“यहां ‘भूल-सुधार’ नहीं आत्मस्वीकृतियां छापी जानी चाहिए”
किसी कवि की कविताएं यत्र तत्र पढ़ने से भी कवि की काव्य संवेदना का पता मिलता है लेकिन संग्रह में एकमुश्त कविताएं पढ़ने से कवि के अन्दर बाहर की दुनिया का परिचय ऐसे मिलता है कि यह उत्सुकता एक बार के लिए शांत हो जाती है कि ‘इस कवि के पास और क्या है, इसकी दुनिया में और क्या है’. औपचारिक रूप से प्रकाशित संग्रह उस जिज्ञासा का शमन करता है जो कवि की खंड-खंड कविताएं पढ़कर कई बार उद्विग्नता में बदल जाती है कि वह क्या तस्वीर होगी जो बहुत सी कविताएं एक साथ पढ़ने से बनेगी. जब कविताएं छपने लगती हैं तो पाठक और दूसरे कवि मित्र भी बारंबार कहते हैं ‘अब संग्रह आना चाहिए’, इस ‘आना चाहिए’ के पीछे कई तरह के कारक हैं. संकलन होने से व्यावहारिक दृष्टि से कविताएं व्यापक पहुंच बना सकती हैं और इससे कविताओं को एक दैहिक रूप मिलता है, और नैन नक्श मिलते हैं, एक जिल्द मिलती है जिसके भीतर वे सदा सदा के लिए बनी रहती हैं और तब भी बनी रहेंगी जब कवि नहीं रहेगा, संग्रह आने से कवि घोषित रूप से अपनी भाषा और साहित्य में अपने पूर्वजों, समकालीनों और आने वाली पीढ़ियों के साथ एक सम्बन्ध में किंचित विधिवत रूप में जुड़ जाता है, कुल मिलाकर संग्रह शायद कवि की स्व-घोषणा है कि जो जीवन उसने जिया, जो सोचा, जो अनुभव किया, जो कल्पना की – उस सभी कहे और अनकहे रह जाने वाले अनुभवों पर यह उसकी टिप्पणी है.
किसी कवि का संग्रह आने का अर्थ शायद यह भी है कि कविताओं के प्रति जो विविध भावनाएं जैसे अनिच्छा, शर्म, अपराध बोध, आलस्य, निराशा, गर्व, अहंकार आदि समय समय पर मन में उमड़ती रहती हैं, वह उनके साथ संघर्ष करने के बाद परिणामों की परवाह किए बग़ैर अपने रचनात्मक कार्य को अब दूसरों के हाथों में देने के लिए पूरी तरह तैयार है या फिर वह शिम्बोर्स्का की तरह स्वीकार करता है ‘बेहतर लगती है मुझे कविताएं लिखने (प्रकाशित करने) की निस्सारता बनिस्बत कविताएं ना लिखने (प्रकाशित होने) की निस्सारता से’.
अगस्त 2017 में अविनाश का पहला कविता संग्रह ‘अज्ञातवास की कविताएं’ प्राप्त हुआ तो पढ़ते पढ़ते इच्छा हुई कि अपनी प्रतिक्रिया के रूप में हम परस्पर बात करें. यह प्रस्तुति वही बातचीत है जो ईमेल के माध्यम से कई महीनों में संपन्न हुई.
मोनिका कुमार
‘अज्ञातवास की कविताएं’ पढ़ते हुए इन कविताओं के कवि के व्यक्तित्व की कई परतें दिखाई देती हैं, लेकिन यह एक ही साथ कई परतों का समान आवेग से समानांतर बहने का दृश्य नहीं है. यह कोई उत्तराधुनिक शख्स़ नहीं मालूम पड़ता जिसे एक ही साथ जीवन में बहुत कुछ पसंद है और जिसने तमाम विरोधाभास को सोखकर विद्रूप में भी दिखाई दे रही संभावना को तरज़ीह देकर कामचलाऊ आशावाद से वर्तमान को देखने की कला सीख ली हो, बल्कि इन कविताओं का कवि असंदिग्ध रूप से हताश और उदास है. अपने निजी क्षणों में भी सामाजिक चेतना उसे अभिभूत करके रखती है. अमूमन कोई भी संवेदनशील व्यक्ति ऐसे सामाजिक और सांस्कृतिक यथार्थ में जीते हुए त्रस्त रहता है, लेकिन फिर भी अपने आपको संरक्षित करने की कवायद से अपना आंतरिक समानांतर संसार रच लेता है जो अपेक्षाकृत कम तनाव वाला और चुनी हुई चिंताओं वाला होता है. लेकिन ये कविताएं पढ़कर ऐसा लगता है कि जैसे इस कवि को ग़म-ए-दौरां से राहत नहीं. इस कवि को किसी के घर चाय पीने की निर्मल चाह है, लेकिन वह शराब पीने के आमंत्रण की भरमार से घिरा हुआ है. मैं तुमसे यह जानना चाहती हूं अविनाश कि स्थितियों और लोगों से इस कद्र सामने से मुकाबला करने की ऊर्जा तुम कहां से पाते हो. सार्वजनिक और निजी जीवन के संतुलन को कैसे साधते हो?
अविनाश मिश्र
मोनिका, इन कविताओं के काव्य-पुरुष को आपने ठीक ही पहचाना है, यकीनन उसे एक ही साथ जीवन में बहुत कुछ पसंद नहीं है. कभी-कभी बहुत कुछ न पसंद करने के नतीजे भी वैसे ही निकलते हैं, जैसे बहुत कुछ पसंद करने के. मेरे साथ इसलिए वही हुआ जिसकी तरफ अभी आपने भी इशारा किया कि मेरी कविताओं का काव्य-पुरुष अपनी रुचियों, चिंताओं और सरोकारों में सेलेक्टिव नहीं रह गया. वह सामने आ रहे हर व्यक्ति और स्थिति को एक सनक की हद तक समझना चाहता है. इस प्रक्रिया में वह ख़ुद और ख़ुद की स्थिति को भी समझना चाहता है.
परतें अगर आपको दिख रही हैं, तब इसका यह भी अर्थ है कि इन परतों से निकलकर जो सामने आया है, वह भी दिख रहा है. इन कविताओं का कवि बहुत वर्षों तक निराशा में सामर्थ्य खोजता रहा है. उम्मीद उसके लिए तकलीफ जैसी रही है. आप पा रही होंगी कि मैंने यहां बहुत सलीके से मंगलेश डबराल और आलोकधन्वा की कविता-पंक्तियों को अपनी बात कहने के लिए प्रयोग में ले लिया है.
