साधारण का उत्सव और पक्षधरता का रंगमंच: हबीब तनवीर की रंगमंच की राजनीति

हबीब के मन में आपातकाल को लेकर कोई द्वंद नहीं था. चूंकि तनवीर कांग्रेस के कोटे से राज्यसभा में सांसद थे, इसलिये वे विरोध नहीं कर रहे थे. भाकपा भी इस समय आपातकाल के विरोध में नहीं थी, इसलिये हबीब साहब की राजनीतिक लाईन भी सुरक्षित थी.

(Photo Courtesy: DNA India)

अमितेश कुमार

चालीस के दशक में ‘इप्टा’ ने अपने गठन के साथ ही रंगमंच को राजनीतिक कार्य बना दिया. इसने समसामयिक गतिविधियों, राजनीतिक स्थिति और इन सबके बीच पिस रही जनता को सीधे-सीधे संबोधित किया. व्यापक मंचन के जरिये राजनीतिक जागरूकता फैलायी लेकिन आजादी के बाद ‘इप्टा’ में हुए नेतृत्व परिवर्तन और तत्कालीन सरकार के दमन से ‘इप्टा’ की गतिविधयां मंद पड़ गयीं. ‘इप्टा’ से निकले रंगकर्मियों ने अपना स्वतंत्र समूह बना कर रंगकर्म आरंभ किया. दीना गांधी, शंभु मित्र, उत्पल दत्त के साथ हबीब तनवीर का नाम भी इनमें उल्लेखनीय है. इन सभी रंगकर्मियों ने राजनीतिक स्वर को अपनी प्रस्तुतियों में कभी मंद नहीं पड़ने दिया. हबीब तनवीर के रंगकर्म में भी राजनीति व्यवस्थित रूप में मौजूद है.

‘इप्टा’ के जब सब बड़े कार्यकर्ता पकड़े लिये गये थे, तब कुछ दिनों तक हबीब ने संगठन का काम भी संभाला था. हबीब तनवीर भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) के भी करीब थे. लेकिन दल की सदस्यता उन्होंने नहीं ली थी. वह अपनी युवावस्था में थे और उनके चारों तरफ की आबोहवा, मित्र, संरक्षक सभी वामपंथी थे. सत्तर के दशक में वे कांग्रेस के करीब आ गये थे और कांग्रेस ने उन्हें राज्यसभा का सांसद बनाया. उन्होंने कांग्रेस के प्रचार के लिये ‘इंदर लोक सभा’ नाम से नाटक भी किया था. इंदिरा गांधी ने उसी समय आपातकाल लागू किया था जब हबीब राज्यसभा सांसद थे. लेकिन हबीब तनवीर ने कभी आपातकाल का विरोध नहीं किया. सदानंद मेनन ने जिक्र किया है कि ‘मेरी पहली मुलाकात हबीब से चेन्नई में हुई जो एक हादसे की तरह था. हबीब राज्यसभा सांसद थे और इंदिरा गांधी के बीस सूत्री कार्यक्रम के बेधड़क समर्थक थे. निश्चय ही वे भाकपा से संबंधित थे जो उस समय श्रीमती गांधी के लिये काम कर रही थी. एक छोटी-सी संक्षिप्त भेंट में सड़क पर ही उनके कार में घुसने के दौरान आपातकाल के प्रचारक की तरह लग रहे हबीब से विवाद हुआ, हमलोगों को चन्द्रलेखा ने अलग किया, नहीं तो यह हाथापाई में भी खतम हो सकता था.’

मेनन के इस संस्मरण से हम अंदाज़ लगा सकते हैं कि हबीब के मन में आपातकाल को लेकर कोई द्वंद नहीं था. चूंकि तनवीर कांग्रेस के कोटे से राज्यसभा में सांसद थे, इसलिये वे विरोध नहीं कर रहे थे. भाकपा भी इस समय आपातकाल के विरोध में नहीं थी, इसलिये हबीब साहब की राजनीतिक लाईन भी सुरक्षित थी.

