तुमने प्यार के लिए असंभव को साधने की कोशिश शुरू कर दी है

अपने प्यार का औपन्यासिक स्मारक बनाने के पवित्र उत्साह से बनने वाली ऊंची लहरों के बीच के अंतराल में यह ख्याल चला ही आता है कि यह तीन दिन, तीन रात के लव पैकेज टूर का ऑफर है जिसे हासिल करने के लिए एक उपन्यास लिखना है और एक जिंदगी को बदलना है.

[लिखने से बहुत कुछ हो सकता है, ठीक वैसे ही जैसे लिखने से कुछ नहीं होता. लिखने के लिए बहुत कुछ चीज़ें फूट सकती हैं, हम इंतज़ार करते हैं कि कुछ तो पकड़ में आए. अनिल यादव ने भी शायद बहुत दिनों बाद कोई पकड़ हासिल की है. वह आगे आए और कुछ नया मिले, इससे अच्छा और क्या होगा. “फ़ारेनहाइट 451” लिखने वाले रे ब्रैडबरी ने कहा था कि मुझे नहीं लगता कि किसी भी चीज़ को गंभीरता से लेने की ज़रूरत है क्योंकि जीवन ख़ुद में ही इतना गंभीर है कि उसे गंभीरता से लिया जाए. तो यहां थोड़े कम ज़रूरी से दिखते रोज़मर्रा के राग थोड़ा और मानवीय साबित होते हैं, इतने कि रचनासक्रिय होने के लिए बहुतेरे रास्ते खोल देते हैं. अनिल यादव की बुद्धू-बक्सा की स्थापना में एक बहुत शांत और नॉन-एसर्टिव भूमिका है. उनके लिए आभारी होने के मौक़े अब हर माह आने को हैं, जब वे बुद्धू-बक्सा पर एक स्तंभ लिखा करेंगे, लेकिन फिर भी इस नयी शुरुआत और बीते वक़्त की खेती के लिए बुद्धू-बक्सा अनिल यादव का आभारी है.]


अनिल यादव

कितना प्यारा वादा है उन मतवाली आंखो का, इस मस्ती में सूझे ना क्या कर डालूं हाय! मुझे संभाल…

माफ करना, मैं कुछ भी करूं उससे पहले हवा पर उड़ता संगीत का एक भटका टुकड़ा चला ही आता है. मेरी मां ने कभी बताया था कि मैं एक नर्सिंग होम में जिस वक्त पैदा हुआ था, उसके बाहर एक बहुत लंबी बारात गुजर रही थी. बारात में कई तरह के बैंड शामिल थे.

कितना प्यारा वादा है कि मैं अगले साल, 16 मई को सुबह सवा नौ बजे तुम्हें एक उपन्यास दूंगा और तुम उसके बाद से तीन दिन, तीन रात मेरे साथ रहोगी. मैंने सोचा है कि हम अंडमान निकोबार चलेंगे. हम दोनों काला पानी के किसी बिल्कुल निर्जन किनारे पर स्वर्ग से निकाले जाने की खुशी को सेलीब्रेट करते आदम और हव्वा की तरह जैसे चाहे वैसे रहेंगे. हमारी पहली मुलाकात भी तो नदी के किनारे ही हुई थी. मुझे लगता है कि हमारे प्यार का पानी की तरलता, पारदर्शिता और जीवनदायी शक्ति से जरूर कोई नाता होगा.

तुम्हें बीतते हुए हर दिन का ख्याल है और तुमने वादा करने के बाद से उसे निभाने की तैयारी भी शुरू कर दी है. वैसे इस समाज में, इन परिस्थितियों में, तुम्हारा उन तीन दिनों के बाद अपने घर लौट पाना असंभव है जहां तुम्हारे बच्चे हैं, पति है, सास ससुर हैं और बहुत से रिश्तेदार हैं. यह सैकड़ों साल पुराना ऊपर से आधुनिक, अंदर से सामंती परिवार है जहां मालिक मालकिनों की सनक, रिवाजों, परंपराओं और लोकलाज के मनमाने नियमों के हिसाब से जिंदगी चलती है. वहां खुद से और दूसरों से नफरत करते हुए, सुखी सुहागिन होने का पाखंड करते हुए गाजे-बाजे के साथ मरा तो जा सकता है लेकिन किसी को प्यार करते हुए जी पाना असंभव है.

तुमने मुश्किल रास्ता चुना है, तुमने प्यार के लिए असंभव को साधने की कोशिश शुरू कर दी है.