जब मेरी कविताएं प्रकाशित होना शुरू हुईं, तब वीरेन डंगवाल ने — जिनसे मैं पहली बार कवि-आलोचक पंकज चतुर्वेदी के जरिए मिला — पहली मुलाकात में ही मुझसे कहा कि बहुत निराश नहीं रहना चाहिए. यह दुनिया बहुत नागवार लगती है, लेकिन बहुत सुंदर भी है. वीरेन जी ने मेरी कुछ कविताएं पढ़ रखी थीं.
इस प्रक्रिया का विश्लेषण मेरे लिए मुमकिन नहीं है, लेकिन यह बहुत धीमे-धीमे हुआ कि मैं उम्मीद के घर में रहने लगा. आगे कुछ यों हुआ कि मुझे इस घर को कभी अंदर से बंद करने की जरूरत महसूस नहीं हुई. अब मेरी स्थिति यह है कि मेरा काम कम रोटी से चल सकता है, लेकिन कम उम्मीद, कम सामाजिकता और कम तनाव से नहीं चल सकता. मैं एकांत चुन सकता हूं, लेकिन उसे समाज से पृथक नहीं कर सकता. इसके लिए ऊर्जा मुझे इसलिए मिल पाती है क्योंकि अपनी जरूरतें और प्राथमिकताएं तय करने में मैंने बहुत देर नहीं की और न ही मैं उन्हें किन्हीं अंतरालों में बदलता या छोड़ता रहा हूं. मेरे व्यक्ति और लेखक का संघर्ष एक है. मेरा मानना है कि अगर मैं ऐसा न करूं तो एक लेखक रहते हुए एक व्यक्ति के रूप में और एक व्यक्ति रहते हुए एक लेखक के रूप में ख़त्म हो जाऊंगा. कई आदर्शों और प्रेरणास्रोतों के उदाहरण से मैं इस बात को और स्पष्ट और सशक्त कर सकता हूं, लेकिन मुझे लगता है कि इसकी यहां कोई जरूरत नहीं है.
मोनिका कुमार
मैंने पहली बार करीबन पांच छह वर्ष पूर्व ‘बुद्धू-बक्सा’ ब्लॉग पर तुम्हारी लिखी हुई उमाशंकर चौधरी के कविता-संग्रह की समीक्षा पढ़ी थी. फिर तुम्हारी कविताएं अरुण देव द्वारा प्रकाशित ‘समालोचन’ ब्लॉग के ‘मंगलाचरण’ स्तंभ में, फिर ‘प्रतिलिपि’ पर और लगभग सभी लोकप्रिय ब्लॉग्स पर पढ़ीं और पत्रिकाओं में भी पढ़ीं. दिल्ली की नामचीन साहित्यिक जगहों पर हुए आयोजनों पर तुम्हारी रपटें पढ़ीं. तुमने ‘पहल’ में लंबे लेख लिखे. ‘पाखी’ में तुम्हारे उपसंपादक रहते हुए बहुत अच्छे विशेषांक निकले, ज़ाहिर है उसमें तुम्हारा सराहनीय सहयोग रहा क्योंकि अपनी बेबाकी की वजह से हर पीढ़ी के लेखक तुम्हें जल्द ही जानने लगे और तुम्हारे आग्रह पर लिखने के लिए तैयार भी हुए. मन ही मन शायद सभी यह जानने के लिए उत्सुक भी हुए कि अविनाश मिश्र आख़िर उनके बारे में क्या सोचता है, अगर अच्छी राय नहीं रखता तो उसे खारिज़ किया जा सकता है. लेकिन अगर वह अच्छा सोचता है तो यह निश्चित ही एक कठिन परीक्षा में उत्तीर्ण होने जैसा है, सो इस प्रकार तुमने अपने ख़ास अंदाज के कवि और साहित्यकर्मी होने से हिंदी साहित्य संसार में विश्वसनीयता अर्जित की. मैं तुम्हारी इस यात्रा को मानीखेज़ मानती हूं और ‘अज्ञातवास की कविताएं’ को उस यात्रा का महत्वपूर्ण पड़ाव. हालांकि इस बात से आश्चर्य में भी हूं कि तुम इस दुनिया में पांच-छह साल पहले ही तो प्रकट नहीं हुए होगे, लेकिन मुझे तुम्हारे इससे पूर्व-जीवन का कोई संकेत नहीं है. कुछ संकेत तुम्हारी कविताओं में अवश्य मिलते हैं कि तुम कहीं लंबा सफर करके कहीं से चलकर वहां पहुंचे हो, जहां आज हो. लेकिन मैं गद्य में जानना चाहती हूं कि हिंदी साहित्य संसार में इस उल्लेखनीय सक्रियता से पूर्व तुम कहां थे और क्या सोचते थे?
अविनाश मिश्र
यह एक औपचारिक सवाल है, लेकिन इसे बहुत अलहदा अदा से आपने पूछा है. मैं अब जो कहने जा रहा हूं वह आपके प्रश्न का मान रखते हुए पूरी तरह अभिधा और गद्य में है. मैं 1986 की सर्दियों में गाजियाबाद में पैदा हुआ, लेकिन जब स्मृतियां बनना शुरू होती हैं, तभी मुझे वहां से लाकर कानपुर की एक सबसे बदनाम बस्ती कुलीबाजार में छोड़ दिया गया. यह इलाका ‘खटिकाना’ कहलाता था, यानी खटिकों का मुहल्ला. कानपुर के खटिकों का मुख्य पेशा सुअर-पालन, सब्जी-व्यापार और अमानवीय सूद पर कर्ज देना है. मेरे बचपन के दिनों में वे मुहल्ले के ही नहीं पूरे शहर के सबसे ताकतवर लोग थे और ब्राह्मणों और बनियों के कई घर पुराने कानपुर में उनके दिए कर्ज़ में डूबे हुए थे. कुलीबाजार में ब्राह्मणों के घर गिने-चुने थे. ये घर खुद के नहीं थे, लेकिन ट्रस्ट के होने की वजह से इनका किराया बहुत मामूली था और इसलिए इनमें रह रहे लोग तमाम तकलीफों के बावजूद इन्हें छोड़कर नहीं जाते थे. वे कीचड़, धूल और बेहद संकरी-गंदी गलियों-गालियों के बीच शहर के केंद्र में बने-बसे-बचे रहते थे. मैं भी यहीं बड़ा हुआ — बग़ैर साहित्य का संस्कार लिए हुए.
