिल स्त्रियों के सफर के रास्ते भी एक-दूसरे से कहीं अलग थे. अश्वेत स्त्री को अपनी दासता के दारुण इतिहास को समझते हुए अपनी स्त्री होने की लड़ाई के नजदीक जाना था, उनके पास एफ़्रो-अमरीकी होने के अनुभव भी थे, दासता के इतिहास और नस्ल के फलस्वरूप उपजे भेदभाव और वर्ग और लिंग के अंतरसंबंधों से उपजे भेदभाव के आलोक में उन्हें अपने आगामी संघर्षों के लिए कमर कसनी थी.
अश्वेत स्त्रियां अपने ऊपर होने वाले दमन के बारे में क्या सोचती हैं और उससे बदलाव के प्रतिमान कैसे होने चाहिए, यह सब सिर्फ वे ही तय कर सकती थीं. जब एक फेमिनिस्ट “मैं एक अश्वेत स्त्रीवादी हूं” कहती है, तो उसका अश्वेत होना अलग मायने रखता है. अश्वेत फेमिनिस्ट रचनाकारों ने सबसे पहले स्त्री के बौद्धिक अस्तित्व की बात को सामने रखा. उन सबने यह माना कि पढ़ना-लिखना उनके अंतर्मन में खुशी, शक्ति और ज्ञान उत्पन्न करता है, ज्ञान उनकी प्रेरक शक्ति है, उन्हें ऐसी ही प्रेरक शक्ति की तलाश थी जिसके बूते वे अपने आसपास की स्त्रियों के लिए नैतिक और राजनीतिक समझ और प्रेरणा भरने का काम बेहतर तरीके से सामने रख सकती हैं. यह विचार उनके नारीवादी विचारों के गठन का भी प्रतीक बना, जिससे अश्वेत स्त्री रचनाकारों ने विभिन्न शैलियों-विधाओं के जरिये ज़ाहिर किया. शायद यही कारण है कि उनके लेखन में खास तरह का आत्मसम्मान और लेखन की शक्ति पर विश्वास देखने को मिलता है.
अश्वेत नारीवादी आंदोलन में अपनी नस्ल की प्रवक्ता बनकर आई अश्वेत स्त्रियां अपने नस्लीय संघर्षों को बेहतर अंजाम पर लाने के लिए संकल्पित थीं. उनका मानना था कि मुख्यधारा का आंदोलन अश्वेत स्त्रियों की विशिष्ट और विशेष समस्याओं को बेहतर तरीके से सामने नहीं रखता. श्वेत नारीवाद के आंदोलन में उन्हें ‘रेस ब्लाईडनेस’ यानी ‘जातीय रंगहीनता’ नज़र आयी. ऐसा मानने वाली अश्वेत स्त्रियों के पास अपने तर्क थे, जिनके आधार पर उन्होंने कहा कि अश्वेत स्त्रियों के रोज़मर्रा के जीवन में पेश आने वाले पूर्वाग्रहों से सिर्फ अश्वेत स्त्रियां ही अवगत हैं और यही कारण है कि वे अपने प्रति होने वाले उत्पीड़न का सक्रिय रूप से विरोध करने का पुरज़ोर जज़्बा रखती हैं. नारीवादी आंदोलन से अश्वेत महिलाओं को अलग-थलग किया जा रहा है, यह संज्ञान में आने के परिणामस्वरूप ही अश्वेत स्त्रियों में एकजुट होने की संभावनाएं बढीं और अपनी साझेदारी को बरतने के बाद ही उन्हें इस बात पर विश्वास हुआ कि स्थापित नस्लवाद और उसके परिणामस्वरुप उपजे दुर्व्यवहार ने ही उन्हें एकसाथ एक स्थान पर अपनी आवाज़ तेज़ करने का साहस प्रदान दिया है.
अश्वेत नारीवाद का स्पेस एक ऐसी जगह बना जहां व्यक्तिगत अनुभवों को महत्त्वपूर्ण माना गया और उनका सम्मान किया गया. इसमें अश्वेत महिलाओं के व्यक्तिगत जीवन अनुभव शामिल थे, जिससे इस फेमिनिज्म का संवाद तैयार हुआ. इस आंदोलन की पृष्ठभूमि पर कई रचनात्मक कामों को अंजाम दिया गया. प्राथमिक तौर पर इस आंदोलन ने अश्वेत महिलाओं को अपने अनुभवों के साथ वैधता की भावना मुहैया करायी, दूसरा यह आंदोलन अश्वेत महिलाओं को उनके अनुभवों को अधिक गहराई से देखने की गुंजाईश देता है ताकि राजनीतिक निर्माण के जरिए उनके जीवन के उत्पीड़न का अंत हो सके. कई अफ्रीकी अमरीकी महिलाओं ने विभिन्न आंदोलनों से प्राप्त अनुभवों से ज़रूरी सबक सीखा और उन्हें अपनी पहुंच में आ रहे सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में लागू किया. नारीवादी विचारधारा में यह माना गया कि एक स्त्री के निजी अनुभव उसके लिंग और नस्ल के योग से कहीं अधिक शक्तिशाली हैं. अपनी किताब “ब्लैक फेमिनिस्ट थॉट” में पट्रीशिया हिल कॉलिंस कहती हैं, “अश्वेत नारीवाद में हमें नस्ल, वर्ग, लिंग और इंटरसेक्शन पर लिखने के लिए स्पेस बनाना पड़ा.”