अस्सी के दशक के मध्य में भारतीय राजनीतिक परिदृश्य तेजी से बदला. एक प्रधानमंत्री की हत्या हुई, उसका बदला लेने के लिये बहुसंख्यकों द्वारा अल्पसंख्यकों का कत्लेआम हुआ. बहुसंख्यक सांप्रदायिकता का भय दिखने लगा. एक नया प्रधानमंत्री सत्ता पर काबिज हुआ, जिसने जनता को इक्कसवीं सदी का स्वप्न दिखाया. इसी दशक के मध्य से हबीब की राजनीतिक सक्रियता बढ़ जाती है. वे विरोध प्रदर्शनों में जाते हैं, याचिका दाखिल करते हैं, भाषण देते हैं, प्रदर्शनों में शामिल होते हैं. “युवा साम्यवादी रंगकर्मी सफ़दर हाशमी (जिसके साथ कुछ महीनों पहले उन्होंने नाटक लिखा था) की जनवरी 1989 में हुई हत्या उन्हें विचलित करती है. वे महसूस करते हैं कि चीजें इस हद तक आ गयी हैं कि किसी आदमी को बस एक नाटक खेलने के लिये मारा जा सकता है. वे हिंदू अधिकारों की बढ़ती मांगों को देखते हैं. और जब 1992 में बाबरी मस्जिद गिरती है, उनका भय साकार होता है.” हबीब समाज के बौद्धिक तबके के सक्रिय संगठन की बात करते हैं. सफ़दर की मौत से विचलित हबीब साहब कहते हैं, “और अब यह नौबत आ गई है कि समाज के बेहतरीन दिल और दिमाग रखने वाले व्यक्तियों को घास-फूस की तरह काट कर फेंका जाने लगा है. समय आ गया है कि हम इस सारे सिलसिले को खत्म कर देने के लिये आवाज उठायें. अगर सफ़दर की मौत से यह परिणाम निकलता है कि सब कलाकार और बुद्धिजीवी संगठित होकर समाज के कुचले हुए वर्गों के साथ जुड़ जाते हैं और एक ऐसा मजबूत और संयुक्त मोर्चा कायम कर लेते हैं, जो कत्ल और गारतगीरी की राजनीति को हमेशा के लिये खत्म कर दे, तो भी सफ़दर का मरना बेकार साबित नहीं होगा.” सफ़दर की मौत के बाद ऐसा संगठन ‘सहमत’ के नाम से बना जो सांप्रदायिकता के विरोध में निरंतर सक्रिय रहता है. इसकी स्थापना के समय से ही हबीब तनवीर इसके साथ जुड़े थे और इसके अध्यक्ष भी रहे थे.

1985 के बाद हबीब तनवीर द्वारा निर्देशित नाटकों में सबसे ऊंचा स्वर राजनीति का ही है और यह भविष्य की चेतना से तो लैस है ही समसामयिकता से भी प्रभावित है. ‘मोटेराम का सत्याग्रह’ बहुसंख्यक सांप्रदायिकता, धर्म और सत्ता के गठजोड़ को बारीकी से दिखाता है. नाटक ‘हिरमा की अमर कहानी’ में आदिवासियों के विकास की जटिलता और भारतीय लोकतंत्र के वर्चस्ववादी रवैये को केंद्र में रखा गया है. सांप्रदायिकता की जगह सौहार्द्र की वकालत करता हुआ ‘जिस लाहौर नई देख्या…’ है तो ‘बाघ’ सांप्रदायिकता के भय को चित्रित करता है. हिंदू धर्म के भीतर के जाति वर्चस्व और ब्राह्मणवाद की आलोचना करने वाला नाटक ‘जमादारीन’/’पोंगा पंडित’ है और शिक्षा व्यवस्था की आलोचना करता हुआ ‘एक और द्रोणाचार्य’. ‘दुश्मन’ मजदूरों के शोषण की नियति की अनिवार्यता को चित्रित करता है तो भूमंडलीकरण और उससे उपजे खनिज संपदा के लालच में आदिवासी जीवन शैली की विकृतीकरण को ‘सड़क’ में दिखाया गया है. ‘एक औरत हिपेशिया भी थी’ में विरोधी विचार के प्रति असहिष्णु रवैये को दिखाया गया है. ‘मंगलु दीदी’ स्त्री के जीवन की जटिलता को दिखाता है. ‘जहरीली हवा’ में हबीब भूमंडलीकृत अर्थव्यवस्था के दुष्परिणाम को दिखाते हैं जो मुनाफ़े पर अपना अधिकार रखता है, लेकिन त्रासदी की जिम्मेदारी नहीं लेता. सबसे अंतिम नाटक ‘राज-रक्त’ धर्म और राज्य के बीच वर्चस्व के संघर्ष, धर्म का राजनीतिक सत्ता की तरह इस्तेमाल की प्रवृति और उसमें फंसी हुई जनता की स्थिति को दिखाता है.