उन दिनों मेरा पढ़ाई में बिल्कुल भी मन नहीं लगता था. मैं जल्द से जल्द ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाकर कानपुर न सही, लेकिन कुलीबाजार से निकलना चाहता था. मैं महज दस साल का ही हुआ था और ये विचार मेरे दिमाग में सोनू निगम, उदित नारायण, कुमार शानू, अनुराधा पौडवाल, कविता कृष्णमूर्ति, एसपी बाला सुब्रमन्यम, हरिहरन, जगजीत सिंह, पंकज उधास, अताउल्ला खां, राजेश्वरी, बाबा सहगल, दलेर मेहंदी, अल्ताफ राजा, अन्नू मलिक, अलीशा चिनॉय, साजिया मंजूर के गाये गानों के साथ गूंजने लगे थे. सुधीर मिश्र निर्देशित फिल्म ‘धारावी’ तब दूरदर्शन पर अक्सर चलती रहती थी. तब वह मुझे बिल्कुल समझ में नहीं आती थी, लेकिन मैं उस फिल्म के नायक (ओम पुरी) की तरह हो चुका था, जिसके सपनों में माधुरी दीक्षित यथार्थ थी और यथार्थ में ‘धारावी’ से निकलने का स्वप्न था.
वह साल 2003 के सावन का महीना था, जब मैंने अपनी बड़ी बहन और बड़े भाई के साथ कुलीबाजार हमेशा के लिए छोड़ दिया और कुछ महीनों बाद कानपुर भी. पिता हमें और इस दुनिया को बहुत पहले ही छोड़कर जा चुके थे और मां भी. इस स्थिति के बहुत विश्लेषण में जाने से ब्यौरे बढ़ेंगे और भावुकता भी. ज्यादा गहराई ज्यादा सहानुभूति पैदा कर सकती है और आत्मदया भी. ये चीजें मुझे एकदम पसंद नहीं हैं.
बाद इसके हुआ यों कि कुलीबाजार छोड़ने और दिल्ली आने के बीच के समय में मैं कविता लिखने लगा. मैंने करीब दो सौ कविताएं लिखीं — पूर्णतः छंदबद्ध-तुकांत. इनमें अपने बचपन, बचपन के साथियों, प्रेम और संबंधों… सबके सदा के लिए छूट जाने की लयमय कहानी थी. मेरा तब तक साहित्य और कविता के संसार से सिर्फ उतना ही परिचय था, जितना एक बारहवीं पास विद्यार्थी का सिलेबस में शामिल होने की वजह से होता है. कथित कविताओं से भरे वे तीन रजिस्टर मैंने पांच महीने में लिखे, लेकिन उन्हें उनकी सही जगह यानी आग और डस्टबिन तक पहुंचाने में मैंने पांच साल लगा दिए. इन पांच सालों में मेरा परिचय देश-दुनिया की महान कविताओं से हुआ. यह 2004-2009 के बीच का वक्त है. यह दौर ही मेरा अज्ञातवास है, जो आगे भी कुछ वर्ष जारी रहा. यह दिल्ली में साधना का वक्त है. दरअसल, मुझे शुरू में ही यहां कुछ ऐसे शुभचिंतक मिल गए, जिन्होंने मुझे मेरी दिशा दिखा दी. वे स्वयं दुनियावी और भौतिक अर्थों में बहुत असफल लोग रहे आए, लेकिन उन्होंने मुझे साहित्य के वास्तविक लक्ष्य, कर्तव्य और मूल्यों का ऐसा मार्ग दिखलाया कि अब जीते-जी शायद मैं अपना रास्ता कभी बदल नहीं पाऊंगा.
मोनिका कुमार
‘दिल्ली’ की बहुत छवियां हैं इस संग्रह में संकलित तुम्हारी कविताओं में. जहां तक मैं समझती हूं इन कविताओं में जहां भी तुमने महानगर या महानगरीय संस्कृति की बात की है उसका संदर्भ या आधार शायद दिल्ली के जीवन के तुम्हारे अनुभव हैं. ये छवियां सुखद नहीं हैं. इनमें कुछ खो देने की उदासी है. इस शहर में अपना नैतिक मनोबल बनाए रखने के लिए गहरे आत्मसंघर्ष की ज़रूरत है, यहां निराश मनुष्य सुबह उठता है और निश्चय करता है कि ‘मुझे अवसाद और नाउम्मीदी से बचना है’, ‘थकान और नैराश्य से भी’. कमोबेश भारत में एक आम आदमी किसी भी गांव-कस्बे में सुबह सोकर उठे, भिन्न कारणों से सही लेकिन ‘थकान और नैराश्य से’ बचने का निश्चय तो उसे भी करना पड़ता है. एक शहर जहां ‘बेवफाइयां हंसमुख और जुदाईयां शुष्क हैं’, वहां पर बहुत तेज चलती मेट्रो रेल जिसे दिल्ली की लाईफ लाईन माना जाता है, तुम्हारी कविता में आती है तो लगता है केवल वह लड़की और दो बच्चे ही नहीं बल्कि मेट्रो का हर यात्री एक अर्थ में हमारी औद्योगिक संस्कृति का अपहृत मनुष्य है जिसे मान लेना चाहिए कि अगर वह मकान मालिक है तो शरीफ है और किराएदार है तो लुटेरा और जिसे अपनी संवेदनाओं को जरा काबू में रखना चाहिए क्योंकि ‘कहीं कोई मजबूरी बताकर कुछ मदद मांग रहा व्यक्ति ठग है’. विकास के क्रम में जब संस्कृति ऐसे बिंदु पर आ पहुंचे जहां मनुष्य अपनी मूल भावनाओं और संवेदनाओं को छुपाने के लिए विवश हो जाए तो यह औद्योगीकरण की जीत तो भले ही लगे, लेकिन मनुष्यता की हार है. तुम्हें दिल्ली में हताशा दिखती है (जो कि है ही), यह तो तुम्हारी कविताओं में प्रकट है. मैं यह जानना चाहती हूं अविनाश कि तुम्हें दिल्ली में अच्छा क्या लगता है? ऐसा क्या है दिल्ली में जो तुमने बरसों से इसे घर और काम करने की जगह बनाया हुआ है?
