रंगमंच के लिए लिखना
हैरॉल्ड पिंटर
मैं सिद्धांतवेत्ता नहीं हूं. मैं रंगदृश्य, सामाजिक दृश्य या किसी भी दृश्य का आधिकारिक या भरोसेमंद व्याख्याकार भी नहीं हूं. मैं जब लिख पाता हूं तो नाटक लिखता हूं और बस. यही हासिल है. इसलिए मैं कुछ अनिच्छा के साथ बोल रहा हूं, यह समझते हुए कि हरेक बयान के कम से कम चौबीस संभव आयाम होते हैं, जो इस पर निर्भर हैं कि इस समय आप कहां खड़े हैं या मौसम का मि़जाज कैसा है? मैंने पाया है कि एक चरणबद्ध बयान वहां टिका नहीं रहता जहां वह है, और वह निश्चित भी नहीं होता. बाक़ी तेईस संभावनाओं के लिहाज़ से उसमें तुरंत बदलाव की सूरत बन जाती है. इसलिए मेरे वक्तव्य को भी अंतिम या निश्चित नहीं माना जाना चाहिए. इसके इक्कादुक्का हिस्से अंतिम या निर्णायक लग सकते हैं, वे अंतिम या निर्णायक हो भी सकते हैं, लेकिन मुमकिन है कि कल मैं ही उन्हें वैसा न मानूं और न यह चाहूंगा कि आप आज उन्हें वैसा मानें.
लंदन में मैंने दो पूर्णकालिक नाटक तैयार किए. पहला एक हफ्ते चला और दूसरा एक साल. ज़ाहिर है कि दोनों नाटकों में कई फ़र्क़ थे. ‘द बर्थडे पार्टी’ में मैंने नाटक की वाक्यरचनाओं में डैश (चिह्न) का इस्तेमाल किया था. ‘द केयरटेकर’ में मैंने डैश हटा दिए और उनकी बजाय डॉट्स का इस्तेमाल किया. तो जो वाक्य पहले यों था – ‘देखो डैश, कौन डैश, मैं डैश डैश डैश’; बाद में ऐसा हो गया : ‘देखो डॉट डॉट डॉट, कौन डॉट डॉट डॉट, मैं डॉट डॉट डॉट डॉट’. मुमकिन है ये डॉट्स डैशेज़ से ज़्यादा लोकप्रिय हों और इसी वजह से ‘द केयर टेकर’ ‘द बर्थडे पार्टी’ से अधिक चला हो. प्रस्तुति के दौरान आपको डैश या डॉट सुनाई नहीं देते, यह दीगर बात है. आप आलोचकों को बहुत देर तक बेवकूफ़ नहीं बना सकते. वे डॉट को डैश के मुकाबिले मीलों आगे पहुंचा हुआ बता सकते हैं, भले ही वे कुछ न सुन सकते हों.
इस बात की आदत डालने में मुझे ज़रा वक़्त लगा कि रंगमंच में सार्वजनिक और आलोचनात्मक प्रतिक्रियाएं का़फी मनमौजीपन से चलती हैं और रचनाकार के लिए ख़तरा है कि वह समझदारी और उम्मीद के बासी खटमलों का आसान शिकार बन जाए. लेकिन डसेलडर्फ ने दृश्य को मेरे लिए साफ़ कर दिया. क़रीब दो साल पहले डसेलडर्फ में ‘द केयरटेकर’ के जर्मन रंगदल के साथ, स्थानीय परंपराओं के मुताबिक़ पहली रात नाटक की समाप्ति पर मुझे एक बो प्रदान की गई. तभी अचानक संसार के बेहतरीन लफंगों के एक गिरोह ने बड़े हिंसक तरी़के से शोर मचाकर मुझे चिढ़ाया. मैंने सोचा कि वे मेगा़फोंस का इस्तेमाल कर रहे होंगे, लेकिन वे ख़ालिस गले की आवाज़ें थीं. हमारी मंडली भी उतनी ही बेहया थी जितने दर्शक, फिर भी हमें हुड़दंग की वजह से मंचन के दौरान चौतीस बार पर्दे खींचने पड़े. चौतीसवीं बार सभागार में सिर्फ़ दो लोग थे, तब भी शोरगुल करते हुए. इन सब से मैं अजब तौर पर रोमांचित हो गया, और अब, जब भी बासी समझ या बासी उम्मीद के बारे में सोचकर मुझे सिहरन होती है, मैं डसेलडर्फ को याद कर लेता हूं और मेरा इलाज हो जाता है.