सांप्रदायिकता, राज्य और धर्म का संबंध, विकास, भूमंडलीकरण, स्त्री की स्थिति, आदिवासियों के विकास का प्रश्न, सामाजिक विकास में दलितों की स्थिति, ये सभी वे मुद्दे हैं जिनसे समकालीन राजनीति घिरी हुई है. हबीब के नाटकों में इन मुद्दों की सतही प्रस्तुति नहीं है. वह बहुत गहराई में उतरकर स्थितियों का विश्लेषण करते हुए अपनी प्रतिबद्धता भी साफ कर देते हैं. हबीब तनवीर के रंगकर्म में ये मुद्दे इसलिये नहीं है कि इनकी मांग है और वे इसके ऊपर नाटक कर रहें है. ये वो मुद्दे हैं जो हबीब को विचलित करते हैं, जिनसे वे समुदाय को घिरा देखते हैं और उनके रंगकर्मी भी घिरे हुए हैं. इनको नाटक में सामने लाने की प्रक्रिया भी आपसी अंतरक्रिया से ही संभव होती है.

हबीब तनवीर के नाटकों के चरित्रों के सर्वेक्षण से भी उनकी राजनीति का अनुमान लग सकता है. ‘आगरा बाजार’ में ककड़ी वाला, मदारी, तरबूज वाला, हिजड़ा, रीछ वाला, पतंगवाला और इन सब के लिये गीत लिखने वाले इनके चहेते नज़ीर. ‘मिट्टी की गाड़ी’ में एक उदार वेश्या, विपन्न ब्राह्मण, दुष्ट राजा और उसका साला तथा उसकी सत्ता के विरोध में क्रांति करने वाला चरवाहा. ‘चरनदास चोर’ में सत्य पर अडिग रहने वाला चोर, ‘शाजापुर की शांतिबाई’ में एक वेश्या, ‘बहादुर कलारिन’ में शराब बेचने वाली और गांव के हित में अपने बेटे की हत्या करने वाली महिला, ‘मोटेराम का सत्याग्रह’ में एक पेटू ब्राह्मण, ‘देख रहें है नैन’ में वैभव का त्याग करने वाला योद्धा, ‘हिरमा की अमर कहानी’ में एक सामंत जिसकी सत्ता छिन रही है, ‘जिस लाहौर नई देख्या’ में वृद्धा, ‘जमादारिन’ में एक अछूत महिला, ‘दुश्मन’ में मिल मजदूर, ये सभी उनके नाटक के केंद्रीय पात्र है. आमतौर पर समाज की मुख्यधारा में इन्हें सम्मानजनक स्थान प्राप्त नहीं है. लेकिन हबीब अपने नाटकों में दिखाते हैं कि ये साधारण पात्र मानवीय मूल्यों के प्रति इनके नाटकों के संभ्रांत पात्रों से अधिक सजग हैं. हबीब तनवीर के रंगमंच में अभिजात चरित्र जितने दयनीय दिखते हैं, साधारण चरित्र उतने ही प्रखर और ऊर्जावान हैं जो अपने कृत्यों से अभिजात को और दयनीय बनाते हैं. भारतीय रंगमंच पर किसी और निर्देशक या नाटककार के यहां ऐसे पात्र कम ही हैं. पश्चिमी नाटकारों में ब्रेख्त के यहां ऐसे चरित्र मिलेंगे.