अविनाश मिश्र
असद ज़ैदी ने अपनी एक कविता में दिल्ली को एक हृदयविदारक नगर कहा है. यह अलग बात है कि इस तरह मानने वाले बहुत सारे लोग दिल्ली या उसके बहुत आस-पास ही बने-बचे-बसे रहते हैं. उदय प्रकाश की कहानी ‘पॉल गोमरा का स्कूटर’ में पॉल गोमरा चीख़-चीख़कर कहता है कि मैं दिल्ली नहीं गाजियाबाद में रहता हूं. मैं भी कुछ इस तरह ही दिल्ली में रहता हूं, लेकिन इस प्रकार की हास्यास्पदता से यहां मैं बचना चाहूंगा.
हिंदी के लगभग हो चुके और हो रहे सारे लेखक, बहुत कम अपवादों को छोड़कर, अपने व्यवहार और लेखन में दिल्ली से आक्रांत रहते हैं. दिल्ली उन्हें खींचती भी है और डराती भी है. गांव या बहुत छोटे कस्बों से आने वालों लेखकों की स्थिति तो दिल्ली को लेकर और भी बुरी रही है. लेकिन धीरे-धीरे वे दिल्ली को स्वीकार कर लेते हैं और दिल्ली में एक लेखक होने के सारे मज़े लूटने लगते हैं, जिसमें सबसे बड़ा मज़ा तो यह है कि आप ठीक से लेखक भी नहीं होते और लेखक होने के मज़े लूटने लगते हैं. दिल्ली ऐसे अलेखकों से भरी हुई है. यहां सबसे योग्य जन आपको दिल्ली में होने बावजूद ऐसे नजर आएंगे जैसे वे दिल्ली में नहीं अबूझमाड़ में रहते हों.
दिल्ली में सुखी होकर कविता-कहानी में दिल्ली की आलोचना और अपने गांव-कस्बे को याद करते रहने वाला पाखंड मुझसे अगर नहीं सधा तो शायद इसकी एक वजह यह थी कि मेरे पास लौटने को कोई जगह और जमीन नहीं थी/है. मैं ऊबा हुआ सुखी नहीं हूं. मैं जहां रहता हूं, वही मेरी एकमात्र जगह होती है. जहां मैं काम करता और रहता हूं, मैं उस जगह को इतना प्यार करता हूं कि वहीं मरना चाहता हूं. मालिक इस जगह का कोई और ही होता है, जिसे मुझे हर महीने इस जगह पर बने रहने की कीमत चुकानी होती है. मैं जहां भी जाता हूं इस जगह से ही जाता हूं — इस जगह पर ही लौटने के लिए. ये जगहें संयोग से ज्यादातर दिल्ली और उसके आस-पास रही आई हैं. मुझे दिल्ली इसलिए अच्छी लगती है क्योंकि मुझे समुद्र के सिवा और जो कुछ चाहिए, यहां मिल जाता है — विकृत रूप में ही सही. इस शहर ने मुझे मेरी सारी अयोग्यताओं के बावजूद भूखा नहीं सोने दिया है, इसलिए भी यह मुझे अच्छा लगता है. मुझे यहां बहुत प्यार और बहुत अच्छे लोग मिले हैं. मुझे यहां जो मिला है, वह मुझे मेरे बचपन के शहर कानपुर में भी नहीं मिला — प्यार और अच्छे लोग भी नहीं.
दिल्ली हर वक्त आपको जड़ और सुस्त होने से बचाती है. हो सकता है यह दूसरों का सच न हो, लेकिन कम से कम यह बात मेरे लिए तो सच है. इसके बावजूद इस शहर में क्रूरताएं भी कम नहीं हैं. ये क्रूरताएं आपको कुचलती भी हैं और एक मनुष्य के रूप में मजबूत भी करती हैं. मुझे लगता है कि दिल्ली एक हिंदी लेखक के लिए सबसे मुफीद शहर है, अगर वह यहां पहले अपने अज्ञातवास को और बाद में अपनी निस्पृहता को बचा सके…अगर वह उन ताकतों और व्यक्तित्वों से बच सके जो सबसे पहले आपकी मासूमियत और मौलिकता को नष्ट करते हैं… अगर वह समूहों और संगठनों की सतही पारस्परिकता से बच सके…अगर वह ठीक से पूरी दिल्ली को देख सके…अगर वह इसके रास्तों और रातों और ज़ोखिमों से परिचित हो सके…इससे उसे यक़ीनन उदासी और हताशा मिलेगी, लेकिन सब कुछ में यक़ीन बनाए रखने की ताकत भी मिलेगी, जो एक लेखक होने के लिए सबसे ज़रूरी चीज है.
मोनिका कुमार
‘रिटायरमैंट सेरेमनी’ के दिन ब्रह्ममहूर्त से पी रहे कर्मचारी का आख्यान मार्मिक है, इसे कविता नहीं शोकगीत कहूं तो बेहतर होगा. शोकगीत इतना लंबा भी है कि रोने को स्थगित करते हुए भी इसे पढ़ते पढ़ते वह क्षण आया जब लगा कि सारे काम छोड़कर इस कर्मचारी के साथ ब्रह्ममहूर्त में मुझे भी रोना चाहिए, शायद इससे आत्मा का कुछ कलुष धुल जाएगा. दरअसल, इस कर्मचारी के साथ ही क्यों, दौ सौ रुपए भाड़े के ढोल वाले, स्वेटर बुनती स्त्रियां, एफएम सुनती युवतियां, तथाकथित सहकर्मी कवि इन सबके साथ रोना चाहिए. इस सेवानिवृत्ति कार्यक्रम को मुकम्मल बनाने के लिए इसमें रोने के लिए भी कुछ क्षण आरक्षित करने चाहिए.