रंगमंच एक विराट, ऊर्जस्वी, सार्वजनिक गतिविधि है. लेखन, मेरे लिए, बिल्कुल निजी कार्यकलाप है, कविता हो या नाटक कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. इनकी संगति बनाना आसान नहीं है. व्यावसायिक रंगमंच अपनी सभी निभ्रांत ख़ासियतों के बावजूद झूठी परिणतियों, गिने-गुंथे तनावों, कुछ सनसनी और अच्छी ख़ासी तादाद में क्षमताहीन कार्यकलापों का संसार है और मेरा मानना है कि इस संसार के ख़तरे, जिसमें मैं काम करता हूं, लगातार मोटे-ताज़े और घुसपैठिये होते जा रहे हैं. लेकिन, बुनियादी तौर पर मेरा रुख़ पहले जैसा ही है. मेरे लेखन पर, लिखे हुए के अलावा, किसी ची़ज की बंदिश नहीं है. मैं दर्शकों, आलोचकों, निर्माताओं, निर्देशकों, अभिनेताओं या आम तौर पर अपने साथ के लोगों के प्रति नहीं, बल्कि उस नाटक के प्रति जवाबदेह हूं जो मेरे हाथ में है. मैंने आपको निर्णायक क़िस्म के बयानों से आगाह किया था, लेकिन जो बात अभी मैंने कही वह वैसी ही है.
मैं अक्सर नाटक की शुरूआत बेहद सादा तरीक़े से करता हूं; एक ख़ास संदर्भ में एक जोड़ा चरित्रों को साथ-साथ रख देता हूं और अपनी नाक ज़मीन पर रखकर उनकी बात सुनने लगता हूं. संदर्भ हमेशा मेरे लिए ठोस और विशिष्ट होता है, और चरित्र भी. मैंने कभी अपने नाटकों की शुरुआत किसी अमूर्त विचार या अवधारणा के साथ नहीं की है. किसी भी दूसरे सिलसिले के अलावा, हम जिस सबसे बड़ी मुश्किल – अगर आप उसे नामुमकिन नहीं मानते तो – से रुबरू हैं, वह यह है कि अतीत बदल जाता है. मेरा आशय वर्षों पहले के नहीं, कल के, आज सुबह के अतीत से है. क्या हुआ था, जो हुआ था उसकी प्रकृति क्या थी, घटना क्या थी? अगर कोई कल हुई घटना को जानने की मुश्किलों के बारे में बता सकता है तो मेरा मानना है कि वह वैसे ही अपने वर्तमान से भी पेश आ सकता है. अभी क्या हो रहा है? हम कल से पहले यह जान नहीं पाएंगे या आगामी छः महीने के समय में भी जान नहीं पाएंगे, और हम तब भी नहीं जान पाएंगे, हम यह सब कुछ भूल जाएंगे या हमारी कल्पना हमारे बोध में आज को लेकर पर्याप्त ग़लतफ़हमियां भर देगी. एक क्षण डूब जाता है और विकृत हो जाता है और अक्सर अपने जन्म के समय ही. हम सब एक साझा अनुभव का बखान निहायत अलग-अलग तरी़के से करेंगे, लेकिन हम यह मानना चाहेंगे कि यह जो व्यक्त हुआ, हमारा सामूहिक अनुभव है, एक जाना हुआ अनुभव. ठीक है कि अनुभव की ज़मीन सामूहिक है, लेकिन यह ज़्यादा से ज़्यादा एक तुरंता राय है. क्योंकि हमारी सोच या उम्मीद के लिहाज से यथार्थ ख़ासा सख्त और स्थिर शब्द है, और जिस वस्तुस्थिति के लिए इस शब्द का इस्तेमाल होता है, वह भी उतनी ही स्थिर, निश्चित और असंदिग्ध है. यह शब्द उस स्थिति के लिए न अच्छा है, न बुरा.
