तुम्हारी हथेली से उड़ने लगे हैं स्पर्श के फाहे
तुम्हारी हथेली से उड़ने लगे हैं स्पर्श के फाहे
इन दिनों मेरी देह से खो रही है नमी
हरी कोंपल मुरझा रही है दो उंगलियों के बीच की जगह में
हालांकि मुरझाई पत्तियों से जली अलाव गर्म रखेगी सभ्यता को
किन्तु मुझे घने जंगल चाहिए थे, सघन पेड़
सिर टिकाकर रोने को सबसे उपयुक्त हैं वो
परसों एक हिन्दू की नदी में एक मुसलमान नहाकर निकला
बिल्कुल पवित्र और निर्मल
सबने नदी को खंगाल दिया किसी पाप के लिए
मुझसे निकलकर तुम कहां गए हो
मेरी देह आराधना करती है शिव की
उनके पास सब तंत्र है कामना पूर्ति के
मन आराधना करता है भूखी संतति की
उनके दिए जन्म में कितनी करुण हो सकी मैं
मुझसे दूर रहने में सबसे लाभप्रद है यह जन्म
और यह निश्चेष्ट मौसम भी – जी करता है ऐसा कहकर
खींच लूं तुम्हें आलिंगन में
और कुछ न सही एक मछली के पिंजर का चिन्ह रहेगा तुम्हारी छाती पर
सदा के लिए
मरने-मारने और नष्ट करने वाले तमाम युद्ध बंद हो गए हैं
इन दिनों भय में रखने का काम कला और बाजार करते हैं
जरा भी कम होते ही तरलता तुम प्यासे मर जाओगे
ऐसा छपा है हर दीवार पर
इन दिनों निरंतर ज्वार आया रहता है शिराओं में
लिखकर बुझाती हूं प्यास जाने किस चन्द्रमा की
इन दिनों एक कोयल निरंतर कूकती है पास की टहनी पर
और मेरा कंठ बेतहाशा सूखता है
तुम बेचैन तो नहीं इस दहशत के साये में
मजदूर गिर पड़ा मंदिर के गुम्बद बनाते
हल से खुरचकर निकल आयी एक जंगली लत्तर की अस्थि
तुम बेचैन तो नहीं गंध से
मेरी भुजाओं पर खिल रही है रातरानी
तुम्हें पुकारते
मैंने वहां दांत लगा दिए थे
अक्षय पात्र
मैंने उस सभ्यता का नाम सुन रखा है
वहां प्रिय चीज़ों को रखते हैं देह की ठंडक के साथ
लेकिन वह ख़त्म हो जाती होंगी
जैसे मेरी प्रिय किताब रखो अगर तुम
दीमक चाट जाएंगे उसका मन
फिर क्या करूंगी मैं इतने अतल समय में
जहां चमगादड़ों की आवाज़ डराएगी
जब कोई कविता लिख रही होगी सांस
जैसे ईरानी फिल्मकार ने कहा था
अासपास घूमती हैं आत्माएं
नदियों का पानी पीती हैं
खेतों से अन्न लेती हैं
और तुम्हारे संवाद सुनती हैं लोगों से
देखना, तुम देख नहीं पाओगे
मैं तुम्हारे पास आकर बैठूंगी भीड़ भरी बस में
और झुक कर पढूंगी तुम्हारी प्रिय किताब
कुम्हार टोली में वर्षा का आगमन
सन 1933
हाथियों की तरह मद में चूर थी कोलकाता की कुम्हार टोली
आसक्त पड़े रहते हैं कुम्हारों के झोपड़े
अब तो खैर कुछ पक्के मकान भी हैं
म्यांमार से आये विद्यार्थी उन्हीं छप्परों की ओट में लुक-छिपकर लेते चुम्बन
उन दिनों संभ्रांत घरों के युवक भाग जाते खाड़ी के रास्ते
चाकरी सरलता से मिलता वहां और भोजन सस्ता
हां तो, उस वर्षा का क्या करे कोई
जो टूटती थी ऐसे जैसे जरा छूने से कच्ची धरती पर तांबूल का रंग छूटता था
प्रेमी जन भीगे रस पगे होंठ की कविता कर बैठ सकते हैं चाय की गुमटियों पर
मल्लाह नदी के बाहर भी कर सकते हैं अपने रोज़गार
मुझे जिस कुम्हार का इंतज़ार था वह केश बढ़ाए
अवकाश के दिवस निकलता था बदली की तरह
माटी के जितने उपयोग बताता उतने ही बताता ब्रह्मचर्य के
यूं तो वह अंग्रेजी भी जानता था
मिन्नत करते गोरे साहब उसकी अर्धनग्न देवियों की मूर्ति के लिए
किन्तु सदा ही बांग्ला में कहता था वर्षा देखते –
अब तो कवियों की पोथियां प्रेमालाप करेंगी
बेरंग चित्रपट स्वत: ही रंगीन हो जाएंगे
हीरालाल सेन के लघु चित्रों की तरह माटी में लुप्त हो जाएंगी मेरी माटी की कोमल प्रतिमाएं
रक्त चू जाएगा उनका वैजयंती उंगलियों के मनको से
अब कौन खड़ा रहेगा पहरे पर
[ज्योति शोभा की इन कविताओं—और चयन के लिए आयी अन्य कविताओं—को पढ़ते हुए लगता नहीं कि कुछ छूट-सा गया है, जैसा अक्सर अभी की कविताओं में मालूम होता रहता है. ये कविताएं अपनी फ़िक्र और अपने कंटेंट से भरी हुई हैं. इन कविताओं को एकाधिक बार पढ़ने से इनके मतलब खुलते रहते हैं. हिन्दी में प्रभाव की शैली अपनाने और उसे कैरी करके चलते रहने का चलन है—जो अच्छा भी और बुरा भी है—लेकिन ज्योति की कविताओं को देखते हुए लगता है कि किंचित रीतिकालीन शैली और अध्यवसाय के अंतर्गत लिखी गयी इन कविताओं में बहुत नयापन है, जिसे कुछ ही समकालीन कवियों ने अपना किया है, वरना हिन्दी में ऐसे प्रयासों को हीनतर देखने का शग़ल है. इन कविताओं के लिए बुद्धू-बक्सा ज्योति शोभा का आभारी.]