सेरेमनी का दृश्य तुमने नहीं रचा है, यह कोई मौलिक कल्पना नहीं, सारा दृश्य आमफहम तथ्य है. लेकिन फिर भी तुमने इसे जैसे प्रकट किया है तो मुझे लगा है एक आम आदमी की नौकरी तो नौकरी सेवानिवृत्ति और भी दारुण घटना है. सवाल तो यह है कि यह सब इतना दारुण क्यों है! सेवानिवृत्ति के दिन उसकी कैफियत से पता चलता है कि पैंतीस वर्ष की नौकरी भी कैसे गुज़री होगी. शिम्बोर्स्का ने ‘फ्यूनरल’ शीर्षक से कविता लिखी है जिसमें उन्होंने श्मशान घाट में किसी की अंत्येष्टि का दृश्य रचा है. इस कविता में शायद एक भी पंक्ति मौलिक रूप से शिम्बोर्स्का की नहीं है. उन्होंने केवल अलग-अलग लोगों द्वारा ऐसे अवसर पर बोले जाने वाले तयशुदा वाक्यों और संवाद का संयोजन किया है और यह विलक्षण कविता है. तुम्हारी कविता ‘सेवानिवृत्ति’ पढ़ते हुए, सहसा उसका स्मरण हुआ.
मैं भी पिछले कई वर्षों से कर्मचारी हूं. सेवानिवृत्ति आयोजन भी देखें हैं. दो वर्ष पहले मैंने एक आयोजन देखा जिसमें मेरे कुलीग ने ‘दो शब्द’ के तवील वक्तव्य में बारंबार एक ही बात कही कि तीस वर्ष की सरकारी नौकरी बेदाग पूरी करके उन्हें आज सेवानिवृत्त होने पर तसल्ली है. उन्होंने ‘बेदाग’ शब्द को जिस तरह रेखांकित किया, मुझे पंद्रह वर्षों में पहली बार नौकरी में एक अजीब-सा डर महसूस हुआ, ऐसा लगा कि जैसे कोई दाग मेरी नौकरी का पीछा कर रहा है और मैं अब तक इससे अनजान थी. मैं उस कुलीग को तो ज़्यादा नहीं जानती, लेकिन तुम्हारी कविता के हवाले से यह कह सकती हूं कि तुम्हारी कविता का कर्मचारी निर्विकल्प तो है, लेकिन फिर भी आत्मसजग है. मेरे कुलीग ने शायद ब्रह्ममहूर्त में पी नहीं थी. उन्होंने शायद प्रार्थना की होगी कि जैसे इतनी नौकरी बेदाग गुजरी है, उसी तरह आज का दिन भी गुज़र जाए. तुम्हारे वाले कर्मचारी को नहीं पता कि उसे आगे क्या करना है, लेकिन मेरे कुलीग अब पूरा समय अपनी पत्नी और घर-परिवार को देंगे, ऐसा उन्होंने अपनी पत्नी को मीठी निगाह से देखते हुए कहा. खैर, मेरा अनुमान है कि तुम्हारी इस कविता के मूल में जीवंत कोई आंखों देखी घटना है — कोई ठोस अनुभव. मैं तुमसे इस कविता के लिखने की पृष्ठभूमि जानना चाहती हूं, या परिचित भाषा में कहें तो इसकी रचना-प्रक्रिया.
अविनाश मिश्र
आपका अनुमान बिल्कुल सही है. इस कविता को मैंने अपनी साहित्यिक रपटों की तरह लिखा है. इस प्रकार देखें तो यह मेरी पहली रपट है, क्योंकि पत्रकारिता तो मैंने ये कविता लिखने के लगभग तीन साल बाद शुरू की. इसकी रचना-प्रक्रिया पर आऊं तब कह सकता हूं कि वह होली के आस-पास का ही समय था, तीन-चार दिन की छुट्टियां होने वाली थीं और इसलिए मैं साहित्य अकादेमी लाइब्रेरी में जहां मैं उन दिनों जल्दी से जल्दी पढ़कर दो किताबें वापस करता था ताकि और दो किताबें इश्यू करा सकूं. उस दिन भी मैं वहां यही करने के लिए आया हुआ था. मौसम उस दिन वैसा ही था, जैसे मोहम्मद रफी ने धर्मेंद्र पर फिल्माए एक गाने में बताया है.
मुझे बहुत भूख लग रही थी, यह बात मैंने इसी लाइब्रेरी में मित्र बने ‘किस्मत’ नामधारी एक अद्भुत व्यक्ति से की. किस्मत कालिदास और वेद व्यास के आशिक हैं. उनके बारे और भी बहुत कुछ बताया जा सकता है, लेकिन तब विषयांतर हो जाएगा… इसलिए इसे रहने देते हैं. खैर, वह बोले चलो कुछ अच्छा खिलाता हूं और वह मुझे साहित्य अकादेमी के पीछे बने मेघदूत थिएटर के मुक्ताकाशी स्पेस में ले गए. वहां संगीत नाटक अकादेमी में नामालूम किस पद पर अपनी सेवाएं देने वाले एक व्यक्ति की रिटायरमेंट सेरेमनी चल रही थी और खाने-पीने का उम्दा इंतजाम था— होली के माहौलानुरूप.
इस सेरेमनी में जो-जो हुआ, बस उसे मैंने शब्दशः लिख दिया है. मैंने भी शिम्बोर्स्का की कविता ‘फ्यूनरल’ की तरह ही इसमें अपनी तरफ से कुछ नहीं जोड़ा है. आप यह भी कह सकती हैं कि मैं अपनी इस कविता में अपनी रपटों जितना ही ईमानदार रहा हूं. वैसे सेवानिवृत्ति के विषय में मेरा मानना यह है कि व्यक्ति को तब तक सेवा में रहना चाहिए जब तक वह सेवा करने की स्थिति में है. लेकिन व्यवस्था उसे इस लायक छोड़ती नहीं और ज्यादातर मामलों में यही होता है कि वह अंततः उसे बहुत बेमकसद और बोरियत में घिरी हुई एक बोर चीज बनाकर छोड़ देती है. यह भी बेहद दुःखद है कि हमारा समाज और व्यवस्थाएं कामचोरों से भरी हुई हैं. अपने हिस्से का काम भी हम ठीक से नहीं करना चाहते. जबकि यह तो एक न्यूनतम नागरिकता की शर्त है. बड़े आंदोलनों और बड़ी क्रांतियों से भी वह समाज कैसे बदलेगा, जहां लोग अपने हिस्से का काम भी ठीक से नहीं करते.