फ़िलहाल ऐसे लोगों की तादाद अच्छी ख़ासी है जो समकालीन नाटकों के साथ स्पष्ट, प्रामाणिक और खुले संबंधों की मांग करते हैं. वे चाहते हैं कि नाटककार पैगंबर हो जाए. वैसे इन दिनों नाटककार अपने नाटकों में और उनके बाहर भविष्य बांचने का पर्याप्त कारोबार कर भी रहे हैं. चेतावनी, उपदेश, फटकार, वैचारिक प्रबोधन, नैतिक फ़ैसले, पारिभाषिक समस्याएं और उनके तयशुदा जवाब; पैगंबर के तंबू में ये सब रहते हैं. इस प्रवृत्ति को एक वाक्य में कहना हो तो यों कहेंगे – “‘मैं’ बता रहा हूं आपसे.”
एक संसार के निर्माण के लिए कई तरह के नाटककारों की ज़रूरत है और जहां तक मेरा ताल्लुक है, श्रीमान ‘क’ मेरे अभिनय से पैदा अवरोध के अलावा किसी भी रास्ते पर चल सकते हैं. नाटककारों के छद्म समूहों के बीच किसी कल्पित युद्ध का विज्ञापन, मुझे नहीं लगता कि कोई बढ़िया खेल है. ऐसा भी नहीं होना चाहिए कि अपूर्व वाग्विदग्धता से अपनी खोखली वरीयताओं पर ज़ोर डालने की कोई उल्लेखनीय प्रवृत्ति हममें हो. क्या ‘लाइफ’ के लिए कैपिटल एल की वरीयता ‘लाइफ’ के लिए स्मॉल एल की वरीयता से भिन्न साबित होगी, जबकि लाइफ का मतलब वह ज़िंदगी है जिसे हम जीते हैं.
अच्छाई, समृद्धि और परोपकार की वरीयताएं…..कितना सतही है ये सब, ऐसे उद्गार.
अगर मुझसे कोई नैतिक संहिता बनाने को कहा जाय तो वह यों होगी – ऐसे लेखक से बचिये जो आपको नीचा दिखाने के लिए अपने सरोकारों का प्रदर्शन करता हो. अपनी योग्यता, उपयोगिता, परोपकारिता को लेकर आपके मन में कोई संशय बाक़ी न रहने देता हो, जो घोषणा करके बताता हो कि उसका अंतःकरण बिल्कुल ठीक जगह पर स्थित है और वादा करता हो कि इन सब ख़ासियतों को उसके काम में बख़ूबी देखा जा सकता है. यों, उसके नाटक के चरित्र रोमांच से सनसनाते एक समूह के सामने फिरते हुए पाए जाते हैं. ऐसे ज़्यादातर मौक़ों पर जो कुछ भी सार्थक और सकारात्मक विचारों की एक इकाई की तरह पेश किया जाता है, दरअसल खोखली परिभाषाओं और क्लीशों की क़ैद है.
ऐसा करने वाला लेखक साफ़तौर पर शब्दों पर भरोसा करता है. मेरे भीतर शब्दों के प्रति मिश्रित भावनाएं हैं. उनके बीच घूमना, उन्हें अलगाना, पन्ने पर उन्हें उगते हुए देखना, यह सब मुझे बेहद ख़ुशी देता है. लेकिन उसी समय मेरे मन में शब्दों को लेकर एक अन्य सशक्त भावना काम कर रही होती है, जिसे घृणा से कम नहीं कहूंगा. रोज़मर्रा में हम शब्दों के वज़न का सामना करते रहते हैं, शब्द बोले जाते रहते हैं, हम और आप उन्हें लिखते हैं, इन सब का अधिकांश बहुत बासी है. विचार अंतहीन तरीक़ों से दोहराया जाकर निस्सार, अतिसाधारण और अर्थहीन हो जाता है. ऐसे विकर्षण में बने रहकर विकलांग हो जाना या प्रतिगमन करने लगना आसान है. बहुत से रचनाकार इस विकलांगता से परिचित हैं. इसका सामना करना, बुनियाद में जाकर इसको समझना और इसके भीतर बाहर का सफ़र करना मुमकिन है और तब यह कहा जा सकेगा कि कुछ हुआ, कुछ हासिल किया गया.