हबीब तनवीर कहते हैं, ‘मैं इस बात का बहुत कायल हूं कि एक क्रिटिकल किस्म का थियेटर, पॉलिटिकल किस्म का जो पार्टियों से आजाद हो, होना चाहिए.’ हबीब तनवीर घोषित करते हैं कि उनकी प्रतिबद्धता किसी पार्टी या विचारधारा के प्रति नहीं है. न ही वे किसी दार्शनिक विचारधारा को पढ़कर राजनीतिक हुए हैं. उनकी प्रतिबद्धता उनके अनुभव से निकली है और यह अनुभव उन्होंने जीवन में गहरे उतरकर लिया है. पार्टी के प्रति प्रतिबद्धता के परिणाम उन्होंने ‘इप्टा’ के दौरान ही देख लिये थे, जब नेतृत्व परिवर्तन के बाद भाकपा नेतृत्व रंगकर्मियों पर तरह-तरह के निर्देश जारी करने लगी थी. इससे स्वतंत्र रंगकर्म की चेतना वाले बहुत से लोग ‘इप्टा’ से निकल गये थे. किसी एक पार्टी एक विचारधारा से बंधकर रहने के बाद रंगकर्म में वह निष्ठा और निष्पक्षता नहीं रह सकती और न ही उनमें वह वैचारिक तेज रह सकता है. हबीब अपने अनुभव का रास्ता चुनते हैं. ‘मैंने द्वंद्वात्मकता को कुछ पढ़ा था और मार्क्सवादी साहित्य को भी. लेकिन मुझे नहीं मालूम कि इन सबों ने मुझे कितना प्रभावित किया. पाऊलो फ्रेरे की ‘पेडागोजी ऑफ़ आप्रेस्ड’ ने मुझे थोड़ा प्रभावित किया लेकिन मैं उतना अधिक समझ नहीं पाया कि वह कह क्या रहे हैं? ऐसा इसलिये था क्योंकि मुझे उनकी तरह का अनुभव नहीं था. मुझे लगा कि मुझे अपना अनुभव प्राप्त करना पड़ेगा और इसलिये मैं नये विचारों की खोज और विकास में लगा रहा जो अनुभवजन्य थे. रंगमंच में भी विकास अंदर से होना चाहिये. अन्यथा आप कैसे कह सकते हैं कि आपने जो किया है वह आपका है.’ हबीब तनवीर के अनुसार बहुत सारे वर्गों के बावजूद दुनिया में मुख्य दो ही वर्ग हैं; शोषक और शोषित. और निश्चित तौर पर वे शोषितों के पक्ष में हैं. जावेद मलिक लिखते हैं, ‘लोकसंस्कृति में उनकी दिलचस्पी और उनका नाट्य प्रस्तुतियों की परंपरागत शैलियों के साथ तथा उनकी भाषा में काम करने का निर्णय अपने आप में, जितना सौंदर्यबोधात्मक चुनाव का मामला था, उतना ही विचारधारात्मक चुनाव का भी मामला था. यह दूसरी बात है कि तनवीर खुद ऐसा चुनाव होने के बारे में सचेत रहे हों या न रहे हों. परंपरागत रूपों के प्रति उनके झुकाव और उनके वामपंथी झुकाव के बीच एक घनिष्ठ संबंध है. वामपंथी सांस्कृतिक आंदोलन के साथ उनका जुड़ाव, जो कितने ही ढीले ढाले तरीके से क्यों न हो, वह अब तक बने हुए हैं, आम आदमी तथा उसके हितों के लिये एक प्रतिबद्धता तो पहले ही निश्चित कर चुके थे. नाटक में उनका काम, अपनी शैली तथा अंतर्वस्तु दोनों में ही, इस प्रतिबद्धता को प्रतिबिंबित करता है और इसे जनता के शक्तिकरण की वृहतर (समाजवादी) परियोजना के हिस्से के तौर पर देखा जा सकता है.’ शोषित समुदाय उनके नाटकों के विषय मात्र ही नहीं उनके नाटकों के कर्ता भी हैं. हबीब तनवीर का रंगमंडल पिछड़े, दलितों और आदिवासियों का समूह था. ये सभी कलाकार हबीब तनवीर के साथ ही रहते थे. राज्यसभा आवास में भी, बेर सराय में भी. हबीब उनके अभिभावक थे और उनका रंगमंडल एक परिवार था. आधुनिक भारतीय रंगमंच में यह दुर्लभ उदाहरण है. इनकी प्रतिभा से हबीब तनवीर ने दिखाया कि भारतीय रंगमंच का एक अधिक जीवंत रूप इन हाशिया समुदायों में सुरक्षित रखा है.