मोनिका कुमार
इस प्रश्न का संदर्भ तुम्हारी कविता ‘सफ़दर हाशमी से निर्मल वर्मा में तब्दील होते हुए’ है. क्या तुम सफ़दर हाशमी और निर्मल वर्मा को दो समानांतर प्रवृतियों की तरह देखते हो, सामाजिक और राजनीतिक यथार्थ के प्रति दो ध्रुवीय प्रतिक्रियाओं की तरह जिसमें सफ़दर हाशमी का व्यवहार संलग्नता का प्रतीक हैं और निर्मल वर्मा का व्यवहार तटस्थता या यथार्थ से उदासीन या कटु सत्य से प्रभावमुक्त व्यवहार का. क्या यह फांक इतनी स्पष्ट और बड़ी है?
अविनाश मिश्र
मेरे साथ हुआ यह है कि जब मैंने साहित्य के संसार में आंख खोली, तब निर्मल वर्मा को गुजरात दंगों का बचाव करते हुए पाया. वह एक सांप्रदायिक व्यक्ति और एक खराब हिंदू की तरह बर्ताव कर रहे हैं, यह तथ्य उस दौर की हिंदी की लघु पत्रिकाओं में बार-बार पढ़ने में आता था. वहीं सफ़दर हाशमी — जिनकी मूल्यनिष्ठ विरासत को ‘सहमत’ ने पूरी तरह भ्रष्ट कर दिया है — के बारे में जानना मुझे बहुत रोमांचक लगता था. उन्होंने जिन मूल्यों के लिए जान दे दी, मैं उन्हें निर्मल वर्मा के मौजूदा मूल्यों के समानांतर रखकर देखता था. पता नहीं यह मैं क्यों करता था, लेकिन मैं इसमें इतना आगे बढ़ गया कि यह प्रक्रिया एक कविता बन गई.
यहां मैं यह भी बता दूं कि तब तक मैंने निर्मल वर्मा की कोई किताब नहीं पढ़ी थी. यह बाद में हुआ कि मैंने निर्मल वर्मा का एक-एक प्रकाशित शब्द पढ़ा. मैंने उनके द्वारा किए हुए बहुत सुपाठ्य अनुवाद और उनके बहुत सारे साक्षात्कार भी पढ़े. मैंने उनके बारे में लिखा हुआ दूसरों का भी बहुत कुछ पढ़ा. मैं निर्मल वर्मा के तत्कालीन स्टैंड और निर्मल वर्मा के बारे में हिंदी संसार के तत्कालीन स्टैंड को जान चुका था, बावजूद इसके मैंने उन्हें किसी पूर्वाग्रह के साथ नहीं पढ़ा. निर्मल वर्मा ने बतौर लेखक ने मुझे कभी निराश नहीं किया, लेकिन अब मैं उनका लिखा कुछ भी पढ़ नहीं पाता हूं. जहां तक मैं समझ पाता हूं मुझे अब इस बात में दम लगता है कि निर्मल वर्मा किशोरों के ही लेखक हैं. उनके विचार-पक्ष और उनके किए अनुवादों से भी मुझे लगता है कि बीस-बाईस की उम्र तक हर हाल में ‘निर्मल-साहित्य’ से गुज़र लेना चाहिए, अगर आप उन्हें बाद में पढ़ते हैं तो यह आपके साहित्यिक और बौद्धिक विकास में बाधा पहुंचाएगा और आप देर से परिपक्व होंगे.
फिर भी यह कहूंगा कि सफ़दर और निर्मल मेरे लिए दो ध्रुव नहीं हैं. सफ़दर भी अगर निर्मल की उम्र और परिवेश तक आते, तब वह कैसे होते कौन जानता है. आज जब पतन के अजीब और आश्चर्यजनक सिलसिले नजर आ रहे हैं, तब कौन, कहां और कब फिसल जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता. मैं भी इन सिलसिलों से अलग नहीं हूं. दरअसल, अब बदलना और वह भी बुरे अर्थों में, बहुत स्वाभाविक हो चुका है. अब लोग इस पर हैरत में नहीं पड़ते, उनके पैरों तले की जमीन नहीं खिसकती, बस एक ‘ओह!’ का स्वर निकलता है और सब पूर्ववत हो जाता है. एक अपराधबोध और असहायताबोध में भी लोग बदलते हैं, और एक नैतिक विचलन में भी. और भी कई वजहों से लोग बदलते हैं. आखिर आप हमेशा वहीं और वही तो नहीं रहते. आप बदलते हैं, लेकिन कितना और कैसे और किस तरफ यह गौरतलब है और समाज के काम की चीज है, जिससे वह आपका मूल्यांकन कर सके…आपके पक्ष, आपकी कमजोरियों और शक्तियों को जानकर आप पर फैसले दे सके.
मोनिका कुमार
ऐसा देखने में आया है कि कवि अपनी आजीविका के लिए जो काम करता है, उस काम की प्रक्रिया और बारीकियां उसकी कविताओं में बड़े रोचक ढंग से कभी उसकी विषय-वस्तु बनकर या कभी उसकी शैली या संरचना को प्रभावित करती हुई प्रकट होती हैं…कबीर की ‘झीनी चदरिया’ से लेकर आधुनिक हिंदी कविता तक के सफ़र में इसकी तफ़सील उपलब्ध है. तुम्हारे कविता-संग्रह में रिपोर्ट, ख़बर, अख़बार, न्यूज़ चैनल आदि जनसंचार माध्यमों के अनेकों प्रसंग तो हैं ही, लेकिन मैं यहां खासतौर पर ‘उप संपादिका’, ‘समाचार संपादक’, ‘उ ऊ’ और ‘सांप्रदायिक वक्तव्य’ का उल्लेख करूंगी. ऐसा लगता है कि तुम वर्तनी की त्रुटियों में, उन त्रुटियों की राजनीति और आशयों में जटिल दार्शनिक प्रश्नों का समाधान ढूंढ़ते और पाते हो, जैसे : ‘कुछ मात्राएं शाश्वत होती हैं कभी नहीं बदलती.’ इस तरह ही तुम शब्दों और अक्षरों की बनावट और उनके सामाजिक और प्रचलित अर्थों में विसंगतियां देखते हो, जैसे : ‘करुणा बड़ा शब्द है/ लेकिन मात्रा उसके ‘र’ में/ छोटे ‘उ’ की ही लगती है/ रूढ़ि बहुत घटिया शब्द है/ लेकिन मात्रा उसके ‘र’ में/ बड़े ‘ऊ’ की लगती है.’ निश्चित ही ये कविताएं किसी संपादक की हैं और ये अपने अर्थों से अधिक अभिप्रायों में महत्वपूर्ण हैं. मैंने तुम्हारा पत्रकारीय लेखन भी पढ़ा है और कविताएं भी…एक सामान्य समझ तो यह है ही कि दोनों तरह का लेखन एक दूसरे को प्रभावित करता है, लेकिन फिर भी मैं जानना चाहती हूं कि तुम इस बारे में क्या सोचते हो.