ऐसे माहौल में भाषा एक बेहद उलझाऊ कारोबार है. कहे गये शब्दों के भीतर अक्सर अनकहा और अनसुना होता है. अपने अनुभवों, अपनी आकांक्षाओं, अपनी नीयतों और अपने इतिहास के बारे में मेरे पात्र मुझे बहुत कुछ बताते हैं और कुछ नहीं बताते. उनके जीवनसंदर्भों के प्रति मेरे अज्ञान और उनकी बताई हुई बातों के भ्रमजाल के दरमियान ही वह जगह है जो दरअसल खोज के काबिल है और जिसकी खोज अनिवार्य है. आप, मैं और वे चरित्र, जो पन्नों पर जन्म लेते हैं – ज़्यादातर समय हम अभिव्यक्तिहीन, अविश्वसनीय, भ्रामक, गोलमोल, अवरोधकारी और बेमन के होते हैं. लेकिन इनके बाहर भाषा संभव है. मैं फिर से कह दूं कि वह भाषा, जिसमे जो कहा जा रहा है, उसके भीतर भी कुछ कहा जा रहा है.
चरित्रों का एक अपना जीवनसंवेग होता है. उन पर अपना कुछ लाद देना, नकली संयोजनों में उन्हें फंसा देना मेरा काम नहीं है. अपने चरित्रों से वह कहलवाना जो वे कभी कह नहीं सकते या उस तरीक़े से उनसे कहलवाना जैसे वे बोल नहीं सकते, मेरा काम नहीं है. लेखक और उसके चरित्रों के बीच एक गरिमामय संबंध होना चाहिए – दोनों ओर से. और अगर लेखन से प्रतिकृत होने की बात है तो वह चरित्रों को जड़ और गिनीगुँथी मुद्राओं में डाल देने से नहीं, अपने हाल पर छोड़ देने में ही संभव है और उन्हें आ़जादी और अवकाश प्रदान करने में है. यह अत्यन्त कष्टदायी हो सकता है. जबकि इस बात में बहुत कम मेहनत लगती है कि उन्हें ज़िन्दा ही न रहने दिया जाय.
साफ़ कर दूं कि मैं अपने चरित्रों को बेसंभाल और अराजक होने देने की बात नहीं कर रहा हूं. वे ऐसे नहीं हैं. चयन और संयोजन का काम मेरा है. मैं पूरी मेहनत करता हूं और ची़जों के आकार-प्रकार पर, वाक्यरचना से नाटक की संरचना तक पर बहुत ध्यान देता हूं. यह पहली ज़रूरत है. लेकिन यहां दो ची़जें घटित होती हैं. आप चीज़ों को व्यवस्थित करते हैं और उन इशारों को सुनते हैं जो आपने ख़ुद अपने लिए कर रखे हैं – अपने चरित्रों के ज़रिये. और तभी संतुलन हासिल हो जाता है. यही वह जगह है जहां बिंब वाकई बिंब हैं. और इसी समय आप उस जगह को भी देख पाते हैं जहां आपके चरित्र ख़ामोश और छिपे हुए बैठे हैं. ख़ामोशी ही वह जगह है जहां वे सबसे क़ायदे से मौजूद होते हैं.
ख़ामोशी दो तरह की होती है. एक वह जहां कोई शब्द नहीं कहा गया है. दूसरी ख़ामोशी में भाषा का धाराप्रवाह होता है. भाषा का बयान ख़ामोशी के इसी संवाद में बंद है. यह एक सिलसिला है. हम जो सुनते हैं वह, जो हम नहीं सुन पाता उसका संकेत है. अपरिहार्य उपेक्षा, हिंसा, दुष्टता और वेदना के आवरण ने इस दूसरी जगह को घेर रखा है. जब सच्ची ख़ामोशी कुछ कहती है तो पहले की आवाज़ें भले ही हमारे भीतर बज रही हों, हम सचाई के और क़रीब पहुंच जाते हैं. भाषा सचाई को ढंकने की एक शाश्वत युक्ति रही है, यों भी भाषा को देखा जा सकता है.