हबीब तनवीर उसी दौर में सबसे अधिक राजनीतिक हैं, जब भारतीय रंगमंच में राजनीतिक अभिव्यक्ति को मंद किया जाने लगता है. ‘नवें दशक में राजनीतिक विचारधारा निरपेक्ष नाटक लिखने की कोशिश होने लगी. व्यवस्था कितनी शक्तिशाली होती है, मध्यम वर्ग का एक प्राणी, जिसे रचनाकार कहते हैं, खूब जानता समझता है. सुविधा और सुरक्षा की होड़ में शामिल यह रचनाकार साफ-सुथरी कृति में संतोष पाता है. वह सवालों से बचता है. समस्याओं के युक्तियुक्त विश्लेषण और वैचारिक परिप्रेक्ष्य से कतराता है.’ इन्हीं सवालों में एक है भूमंडलीकरण का सवाल और दूसरा सांप्रदायिकता का सवाल.

हबीब तनवीर देखते हैं कि भूमंडलीकरण से संस्कृति खासकर आदिम संस्कृतियों पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ रहा है. इसने ‘यकसानियत’ को जन्म दिया है. भूमंडलीकरण ने बहुत सारी शैलियों के सामने संकट उत्पन्न कर दिया है. भूमंडलीकरण के प्रभाव ने कला को भी उत्पाद में बदल दिया. रंगमंच भी इससे प्रभावित हुआ. हबीब नाटक को उत्पाद की तरह पेश किये जाने का विरोध करते हैं. वे पश्चिम के पूंजीवाद आधारित विकास के माडल की आलोचना करते हैं और कहते हैं कि भारत ने अपने परंपरागत देशज तरीकों के रास्ते को छोड़ दिया है. वे कटु शब्दों में कहते हैं, ‘हमने अपनी आत्मा को तकनीक के दानव, भूमंडलीकरण के दानव, उपभोक्तावाद, उदारवाद, मुक्त बाजार, अश्लील प्रचार, विषाक्त सेटेलाइट टेलीविजन के हाथों बेच दिया है. सेलफोन और चमकदार गाड़ियों के तेरह प्रतिशत मालिकों को अश्लील समृद्धि में चमकने दिया गया है और आदिवासियों, दलितों, किसानों, श्रमिकों, और शहरी निम्नवर्गीय जनसंख्या के विशाल हिस्से को गरीबी के अंधेरे में छोड़ दिया है, लाखों लोगों को गरीबी रेखा के नीचे और हजारों को आत्महत्या के लिये छोड़ दिया है.’ हबीब तनवीर अपने रंगकर्म में इसी आबादी को चमक प्रदान करते हैं.