अविनाश मिश्र
मैं पत्रकारिता की दुनिया में बाद में आया, कविता लिखने की दुनिया में पहले. जैसे कभी रघुवीर सहाय ने कहा था, वैसे ही मैं भी कह सकता हूं कि पत्रकारिता ने मेरी कविताओं को मदद पहुंचाई है, और मेरी कविताओं ने मेरी पत्रकारिता को. वैसे मैंने ज़्यादातर साहित्यिक पत्रकारिता ही की है. वैसी पत्रकारिता जो राजनीतिक और ज़मीनी होती है, मैं अब तक कर नहीं पाया हूं. मुझे यह लगता रहा है कि वह मुझसे होगी भी नहीं.
आप जिन कविताओं का उल्लेख कर रही हैं, वे सब एक अखबार के दफ्तर में काम करने के दरमियान लिखी गई हैं. इस अख़बार से निकाले जाने के बाद जब मैंने एक साहित्यिक मासिक पत्रिका में नौकरी करना शुरू किया, तब बहुत सारे हिंदी लेखक-लेखिकाओं की कॉपियां भी जांचने का मौका मिला. तब मैंने उन लेखकों-लेखिकाओं को हिंदी में पहचाना जो एक वाक्य तक ठीक से नहीं लिख सकते हैं. जब मैं यह कह रहा हूं तो आप इसे बिल्कुल अभिधा में लीजिए, मतलब कि वे अपनी भाषा के प्रति इतने गैरज़िम्मेदार हैं कि एक वाक्य तक शुद्ध नहीं लिख सकते हैं. आप उनसे कहिए कि ‘अविनाश नोएडा से नई दिल्ली गया और फिर वहां से कानपुर’ इस वाक्य को लिखिए… वे इसे ग़लत लिखेंगे और आपको उनका सही लिखा हुआ तब तक नज़र नहीं आएगा, जब तक कि कोई सही लिखने वाला उनके लिखे को ठीक न कर दे. कोई चाहे तो मेरे इस कहे को आजमाकर देख सकता है.
बहरहाल, मेरे साथ यह धीरे-धीरे हुआ कि मुझे वाक्यों को शुद्ध करना अच्छा लगने लगा. संपादन मुझे बहुत भाने लगा, मुझे लगा कि इसके ज़रिए मैं दूसरों की भाषा और प्रस्तुति को बेहतर कर सकता हूं, मैं कहीं कुछ सुधार सकता हूं, मैं किसी बदलाव का हिस्सा हो सकता हूं…आज इस प्रक्रिया के सात-आठ बरस गुज़र जाने के बाद मुझे यह भी लगता है कि इसने मेरी भाषा और प्रस्तुति को भी बेहतर किया है.
मोनिका कुमार
विष्णु खरे और असद ज़ैदी जैसे अंदाज में तुम्हारी कविताओं में कहानियां भी हैं और पात्रों के स्पष्ट नाम भी हैं, हालांकि इन नामों के मंतव्य और प्रयोजन विष्णु जी और असद जी की कविताओं से अलग हैं. तुम्हारी कविताएं पढ़ते हुए उत्सुकता होती है कि क्या तुम कहानियां भी लिखते हो या फिर मारे ‘किफायत’ के कहानियों को कविताओं में ही निपटा देते हो?
अविनाश मिश्र
इसका जवाब तो एक शब्द का ही है : नहीं.
मैं कहानियां नहीं लिखता हूं, मैं शायद कभी कहानियां लिखूंगा भी नहीं. मैंने कहानियों को कविताओं में निपटाया भी नहीं है. वे पात्र, नाम और स्थितियां मेरे पास कविता में ही अभिव्यक्त होने के लिए आईं और मैंने उन्हें कविता में ही अभिव्यक्त किया. उन्हें आसानी से कहानी बनाया जा सकता था, लेकिन यह उनके मूल स्रोत, उनकी मूल प्रेरणा के साथ अन्याय होता.
मोनिका कुमार
हिंदी साहित्य संसार की समस्या और संकट-कथा तो अखंड रूप से कोई न कोई हर समय बांच ही रहा है. मेरे बहुत प्रिय स्पैनिश कवि रोबेर्तो हुअरोज़ की मृत्यु के बारे में लिखी हुई कविता का भावानुवाद कुछ यूं है कि कोई जब जूते चमका रहा होगा, कोई अपने इकलौते प्रेमी को या इकलौते नहीं भी प्रेमी को चिट्ठी लिख रहा होगा, तब भी इस दुनिया में कोई मर रहा होगा, यहां तक कि तुम्हारी निर्दोष चाह कि जब तुम मर रहे हो कम से कम उस मिनट कोई और न मर रहा हो, यह चाह भी पूरी नहीं होगी क्योंकि जब तुम मर रहे होगे उस समय दुनिया में कोई और भी मर रहा होगा, इसलिए जब कोई पूछे दुनिया में क्या चल रहा है तो उत्तर में यह भी कहा जा सकता है कि कोई मर रहा है. इस तर्ज़ पर ही अगर इस कविता की इंटेंसिटी को थोड़ा कम करते हुए पूछें कि हिंदी साहित्य संसार में क्या चल रहा है तो यह भी कह सकते हैं, कोई न कोई कहीं न कहीं इसकी बुराइयां गिनवा रहा है. लेकिन मेरा पूछना तुमसे यह है अविनाश कि हिंदी साहित्य संसार में सकारात्मक क्या है? हिंदी साहित्य संसार की ख़ूबी क्या हैं?
अविनाश मिश्र
आपका प्रश्न बहुत अर्थपूर्ण उद्धरण के इशारे से मुझ तक आया है. इसके लिए आपका शुक्रिया, लेकिन एक सच्चा हिंदी साहित्यिक इन दिनों इस बात के लिए बाध्य कर दिया गया है कि वह बराबर अपने आस-पास की बुराइयां गिनवाता रहे. मैं अपने कथ्य की व्याख्या में नहीं जाऊंगा, क्योंकि इससे आपके प्रश्न का उत्तर नहीं मिलेगा, बल्कि इसमें समाईं आपकी चिताएं ही सशक्त होंगी. अगर इस प्रश्न के उत्तर के लिए मुझे सोचना पड़ रहा है, तब यह बताता है कि हिंदी साहित्य समाज में अच्छाइयां कितनी कम बची हैं. उन्हें एक झटके में याद आना चाहिए, लेकिन वे कहीं बहुत नीचे चली गई हैं.