हमने कई बार यह पस्त और निर्दय जुमला सुना है – ‘संप्रेषण का अभाव’; और यह जुमला विशेष रूप से मेरे काम के साथ हमेशा के लिए नत्थी कर दिया गया है. मेरा यक़ीन इसका उलटा है. हम अपनी ख़ामोशियों में ही सबसे अच्छे ढंग से बोलते हैं. जो नहीं कहा गया – उसमें. और जो यों ही होता रहता है वह एक निरंतर बचाव है, हमको हमारे ही साथ बनाए रखने की दुस्साहसिक रचनात्मक चेष्टा. संप्रेषण में है. किसी की भी ज़िंदगी में घुस जाना डरावना है. अपने दैन्य को दूसरों पर ज़ाहिर करने लगना और भी भीषण है.
मेरे कहने का यह मतलब नहीं है कि नाटक में कोई भी चरित्र वह कभी भी नहीं कहता जो वह कहना चाहता है. कभी नहीं. मैंने पाया है कि कभी भी वह क्षण आ जाता है जब चरित्र ऐसा कुछ कहता है जो उसने कभी नहीं कहा है, और तब जो कुछ होता है, जो कुछ वह कहता है वह कभी टाला नहीं जा सकता, उसे कभी बदला नहीं जा सकता.
सादा पन्ना एक साथ – एक रोचक और डरावनी चीज़ है. यहां से आप शुरूआत करते हैं. इसके बाद आगे चलते हुए किसी नाटक के दो चरण हैं – रिहर्सल और प्रस्तुति. एक नाटककार नाटक के इन दो चरणों में होने वाले सक्रिय और सघन अनुभव में से बहुत से मूल्य और बहुत सी अंतर्वस्तु हासिल कर लेगा. लेकिन अंततः वह एक सादा पन्ने के सामने खड़ा है. इस पन्ने पर कुछ है या कुछ भी नहीं है. आप जब तक उसको भर नहीं देते आप कुछ नहीं जानते. और इसकी भी कोई गारंटी नहीं कि आप उसे जान ही लेंगे. लेकिन एक मौक़ा वहां हमेशा होता है.
मैंने विभिन्न माध्यमों के लिए नौ नाटक लिखे हैं और इस अवसर पर मुझे कुछ नहीं पता कि मैंने उन्हें कैसे संपन्न किया है. हर नाटक मेरे लिए एक भिन्न किस्म की असफलता था और इसी बात ने मुझे हर अगले नाटक के लिए प्रेरित किया. और अगर मैंने महसूस किया है कि नाटक लिखना एक बेहद मुश्किल काम है, भले ही इसे जान पाना एक तरह की ख़ुशी हो, उसकी प्रक्रियाओं को तर्कवितर्क के दायरे में ले आना तो और भी दुश्वार है और उसे बताना, जैसे मैंने आज बताया, कितना अकारथ.
[ब्रिटिश निदेशक, पटकथा-लेखक, नाटककार और अभिनेता हैरॉल्ड पिंटर ने यह वक्तव्य साल 1962 में ब्रिस्टल में आयोजित राष्ट्रीय छात्र रंग महोत्सव के दौरान दिया था. अपने बेहद फैलाव लिए जीवन में पिंटर ने जिन भी नाटकों का निर्माण किया, वे उनकी मृत्यु के बाद भी बेहद मुस्तैदी और तैयारी के साथ मंचित किए जाते हैं. पिंटर के किसी नाटक का मंचन होना होता है तो कई ब्रिटिश अखबारों में तैयारियों और मंचन की सूचना लिए खबरें लिखी जाती हैं, जिनका रुख उत्सव से भरा होता है. इस वक्तव्य का व्योमेश शुक्ल ने हिन्दी में अनुवाद किया है, जो इन दिनों संचार और भावों के कई माध्यमों में एक साथ कई कोशिशें कर रहे हैं. नोबल पुरस्कार विजेता पिंटर व्योमेश शुक्ल की नज़रों में “एक कुशल रणनीतिज्ञ कलाकार हैं, जो ज़िंदगी और कला के मौके का अपनी राजनीति के हक़ में इस्तेमाल कर लेते हैं.” इस वक्तव्य और श्रम के लिए बुद्धू-बक्सा व्योमेश शुक्ल का आभारी है.]