इस जीवन की निरर्थकता कई बार मुझे गहरे बेचैन कर जाती है

फिर लिखना तो मेरे लिए जिन्दा होने का सबूत है और मनुष्य होने का भी.

शशिभूषण द्विवेदी

यूं तो मेरी प्रारम्भिक शिक्षा मथुरा के एक विख्यात क्रिश्चियन स्कूल में हुई थी. जन्म हुआ मुरैना (मध्य प्रदेश) में. पिता की पहली नियुक्ति भी वहीं हुई थी. फि वहां से मथुरा और मथुरा से रुद्रपुर (उत्तराखंड). रुद्रपुर से इलाहाबाद, सुल्तानपुर, बरेली, नोएडा, जालंधर और फिर दिल्ली. बीस-पच्चीस वर्षों का छोटा-सा कालखंड है यह, जो मेरे निर्माण का काल भी रहा और किसी अर्थ में पतन का भी. आज इस उम्र में जब मैं यह सब बैठकर सोच रहा हूं तो लगता है कि इस छोटी-सी अवधि में मैंने कई एक सदियों की यात्रा की है. एक पूरी दुनिया जैसे मेरे सामने ही जादू की तरह लुप्त हुई. मसलन गांव में वीडियो आने के बाद नौटंकी लुप्त हो गई. कई-कई नौटंकियां मैंने रात-रात-भर जागकर देखी थीं. डाकू छप्पन छुरी, सुल्ताना डाकू और जाने क्या-क्या. अमूमन इन नौटंकियों के कलाकार हरिजन ही हुआ करते थे. ऐसा क्यों था? पता नहीं. असल में नौटंकी और नाच-गाने को सवर्ण समाज में कभी बहुत सम्मानजनक पेशा नहीं माना जाता था. अजीब विडम्बना थी. रात में मंच पर लिपे-पुते जो कलाकार हमारा दिल जीत लेते थे, सुबह वही उदास, थके-हारे, मैले-कुचैले कपड़े पहने बीड़ी का सुट्टा लगाते हुए अजीब-से लगते.

कहानियां तब भी मेरे लिए किसी जादू से कम नहीं होती थीं. गांव में तब बिसाती वगैरह खूब आते थे. रात में अक्सर वे हमारे यहां रहते. बाटी-चोखा बनाते और देर रात तक हमें दीन-दुनिया के किस्से सुनाते. किस्से सुनाते हुए हुंकारी भरना उनकी शर्त हुआ करती थी. असल में हुंकारी न भरना किस्सागो का अपमान मान लिया जाता था. नानी तो हुंकारी न भरने पर बुरी तरह कान ही उमेठ दिया करती थीं.