आदमी ने इतने सालों में पृथ्वी पर और किया क्या है? वह अंतर्प्रेरणा का पीछा करता हुआ, एक सुखद आभास की अटकलों के सहारे खुद के और असंभव के बीच के धुंधलके में डरता, झिझकता फिर भी न रूकता यहां तक चला आया है. पृथ्वी पर आज जो उसका इकबाल और रूतबा है, वह उसने कब चाहा था, वह तो अनजाने रास्तों पर उसके कदमों के निशान की तरह अपने आप बनते गए. एक बार रूतबे का पता चल जाने पर उसके विस्तार और अमरत्व के लिए उसने जो किया और उसके जो नतीजे निकले वह एक दूसरा ही किस्सा है. अगर वह कुदरत की मुश्किलों के आगे अपनी सीमाओं को स्वीकार कर लेता तो निरा जानवर (जो उसका एक बड़ा हिस्सा अब भी है) ही रह गया होता. प्यार के अनुभव को हासिल करने के लिए असंभव की ओर शुरू हुई यह यात्रा तुम्हारे और मेरे जीवन को आंधी की तरह उलट पुलट देगी. शायद कुछ भी पुराना न बचे लेकिन हम मिल जाने के बाद, या नहीं मिल पाने की हालत में भी अलग अलग, लेकिन हर हाल में लांछित, निंदिंत होने के बावजूद पहले की तुलना में कहीं सुखी और सक्षम होंगे.

इस बीच के समय में तुम्हें आत्मनिर्भर होना पड़ेगा और मुझे लिखना होगा. ये दोनों ही चीजें जब घटित होती हैं तो भीतर के आकाश में एक बड़ा उल्कापिंड टूटता है जो हमें अपने साथ प्रकाश की गति से उड़ाते हुए वहां ले जाता है जहां से पुराने जीवन में वापसी संभव नहीं है. उस आकाश को जानती हो न. जरूर जानती होगी नहीं तो अपने प्यार को खुद जीने की कोशिश करने के बजाय उसे उन अमरबेल सीरियलों में तलाशती जिसके अधिकांश पात्र इसके अभाव में जीवित प्रेतों में बदल जाते हैं. अजीब बात है कि अभिशप्त होकर वे सभी एक ही तरह से गुस्से में दांत पीसते हैं और एक दूसरे को बरबाद करने की बिसातें बिछाते हैं.

मैंने कहा था न कि एक धमाकेदार आइडिया आया है!

इसके पीछे एक देसी जुगाड़ था या एक जटिल तकनीक थी. यह हवा की ताकत को पाल में भरकर जमाने से अपनी ठहरी नाव को चलाने का विचार था या कहो कि ठहरे पानी में, काई, सेवार से ढकी, सड़ती नाव में घुटकर मरने से बचने के लिए हवा बनाने का स्वप्न था.

मैं हमेशा तुम्हारे बारे में सोचता हूं, तुम्हारे फोन का इंतजार करता हूं ताकि तुम्हारी आवाज सुन सकूं. फंतासियों में डूबता उतराता रहता हूं, तुम्हें चौंकाने, सताने और मनाने के तरीकों की खोज करता रहता हूं. समझ लो कि मेरी अधिकांश मानसिक शक्तियां अनायास तुम्हारी ओर बहती रहती हैं. यह धारा अपने साथ सबसे मजबूत पहाड़ों और रेगिस्तानों को आसानी से बहाते हुए ऐसा लैंडस्केप रच देती है जिसकी मैंने कभी कल्पना तक नहीं की थी. इस धारा के वेग और थमाव से जो कुछ बनता है उसका अपना जीवन है. एक बार सांसों में, मुद्राओं में, शब्दों में बदल जाने के बाद उन सबका अपना स्वतंत्र अस्तित्व हो जाता है, तब मैं, तुम या कोई और उन्हें नियंत्रित नहीं कर सकता. यह प्यार का सरप्लस मजा है.

फोन पर बात करते हुए तुम्हारी आवाज लरजती है और शून्य में एक कोमल क्षण बनता है. मुझे बेचैन करते हुए शरीर में बीच की ओर एक ऊर्जा बहनी शुरु होती. खून की गति बदलती है, दिल का धड़कना तेज होता है, एक अस्फुट सिसकी के साथ भीतर कुछ फड़कने लगता है, तनता हूं, शिथिल होता हूं जैसे कोई उड़ते जंगली घोड़ों को थपकियां देते हुए इच्छित दिशा में लिए जाता हो. यह सेक्स है, काम का देवता है जो तुम्हारी आवाज के बहाने क्षण भर में ऊर्जा से भरकर बिल्कुल ही बदल देता है.