मोनिका कुमार
अपने आपको पाठक और श्रोता के रूप में कैसे देखते हो?
अविनाश मिश्र
मैं एक बहुत अच्छा और धैर्यवान पाठक हूं और दर्शक भी. लेकिन सुनना मुझे बहुत जल्द ऊब से भर देता है. मैं फिलहाल सुन नहीं पाता हूं, अगर सुनने के साथ कुछ देखने को न हो.
मोनिका कुमार
असद ज़ैदी ने तुम्हारे संग्रह की भूमिका में तुम्हारी कविताओं पर लिखने के साथ-साथ यह कामना की है कि इस कवि के काव्य-क्षैतिज का विस्तार होता रहे, कवि की उपलब्ध अभिरुचि और सहानुभूति का घेरा बढ़े और कवि कुछ नए इलाकों में जाए. अपने पहले संग्रह की पांडुलिपि जमा करने से लेकर उसके प्रकाशन के भी कुछ महीने बीत जाने तक शायद लंबा वक्त गुज़र गया है. क्या संवेदना और अभिरुचि के स्तर पर इस बीच नए इलाकों में जाना हुआ, जहां जाने ने तुम्हारी कविता और तुम्हारे जीवन में कुछ नया जुड़ा हो?
अविनाश मिश्र
असद जी ने मेरे कविता-संग्रह की जो भूमिका लिखी है, उसके बारे में मैं पहले भी कहीं कह चुका कि वह मेरे लिए एक सबक की तरह है और रहेगी. मुझे विचलनों से बचने के लिए, इसे वक्त-वक्त पर पढ़ते रहना होगा. इस संग्रह में शरीक कविताएं मेरे उन वर्षों की कविताएं हैं, जब साहित्यिक दोस्तियों, पड़ोस और वातावरण से मैं बहुत दूर था. अठारह साल की उम्र से लेकर छब्बीस साल की उम्र तक का यह उस युवा का कविता-संसार है, जिसकी उम्र आज बत्तीस बरस है और जिसके पास पर्याप्त साहित्यिक मित्रताएं, पड़ोस और वातावरण है. इस पा लेने में मैं बहुत सजगता से यह देख पा रहा हूं कि हिंदी की आधुनिक और समकालीन कविता जिसे मैं बहुत अच्छे से जानता हूं, वह कुछ इस कदर है कि उसमें पहले संग्रह के बाद ही कवि का और उसकी कविताओं का ग्राफ गिरना शुरू हो जाता है— ज्यादातर.
दरअसल, कविता लिखना हिंदी संसार में कवि मान लिए जाने के बाद बहुत मुश्किल होता जाता है. अक्सर आपकी ‘अभिरुचियां’ इतनी व्यापक और संभ्रांत हो जाती हैं कि कविता लिखने के अनुशासन, दर्द और संघर्ष का लोप हो जाता है. काव्य-क्षैतिज का विस्तार राजधानियों में चलने वाली गोष्ठियों, लेखक-संगठनों की राजनीति, पुरस्कार-प्रकाशन-अनुदान-वृत्ति के अंतहीन इलाकों तक हो जाता है. सहानुभूतियों का घेरा बढ़कर कवि को सेलेक्टिव किस्म की मुखरता और मौन में कैद कर देता है.
मैं भी इस दुनिया में ही रहकर काम करता हूं. मेरा संघर्ष फिलहाल कोई बहुत महान चीजों और मूल्यों के लिए नहीं, जीवन की बहुत मामूली ज़रूरतों के लिए है. मेरा जीवन बहुत बड़ी बातों और दर्शन से नहीं, बल्कि बहुत शुद्ध, नैतिक और स्पष्ट छोटे-छोटे वाक्यों से संचालित है. इनमें से ज्यादातर वाक्य जान बूझकर राजनीतिक रूप से गलत और क्षणभंगुर होते हैं, क्योंकि मैं आए दिन राजनीतिक रूप से सही लोगों का दोगलापन देखता-भोगता-समझता रहता हूं.
बाकी मैं नए इलाकों में जाता रहता हूं, और वे भी मुझे बुलाते रहते हैं. इस उपस्थित चराचर को एक मानवीय और संवेदनशील नजर से देखने की कोशिश में मैं खुद को लगाए रखता हूं. मेरा यह देखना अगर सच्चा होगा तो वह मेरी कविता को नया और मूल्यनिष्ठ बनाएगा ही. वह मेरे जीवन और कविता में कुछ न कुछ नया जोड़ेगा ही. लेकिन अंततः वह कितना नया है या नहीं है, कितना काम का है या नहीं है… यह तो उस तक आने वाले ही बताएंगे.
[अविनाश मिश्र की कविता किताब “अज्ञातवास की कविताएं” आए एक समय बीता है कि अब उनकी एक और किताब “नए शेखर की जीवनी” भी हमारे बीच है. इन नए रूपों और लम्बे समयांतराल के बाद अविनाश का फिर से स्वागत करते ख़ुशी हो रही है. ऐसी बातचीत के साथ जटिलता यह होती है कि इसे साक्षात्कार के खांचे में बिठाया नहीं जा सकता, ना ही “सहज-संवाद” की संज्ञा देकर फारिग हुआ जा सकता है. अपनीपूरी काया में यह बातचीत अविनाश मिश्र के संग्रह की आलोचना और, बहाने इसके, एक आत्मकथ्य की भी ओर झुकी हुई है. किस्से हैं और दिल्ली जैसी भयावह संरचना की पकड़ है कि कैसे साहित्य भौगोलिक निर्लज्जता की जद में है. यह भी कि इसरार करने की जिद में मूल्यों का कितना नुकसान होता गया है, शायद होता भी रहेगा. मोनिका कुमार ने इस बातचीत को सफल किया है, हम उनके आभारी हैं. उनकी उपस्थिति बहुत सारी बहसतलब और गंभीर संभावनाओं को जन्म देती है और हिन्दी साहित्य में वैकल्पिक हस्तक्षेप की जगह बनाती है.]