शहरों में आजकल मार्केटिंग एक्जीक्यूटिव जैसे भारी-भरकम पदनाम लिए जो सेल्सैमन घर-घर घूमा करते हैं, बिसाती दरअसल इन्हीं के आदिम पुरखे थे. घर की महिलाओं से उनके काफी रागात्मक सम्बन्ध हुआ करते थे. सबके दुख-सुख में भागीदार. उनके आते ही महिलाएं और हम बच्चे खुशी से खिल जाते. उनकी पिटारी हमें जादू के बक्से की तरह लगती थी जिससे अभी मां, बुआ, भाभी आदि के लिए सिन्दूर, टिकुली, काजल और महकउआ पाउडर निकलेगा और हमारे लिए किसिम-किसिम के खिलौने. वे बताते कि किसकी बिटिया किससे ब्याही, किसके बच्चा हुआ, कौन हारी-बीमारी में है और दुनिया भर की बातें. हर परिवार की सात पुश्तों का इतिहास तो जैसे उनकी जुबान पर रहता था. आज जब टाई लगाए सेल्समैनों को दिन-दोपहर घर की घंटी बजाते और बिल्कुल मशीनी अन्दाज में अपने प्रोडक्ट की खूबियां गिनाते देखता हूं तो बहुत वितृष्णा होती है और उन बिसातियों की याद आती है जो अब गांव में भी नहीं आते. बाजार कैसे मनुष्य को वस्तु में बदल देता है और कैसे एक भरी-पूरी दुनिया गायब हो जाती है. शेष रह जाती है कुछ धुंधली यादें, कुछ खंडित स्मृतियां…. इधर गांव भी बहुत बदल गया है. कई सालों से मेरा भी उधर जाना नहीं हो पाया. पिछली बार जब गया था तो कुछ ही दिनों में घबराकर भाग आया. असल में जिस गांव में मेरा बचपन बीता, वह अब कहीं नहीं है. अब वहां प्रेत बसते हैं और नफरत का एक दरिया बहता है. मानवीय रिश्तों की ऊष्मा भी ठंडी पड़ चुकी है. जरा-जरा-सी बात पर लट्ठ निकल आते हैं. खून-खराबा और मुकदमेबाजी में तबाह हो रहा है मेरा गांव. राजनीति के नाम पर गुंडागर्दी का बोलबाला है. बीए-एमए किए तमाम लड़के बेरोजगार बैठे हैं या मुम्बई-दिल्ली की ओर भाग रहे हैं. हंस सम्पादक राजेन्द्र यादव अक्सर मजाक में छेड़ते थे कि सुल्तानपुर के ज्यादातर लोग या तो बम्बई जाकर टैक्सी ड्राइवर बन गए, या फिर हिन्दी के लेखक हो गए. मजाक ही सही, मगर राजेन्द्रजी के इस मजाक के पीछे भी एक कड़वी सचाई है. मेरे जिले की ज्यादातर जमीन ऊसर है. उद्योग-धन्धे भी वहां न के बराबर हैं. रोजगार के दूसरे साधन हैं नहीं. सामन्ती मानसिकता का हाल यह है कि जो थोड़े बहुत साधन-सम्पन्न लोग हैं, वे अपने बच्चों को कलेक्टर से नीचे तो कुछ बनवाना ही नहीं चाहते. बरसों उनके बच्चे इलाहाबाद में आईएएस की तैयारी में घास खोदते रहते हैं. अब सब तो कलेक्टर बन नहीं सकते. सो बाद में ज्यादातर बम्बई-दिल्ली की ओर भागते हैं कमाने. हिन्दी साहित्य को इस जिले ने सबसे महत्त्वपूर्ण और प्रतिभाशाली लेखक दिए हैं. कभी-कभी मैं सोचता हूं कि क्या इसका भी कोई सम्बन्ध यहां की गरीबी, जहालत और जातीय सांस्कृतिक विषमता से है. शायद हां. साहित्य अगर मुक्ति का मार्ग है तो इन विषमताओं ने जरूर कुछ लोगों में मुक्ति की आकांक्षा जगाई होगी. यह बात मुझे इसलिए भी ठीक लगती है क्योंकि मेरे जिले का एक भी लेखक तथाकथित सौंदर्यवादी और कलावादी नहीं हुआ. फिर चाहे वह बाबा त्रिलोचन हों, संजीव हों, शिवमूर्ति हों या अखिलेश—सभी संघर्षशील लेखकीय परम्परा से आते हैं और लगातार सक्रिय बने हुए हैं. हत्यारों से लोहा लेते हुए मानबहादुर सिंह अपनी हत्या के बाद भी हमारे मन में कहीं संघर्ष और स्वाभिमान का प्रतीक बनकर आज भी जिन्दा हैं.

इतराने को तो मैं भी इतरा सकता हूं कि कुछेक कहानियां लिखकर जैसा-जैसा लेखक तो मैं भी हो ही गया, मगर जब भी वरिष्ठों की ओर देखता हूं तो खुद को लेकर गहरा असन्तोष और बेचैनी का भाव उतर आता है. मैं क्या हूं? कौन हूं? और क्या अब तक कुछ भी सार्थक कर सका? इस अनन्त ब्रह्माण्ड में मैं कहां हूं और मेरे होने का मतलब क्या है? इस जीवन की निरर्थकता कई बार मुझे गहरे बेचैन कर जाती है. यह सवाल खुद से मैं अब तक सैकड़ों बार कर चुका हूं कि आखिर मैं लिखता क्यों हूं? हर लेखक कभी-न-कभी खुद से यह सवाल जरूर करता है और वे खुशनसीब होते हैं जिन्हें मुकम्मल जवाब मिल जाते हैं. मैं इतना खुशनसीब कभी नहीं रहा. एक बार राजेन्द्रजी से भी मैंने यही सवाल किया था. यह सोचकर कि देखें, इन्हें अब तक इसका कोई जवाब मिला या नहीं. आमतौर पर गूढ़ और दार्शनिक-लगने वाले सवालों को राजेन्द्रजी मजाक में टाल जाते थे, लेकिन उस दिन वे सचमुच गम्भीर थे और जवाब में उन्होंने एक दूसरा ही सवाल दाग दिया कि आखिर हम जीते क्यों हैं?