मैंने इसी लालसा, इसी ऊर्जा, इसी उद्दाम धारा को लेखन में लगाने की तकनीक का ईजाद किया है. अगर इसे एक बार साधा जा सके तो उन सारे अवरोधों के नीचे, दाएं, बाएं और अंतत: ऊपर से बहते हुए जिया जा सकता है, जिन्होंने मुझे वर्षों से अवसाद की अंधेरी खाई में रोक रखा है.

दिन बीतते जाते हैं और मैं कुछ नहीं लिख पाता. मुझे पता ही नहीं है कि क्या लिखना है. वह उपन्यास किस बारे में होगा, उसके पात्र कौन, कैसे लोग होंगे, क्या करेंगे, क्यों करेंगे और एक सामान्य पाठक के लिए उनके होने न होने से क्या फर्क पड़ेगा. यह कुछ ऐसा है जैसे कोई कुछ करने की दिशाहीन भावना के आवेग से विवश होकर कहे कि मैं तुम्हें चांद लाकर दूंगा. आभार प्रकट करते हुए तुम्हारी सांसे फूलने लगें कि कोई तुम्हें इतना मान देता है, तुम्हारे लिए ऐसा करने का मंसूबा रखता है और आत्ममुग्धता के उस भ्रमित क्षण में बच्चों की तरह कह दो कि हां, चांद लाकर मुझे दो. वह भी इस गर्व से तना हुआ कि जिंदगी में पहली बार कुछ करने लायक बात की है, चांद लाने चल पड़े. लेकिन आकाश में चढ़ने के लिए वह पहले के बाद दूसरा कदम कैसे उठाए, किस अंतरिक्ष यान में बैठ कर गुरुत्वाकर्षण की सीमा के पार जाए, वह कई योजन का, सलमे सितारे टंका आसमानी रंग का थैला कैसे सिले जिसमें चांद समा सकता है.

अपने प्यार का औपन्यासिक स्मारक बनाने के पवित्र उत्साह से बनने वाली ऊंची लहरों के बीच के अंतराल में यह ख्याल चला ही आता है कि यह तीन दिन, तीन रात के लव पैकेज टूर का ऑफर है जिसे हासिल करने के लिए एक उपन्यास लिखना है और एक जिंदगी को बदलना है. काश, इंटरनेट के सर्च इंजनों में घुस कर सारी दुनिया से प्यार के सबसे मार्मिक, सबसे रहस्यमय, सबसे दिलफरेब अनुभव बटोरे जा सकते, कोई विरल किस्सागो अपनी सघन संवेदना से उन्हें अपना बना लेता और पेचकस तकनीक से एक लंबे स्प्रिंग में पिरो देता तो फिर कुछ ज्यादा नहीं करना पड़ता. मैं तुम्हारे हाथ में देशकाल से स्वतंत्र, एक सौ चौरासी पन्नों में बंद एकसर्वकालिक महान प्रेम कथा सौंपते हुए दूसरा हाथ थामकर कहता, आओ अब तो चलो. कितना अच्छा होता कि इसी बीच के समय में तुम्हारी भी लॉटरी लग जाती या किसी की वसीयत से कोई बड़ी जायदाद मिल जाती जो तु्म्हें पलक झपकते आत्मनिर्भर बना देती. तुम परिवार के बंधनों से जकड़ी एक गृहणी से अचानक अपनी जिंदगी के फैसले लेने में समर्थ औरत में बदल जातीं और कहतीं, हां तो चलो. यह मेरे भीतर पलायन के गुप्त रास्तों से चलकर आया एक मजाक है जिसे कहीं तुम गंभीरता से न ले लेना. समझदार पाठक इसे हाथ में लेते ही नाक सिकोड़ेगा और झुलसे हुए प्लास्टिक के पात्रों की बदबू से तुरंत जान जाएगा कि यह ‘मेड इन चाइना’ उपन्यास है.