इसी संदर्भ में प्रसिद्ध फेमिनिस्ट लेखिका ऑड्रे लॉर्ड का यह कथन काफी महत्वपूर्ण है कि “जब मैं खुद को “मैं एक अश्वेत नारीवादी हूं” कहती हूं तो मैं यह जानती हूं कि मेरी शक्ति और मेरे साथ हुए उत्पीड़न, दोनों मेरे अश्वेत और स्त्री होने के कारण हैं और इसलिए इन दोनों मोर्चों पर मेरे संघर्ष हैं.”
“सत्ता अपना प्रभुत्व कायम रखने के लिए अपने विचारों की एक लोकप्रिय ‘कॉमनसेंस’ प्रणाली बनाती है, जो उसके शासन के अधिकार का समर्थन करती है. संयुक्त राज्य अमरीका में जाति, वर्ग, लिंग, और देश के बारे में विविध विचारों को अक्सर इतना व्यापक माना जाता है कि सामाजिक प्रथाओं का विरोध करने के तरीके को छोड़ने के बाद इनके विकल्पों की अवधारणा करना मुश्किल है,” पट्रीशिया हिल कॉलिंस का ऐसा कहना अश्वेत नारीवादी आंदोलन के दृष्टिकोण को और अधिक साफ़ करता है कि नस्ल के मुद्दे का राजनीतिक सच कितना घिनौना है, जो आज भी अपने दबदबे को कायम रखने के लिए सामाजिक उत्पीड़न के औज़ार के रूप में नस्ल को कायम रखना चाहता है.
ब्लैक फेमिनिज्म के इसी विस्तृत अहाते में अश्वेत स्त्री के जीवन के अनछुए पहलुओं पर आज तक चर्चा चल रही है. साथ ही अश्वेत स्त्री पर बात करते हुए पॉलिटिक्स ऑफ़ रेस्पेक्टेबिलिटी, मिसोजिनोयर, मल्टिपल जिओपार्डी, विमनिस्म, होमप्लेस जैसे नए शब्द अस्तित्व में आये, जिन पर अश्वेत नारीवाद में खुलकर बात हुई.
[विपिन चौधरी हिन्दी में बीते कई सालों से सक्रिय हैं. बेशकीमती अनुवादों के साथ-साथ विपिन चौधरी के पास कविताएं और इस तरह के छोटे-बड़े डिस्कोर्स के औजार मौजूद हैं. थोड़ा अकादमिक स्वरूप लिए यह आलेख एक समय के लिए थोड़ा जटिल लग तो सकता है, लेकिन भारतीय राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य में देखने के कुछ मार्ग इस लेख से ज़रूर खुल सकते हैं, ऐसा मानना है. भारत में जब सबआल्टर्न पर बहस शुरू होती है, तो लम्बे समय से हाशिए के भीतर के हाशिए को नज़रंदाज किया जाता रहा है. मुस्लिमों पर बात करते वक़्त मुस्लिम महिलाओं के बारे में – जैसे हिन्दू स्त्री या मुस्लिम पुरुष यह तय करे कि निर्धारण किस प्रतिज्ञा में हो -या दलितों पर बात करते वक़्त उन महिलाओं के बारे में और हाशिए पर रह रहे समुदायों पर बात करते वक़्त (अक्सर) आदिवासियों के बारे में. इनमें यदि ट्रान्सजेंडरों और समलैंगिकों को भी जोड़ दें तो समस्या और भी विराट हो जाती है. ऐसे में विपिन का यह आलेख, जो हिन्दी के लिए किंचित नया ही विषय है, अंतरसंबंधों यानी इन हाशियों के पैमानों की ‘इंटरसेक्शनैलिटी’ की बात ज़ाहिर करता है. इंटरसेक्शनैलिटी पर थोड़ा तेज़ और थोड़ा साफ़ नीचे वीडियो से जान सकते हैं. इन बातों पर, हमें लगता है, और बातें दरकार हैं. इससे संभावना यह बनती है कि जनांदोलनों की एक विराट सचाई से सामना किया जा सके और उनके करेक्शन का रास्ता खोला जा सके. फोटो साठ के दशक में विशेषकर ब्लैक महिलाओं की समस्याओं के लिए निकाले गए ‘लिबरेशन मार्च’ की है, जिसे गेटी इमेज़ेस के लिए डेविड फेंटन ने क्लिक किया था.]
After nearly four centuries of oppression, having been raped, murdered, lynched, spat upon, pushed through back doors, denied human respect, thought of and treated as sluts and mammies and Negresses, fit only to breed and suckle babies, to wash and cook and scrub and sweat, after having been sexually depersonalized and taken bodily for the having, the Negro women of the modern era are just beginning to be recognized as human beings, as sexual creatures clothed in their own personal skins, as American citizens with public rights and duties, private longings and desires, like any other citizen of this republic….Hernton