भारतीय राजनीति में ‘सांप्रदायिकता’ के उभार से विचलित हबीब तनवीर एक के बाद एक नाटक इसी विषय को केंद्र में रख कर खेलते चले गये. 2002 के गोधरा कांड और गुजरात दंगों के बाद उन्होंने हिंदुत्ववादी शक्तियों के विरोध के बावजूद ‘जमादारिन’ की प्रस्तुति के साथ छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के कई जिलों का दौरा किया. उन पर हमले भी हुए लेकिन हबीब तनवीर का मानना था कि भारतीय जनता सांप्रदायिक नहीं है. राजनीतिक लाभ के लिये उन्हें इस ओर धकेला जा रहा है. हबीब तनवीर बताते हैं कि संस्कृति और धर्म का गहरा संबंध है. भारत में विशेषकर जहां बहुत सारे धर्म मिलकर एक संस्कृति का निर्माण करते हैं और संस्कृति का भी धर्म में योगदान है दोनों के बीच आवाजाही है और कट्टरता उतनी नहीं है. तो क्या सांप्रदायिकता धर्म से जुड़ी है? हबीब साहब कहते हैं, ‘सांप्रदायिकता का न धर्म से ताल्लुक है ना संस्कृति से. ये बात आप और हम सब अच्छी तरह से जानते हैं कि ये कोई और चीज है, इस चिड़िया का कुछ और ही नाम है. इसके पालिटिकल काम्प्लीकेशन हैं. ये पैदा की गयी है. पहले नहीं थी.’ हबीब तनवीर यह भी पहचान रहे हैं कि ये कौन लोग है जो इसे पैदा कर रहे हैं. उनका कहना है कि चरमपंथी हिंदू और मुसलमान दोनों ही तबकों में हैं, और वे इतने फिरकापरस्त हैं कि वे खुली मानसिकता से भी वंचित है कि विविधता को समझ नहीं सकते. इस बहुरंगी, बहुभाषी भारतीय संस्कृति में विविध संस्कृतियों के पारस्परिक समावेश को भी नहीं समझ सकते। हिंदुत्व एक राजनीतिक विचारधारा है और यह हिंदूवाद के भी विरोध में है. जो एक सहिष्णु और खुले विचारों वाला जीवन का मार्ग है.’

हबीब तनवीर एक विशिष्ट वर्ग चेतना के साथ नाटक कर रहे थे, जिसमें राजनीति नाटकीय आख्यान के भीतर से उभरती है. वह दर्शकों को कोई तय नारा या मुहावरा नहीं प्रदान करते बल्कि उन्हें सोचने के लिये विवश करते हैं. उनके नाटकों के अंत हमेशा एक शुरूआत पर ख़त्म होते हैं जो शोषणकारी व्यवस्था को फिर से मजबूत होता हुआ दिखाते हैं, जिससे यह प्रेरणा मिलती है कि व्यवस्था को बदला जाना चाहिये. ‘चरनदास चोर’ में सत्ता द्वारा चोर को संत के रूप में समाधि में स्थापित करना और ‘राजरक्त’ में बलि प्रथा की फिर से शुरूआत पर नाटक का अंत गहरे राजनीतिक अर्थ व्यंजित करता है. सदानंद मेनन इसीलिए कहते हैं कि हबीब ने राजनीति का भारतीय रंगमंच में पुनरन्वेषण किया. ‘भारतीय रंगमंच के “रैडिकल” नाटककारों, अभिनेता और निर्देशक से परिचित होने के कारण मैं हबीब तनवीर की उस पद्धति के प्रति हमेशा से रोमांचित रहा हूं, जिसमें हबीब “राजनीति” के विचार को सूक्ष्मतम हाव-भावों या संवाद के भाषिक और वक्र लहजे से व्यक्त करते हैं. जिसमें किसी स्वचेतन रैडीकलिज्म, मुक्का तानने, झंडा उठाने या आडंबरयुक्त नारेबाजी जैसे तत्व अनुपस्थित हैं. हबीब हमेशा से एक सधे हुए कथावाचक हैं, जो कहानी के हर वाचन में ताजा और रचनात्मक मार्ग तलाश लेते हैं जो इसे समकालीन और ताजा बारीकियों से जोड़कर फिर से राजनीतिकरण कर देता है.’