जिस दिन हमने यह वादा किया, मेरे भीतर केमिस्ट्री की नई लैबोरेटरी चालू हो गई, मैं आशा के भूसे से भरा लेखक का पुतला हो गया और मैंने घड़ी की चाल पर उपन्यास लिखने की सार्वजनिक घोषणा भी कर दी. यहां तक कहा कि काल तुझसे होड़ है मेरी, मैं 16 मई की सुबह सवा नौ बजे तक उपन्यास पूरा कर दूंगा. दरअसल मैंने जानबूझकर एक न्यूज एजेंसी और एक छोटे अखबार के दो उपेक्षित लेकिन दोस्त किस्म के रिपोर्टरों को अपने घर डिनर पर बुलाया और दूसरा पेग खत्म होने तक बेसब्री से इंतजार करता रहा कि वे मुझसे वह प्राचीनतम रस्मी सवाल पूछें जिसका जवाब देने में लेखकों को अनादि काल से पसीना आता रहा है. अंतत: कमबख्तों ने एक ही साथ मुंह बा दिया, आजकल क्या लिख रहे हैं? और मैंने जो सोचा था बक दिया, फिर ख्याल आया कि एक हिन्दी के लेखक के उपन्यास लिखने न लिखने की क्या न्यूज वैल्यू हो सकती है इसलिए मैं उन दोनों को खींचखांच कर राजनीति के पतन और देश के नेतृत्वविहीन होने के आसन्न खतरे के खेत में ले आया जहां खबर का मसाला उगाया जा सकता था. जैसे ही वे दोनों मेरे बिछाए जाल में फंसे, मैंने जड़ दिया, प्रेम ही राजनीति को बदल सकता है. हमारे राजनेताओं में जब अपने प्रेम संबंधों को स्वीकार करने का साहस आ जाएगा उसी दिन से राजनीति के जनपक्षधर होने की शुरूआत हो जाएगी.

पुराना पत्रकार होने के नाते मैं जानता था कि यदि इंटरव्यू छपने की नौबत आई तो उसकी संभावित हेडलाइन क्या होगी और उसका असर कहां होगा. मैंने सोचा था कि पंद्रह दिन तक इंतजार के बाद उन दोनों रिपोर्टरों को उस खुशनुमा शाम की याद दिलाऊंगा लेकिन अगले ही दिन संडे था, खबरों का टोटा रहा होगा. सोमवार को, ‘तीन बच्चों की मां प्रेमी के साथ फुर्र’ और ‘मोबाइल पर बात करने से रोका तो पत्नी ने की आत्महत्या’ जैसी खबरों के बीच किसी तरह ठूंसा गया मेरा वह इंटरव्यू छपा जिसमें प्रेम के जरिए राजनीति को बदलने की रोमांटिक टेक्नालॉजी बतायी गयी थी. हिंदी की किताबें पढ़ने वाले किसी भावनात्मक असंतुलन के शिकार सीनियर कॉपी एडिटर ने मेरी अटकल के विपरीत हेडलाइन लगाई थी, ‘काल तुझसे होड़ है मेरी’ और नीचे मेरा बुरी तरह क्रॉप किया हुआ अंगूठे से भी छोटा फोटो लगाया था जिसमें मैं फ्लैश से चुंधियाई आंखों से हैरान ऊपर की ओर यानी सीधे भुतही हेडलाइन को देख रहा था.

दुनिया आपको आपकी नजर से नहीं अपनी जरूरत के चश्मे से देखती है, जिससे अक्सर आपका रंग इतना बदल जाता है कि खुद को पहचानने में दिक्कत होती है. मुसीबत यह है कि इस इंटरव्यू के कारण मेरी छोटी-मोटी लेखकीय कारस्तानियां फिर से दिखने लगी हैं और तीन कंपनियों के पीआर एजेंटों ने मुझसे ऑनलाइन संपर्क किया है. वे चाहते हैं कि मैं उपन्यास के मुख्य पात्र को उनकी कंपनी के प्रोडक्ट यानि किसी खास ब्रांड की क्रीम लगाकर शेव करते, सूट पहनते या बेहतर हो कि हीरोइन को उनकी कंपनी की सैंडिल पहनते, लिपिस्टिक लगाते या सैनिटरी पैड का इस्तेमाल करते हुए दिखाऊं. मुझे इसके लिए कांट्रैक्ट साइन करना होगा, अगर कंपनी का ब्रांड मैनेजर उपन्यास की पांडुलिपि को अप्रूव कर देता है तो हर बिकने वाली प्रति के हिसाब से पैसे मिलेंगे, अस्वीकार करता है तो कांट्रैक्ट अपने आप खत्म माना जाएगा और अगले एक साल तक कंपनी इस उपन्यास पर विचार नहीं करेगी. सोचने में ही अजीब लगता है तो यह पाठक को कैसा लगेगा, जब वह किसी पन्ने पर पढ़ेगा, संवेदना ने शक्तिभोग आटे की रोटियां, रिलायंस के चकले पर बेल कर, जिंदल के नॉनस्टिक तवे पर डालते हुए सोचा, गर्माहट कम हो तो रिश्ते और रोटियां दोनों कच्चे रह जाते हैं.