मेरे पास आज तक इसका भी कोई जवाब नहीं है, बल्कि कुछ और भी सवाल उठ खड़े हुए हैं. कोई जिन्दगी निरर्थक हो सकती है. आमतौर पर हम सबकी जिन्दगी निरर्थक ही होती है, लेकिन कोई रचना, कभी निरर्थक नहीं होती. शायद इसीलिए रचना का सच, जीवन के सच से हमेशा ही बड़ा माना जाता है. फिर लिखना तो मेरे लिए जिन्दा होने का सबूत है और मनुष्य होने का भी. सम्पूर्ण चराचर सृष्टि में मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो साहित्य रच सकता है. सुना है कि हाथी, बन्दर और भालू तक पेंटिंग बना लेते हैं, नाच-गा लेते हैं, मगर अब तक नहीं सुना कि किसी हाथी, भालू या बन्दर ने कोई कविता या कहानी लिखी हो. विज्ञान कितना भी विकास कर ले. उन्नत से उन्नत रोबोट बना ले और उसमें दुनिया भर के चाहे जितने डाटा फीड कर ले, लेकिन कोई मौलिक कविता या कहानी तब भी नहीं रच सकता. सृष्टि में यह वरदान सिर्फ और सिर्फ मनुष्य को मिला है कि वह अपनी या दूसरी की भावनाओं, विचारों और अनुभूतियों को रचनात्मक अभिव्यक्ति दे सके. यह रचनात्मक अभिव्यक्ति दरअसल अपनी एक अलग दुनिया बनाने की कोशिश की तरह है. उसी तरह जैसे विश्वामित्र ने कभी इन्द्र से नाराज होकर अपना एक अलग स्वर्ग बनाने की कोशिश की थी. हालांकि वह बन नहीं पाया और शायद तभी से हर रचनाकार अपने अपने ढंग से उसे बनाने की कोशिश कर रहा है. आगे भी-यह कोशिश शायद तब तक की जाती रहेगी जब तक कि मनुष्य है और उसका सपना. लोग कितना ही इतिहास के अन्त या विचार के अन्त की घोषणाएं कर लें, लेकिन जब तक मनुष्य है तब तक उसका इतिहास, उसके विचार और सपने जिन्दा रहेंगे ही. औरों की नहीं कहता, लेकिन अपनी पीढ़ी में कम-से-कम मैं इस गफलत में कभी नहीं पड़ा.

यों देखा जाए तो मेरा ढंग से वैचारिक प्रशिक्षण कभी हुआ ही नहीं और एक तरह से यह अच्छा ही रहा कि चीजों को अपनी आंख से देखने की क्षमता मैंने खुद अपने संघर्षों से ही अर्जित की. हालांकि इसके लिए मुझे अपना ढेर सारा सुख-चैन भी खोना पड़ा. फिर भी अपने लेखक बनने के संकल्प पर मुझे कभी पछतावा नहीं हुआ. सच कहूं तो लिखना मेरे लिए प्रेम करने की तरह है. जैसे प्रेम में आदमी या तो होता है या फिर नहीं होता. ऐसा नहीं हो सकता कि कोई दिन में चार घंटे प्रेम में रहे और बाकी समय उससे बाहर. रचनाधर्मिता के साथ भी कुछ ऐसा ही है. ऐसा नहीं होता कि कोई चार घंटा लेखक बना रहे और बाकी समय बेटा, पति या दफ्तर में बॉस का आज्ञाकारी कर्मचारी. शब्द, सपने और प्रेम. इन तीनों का मेरे लिए हमेशा ही बड़ा महत्त्व रहा है क्योंकि इन्हीं तीन चीजों से हमारी चेतना का निर्माण होता है और हमारी व्यक्तिगत और सामाजिक रणनीति तय होती है.


[बहुत सारी शिकायतों के बीच कथाकार शशिभूषण द्विवेदी अपनी नई किताब ‘कहीं कुछ नहीं‘ के साथ चुपचाप आ गए हैं. यह गद्य शशिभूषण की नई किताब के आत्मकथ्य का एक हिस्सा है. इस किताब को राजकमल प्रकाशन ने प्रकाशित किया है. हिन्दी में लेखक होने का मुज़ाहिरा बेहद बड़ा और घातक है. ऐसा होना ग़लत तो नहीं, लेकिन “समय से पहले” बहुत बार होता रहा है. ऐसे में शशिभूषण जैसे लेखक हैं, जो महानगर के एक कोने में बैठकर अपने बीते समय – जो हर रूप में जाति और सांस्कृतिक विषमताओं से भरा हुआ है – से कुछ नई चीज़ें निकाल ला रहे हैं. उन्हें “हिन्दी के ध्यान” से शायद ज़्यादा मतलब भी नहीं है. बुद्धू-बक्सा शशिभूषण का आभारी है.]

Share, so the world knows!