हबीब तनवीर के नाटकों की राजनीति का किसी प्रकार का श्रेणीकरण कठिन है. इन नाटकों में अगर कोई एक थीम है, जो उनकी कृतियों में ‘आगरा बाजार’ या इससे पहले से अब तक से चला आ रहा है तो वह है ‘सर्वसाधारण का उत्सव’. अशोक वाजपेयी कहते हैं कि हबीब तनवीर ने अपने रंग-संसार में साधारण की महिमा प्रतिपादित की और प्रतिष्ठित की. यह अकारण नहीं है कि प्रायः उनके हर नाटक में निपट साधारण लोग हैं, जो मटमैले होने के बावजूद कुछ बेहद उजला, कुछ पवित्र, कुछ सहज मानवीय करते या प्रतिबिंबित करते हैं. साधारण में हबीब की आस्था अटल थी और उनकी रंगयात्रा में यह आस्था गहरी और मुखर होती गयी. हबीब तनवीर की पक्षधरता और प्रतिबद्धता इस साधारण के प्रति है जो उनके विचार, जीवन और रंगकर्म में प्रकट होती है. जीवन के प्रवाह में वे धारा के साथ भी बहे हैं, लेकिन अधिकांशतः उनकी यात्रा धारा के विपरीत रही है. वे कला को हिलसा मछली मानते थे जो धारा के विपरीत तैरती है. वे आधुनिक सेकुलर, प्रगतिशील, लोकतांत्रिक भारत के विचार के प्रति प्रतिबद्ध थे – एक ऐसा भारत जिसमें निम्नतम से निम्नतम भौतिक और आध्यात्मिक स्थिरता पा सके, जहां विविधता और बहुलता का उत्सव हो, जो सपाट नहीं हो. जिसमें आदिम संस्कृतियों की जीवंतता बदलती उत्पादन शैली के बीच सुरक्षित रहे, संस्कृति को उसके व्यापक संदर्भ में ग्रहण किया जाए, और विकास का देशज तरीका विकसित किया जाए. हबीब तनवीर के पास रंगमंच की राजनीति है और उनके रंगमंच में राजनीति है. यह राजनीति शोषण की व्यवस्था के विरोध में और साधारण के पक्ष में है. हबीब तनवीर जीवन के आखिरी दिनों में ‘कोणार्क’ नाटक की तैयारी कर रहे थे, जिसमें यह सवाल है कि राजनीतिक सत्ता पर काबिज होने की कोशिश में आततायी लगे हों, राज्य की जनता संकट में हो उस समय कलाकारों का क्या दायित्व है परिवेश की गतिविधियों से विमुख रहकर सृजन में रत रहना या हस्तक्षेप करना? राजनीतिक परिदृश्य में कलाकार कैसे हस्तक्षेप करे – यह बेचैनी उनके रंगकर्म में है और इससे निकली राजनीति में भी.


[युवा लेखक अमितेश कुमार का यह लेख हमें आज हबीब तनवीर के जन्मदिन पर लगाते हुए ख़ुशी हो रही है. स्वरुप किंचित अकादमिक तो है, लेकिन रोचक भी है. हबीब तनवीर जितने मुखर रंगकर्मी थे, उतना ही मुखर उनका राजनीतिक हस्तक्षेप भी था जो आपातकाल के दौरान ख़ासा भ्रमित रहा. लेकिन बाद के वर्षों में सम्हल रहे हबीब तनवीर अपनी बात और अपना काम मजबूती से सामने रखते हैं. इस वक़्त, जब प्रोपगंडा कलाओं की बाढ़ है और खासकर उन कलाओं में हिंसा को सही ठहराया जा रहा है, तो कलाकारों से एक सामाजिक समझदारी की आशा रखना गलत नहीं है, और तब तो और जब देश में गिरफ्तारियां हो रही हों. लेकिन हबीब तनवीर के सन्दर्भ और भारतीय परिदृश्य में वह समझदारी अब गुजरी हुई चीज़ लगती है. इस आलेख के लिए हम अमितेश कुमार के आभारी हैं.]

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