जानती ही हो मेरी जान कि हिंदी का लेखक हूं जिसकी किताबों का न सर्कुलेशन है और न दूसरी भाषाओं जैसी धाक, इसलिए अभी तक तवा-कड़ाही बनाने वाली कंपनियों ने ही गंभीर ऑफर दिए हैं. दिक्कत इससे शर्मनाक और जटिल है, क्या शब्दों से बनी तुम्हारी तस्वीर को किसी कंपनी को बेच दूं जो तुम्हारी देह और भावनाओं में अपने प्रोडक्ट लपेट कर उपभोक्ताओं को ललचा सकें. अभी हम मिले भी नहीं है और मैं तुम्हारा सौदा कर लूं, या मिलने पर भी मुझे ऐसा करने का क्या हक है? यह ठीक है कि उपन्यास भी एक प्रोडक्ट है, युगों से स्थापित तथ्य है कि उसमें आये पात्र काल्पनिक होते हैं, उनका वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं होता है फिर भी मैं तुम्हारी छवियों के व्यापार के बारे में सोच नहीं सकता. हां, जानना जरूर चाहता हूं कि हमारी भूमिकाएं उलट होतीं यानि यह उपन्यास तुम लिखतीं तो रोज रिमांइडर भेजने वाले इन कंपनियों के एजेंटों को क्या जवाब देतीं?

किताबें और पत्रिकाएं तो छोड़ो लोग सड़क पर जाती जवान औरत के शरीर से मुफ्त में, ढिठाई से वही सबकुछ चुरा ही लेते हैं, धड़ल्ले से इस्तेमाल करते हैं जो ये कंपनियां चमकदार ढंग से दिखाती हैं और बदले मॉडल को उसकी कीमत देती हैं. अगर बचने का कोई रास्ता नहीं है तो लोगों की आंखों से फ्री में नुचने के लिए विवश होकर झल्लाने, दुखी होने से क्या यह बेहतर नहीं होगा कि किसी अनुकूल शर्तों वाली कंपनी से पैसे ले लिए जाएं जो हमारी अंडमान यात्रा के काम आएंगे. समझो, मैं यह नहीं कह रहा कि अपने आभासी शरीर को बेच दो, लेकिन अगर वह वैसे भी मुफ्त में बेरोकटोक इस्तेमाल किया ही जा रहा हो और कोई पैसे देकर खरीद ले तो क्या एतराज करना समझदारी होगी. लेकिन यह तो वही एक ही बात हुई और बिना बेचे कोई खरीद कैसे सकता है. जटिल मामला है, समझ नहीं आता कि इससे कैसे डील किया जाए.

सिर चकरा रहा है और साफ महसूस हो रहा है कि तुमको पाने की इच्छा के ठीक नीचे समांतर लपकती हुई एक भीषण नकारात्मक ताकत है जो मुझे हमेशा की तरह एक बार फिर विफल, क्षुब्ध और निरंतर घुटन की हालत में बनाए रखना चाहती है. उसमें ऐसा सम्मोहन है कि वह मुझे छोड़ेगी ही नहीं कि मैं उपन्यास लिखने की कोशिश भी कर सकूं. अगर तुम मुझे एक कप चाय दो तो वह हाथ बढ़ाने के पहले ही मुझसे कहेगी कि तुम इसे ठीक से पकड़ नहीं पाओगे, अपने ऊपर छलका लोगे. चीजों को थामने, सहेजने की सारी क्षमता का अधिकांश हिस्सा वह सोख लेगी. ठीक उसी समय जब उसे मैं उसे ऐसा करते देख रहा होऊंगा, कप मेरे हाथ से छूट कर फर्श पर गिरेगा और टुकड़े टुकड़े हो जाएगा.

बचपन से जानता हूं यह भय है जिसमें जादुई शक्ति है. मुझे जिस चीज का भय होता है मेरा भय अंतत: उसे ही रच डालता है लेकिन जिस चीज की इच्छा होती है उसे इच्छा शक्ति बनाते बनाते रह जाती है.

ई-मेल के नीचे तुम्हारा या तुम्हारा ही वगैरा लिखकर चिड़िया बिठाने यानी लेखकनुमा ऑटोग्राफ देने का कोई मतलब नहीं है. अगर मैं इस गुत्थी से निकल कर नियत समय के अंदर अपना वादा नहीं पूरा कर पाता तो मेरे होने न होने का कोई मतलब नहीं है. अभी तो होने न होने के बीच झूल रहा हूं.

(लेखक की तस्वीर अविनाश मिश्र ने खींची है. यह आलेख ‘बया’ में पहले प्रकाशित.)

Share, so the world knows!