अभियोग जैसा चांद

कथाकार-पत्रकार अनिल यादव का एक संस्मरण

[कथाकार और पत्रकार अनिल यादव ने हम सभी के लिए क्या गुंथा हुआ ब्यूटीफ़ुल संस्मरण गद्य लिखा. लेखन के लिए एक उचित तापमान, एक उचित उद्दंडता और एक उचित अनुशासन का समानांतर चलने की कोशिश करते रहना, कितना ज़रूरी है. शायद इसीलिए, आज लेखन, ज़्यादातर, ‘शेर के ऊपर शेर मारने’ सरीखा चलताऊ बिज़नेस है. गोया नवांकुरित प्रकाशन हाउस. इस आलेख को हंस पत्रिका ने दिसंबर 2024 के अंक में छापा. उत्तराखंड के एक गांव में बैठकर अपना उपन्यास पूरा कर रहे कथाकार की परमिशन से हम यहां आपके लिए लेकर आए हैं. बहुत दिन बाद. बहुत समय बाद. हम नियत रहेंगे. हम बने रहेंगे.]


अनिल यादव की एक पुरानी तस्वीर

बयालिस साल हुए. बहुत लोग भूल गए लेकिन पता नहीं कैसे, मुझे उस चश्मुद्दीन नाम याद है- नंदलाल गुप्ता.

वह ओफा (ऑफ टाइम) में चारखाने की लुंगी के ऊपर पसीने से भीगी बुशर्ट पहने, टाउन नेशनल इंटर कालेज के हाहाहूती कैंपस में कटहल के नीचे खड़ा होता था. पेड़ इतना घना था कि कितनी भी धूप हो, जरा सा अंधेरा रहता था. उछल कर किसी भी डाल से लटकने पर गंगाजी दिखने लगती थीं. 

उसकी साइकिल स्प्रिंगदार, झूलन सीट वाली थी. कैरियर के अगल-बगल कुरकुरी लाई और मटर के दो कनस्तर और फ्रेम के डंडे से बंधे एक कपड़े में सरसों के तेल की शीशी, नमक की डिबिया, अखबारों के कटे पन्ने लटकते रहते थे. वह दस नये पैसे-चवन्नी-अठन्नी के तीन तिकोने बनाता था लेकिन नमक पता नहीं कौन-सा बुरकता था कि लड़के भूख से बौरा जाते थे. चबाते हुए सिसियाना रुकने में नहीं आता था और मेरे पास पैसा नहीं रहता था. 

गांव में अभी अनाज के बदले सामान का बार्टर सिस्टम चल रहा था. रूपया गिनने को वासना से, अंत तक देखा जाता था. साइकिल पंचर हो जाए तो पांचू लोहार के संझले बेटे, मुन्ना से ‘हथफेर’ लेना पड़ता था. उधार कहना अपमानजनक था. उसने सैदपुर में पशु मेला मैदान के आगे बेयरिंग रिपेयर की गुमटी लगा ली थी. पंपिंग सेट की कोई न कोई बेयरिंग, तीन महीने में दांत चियार देती थी जिसका नर्तकी-श्रृंगार कराना पड़ता था. पांचू मामा मशहूर थे कि उन्होंने बांस की कइन की चेन से एक अंग्रेज की साइकिल चला दी थी. उनकी बनाई कुर्सी, किसी साहेब के बैठने से पहले एक साल तालाब में रही लेकिन किसी जोड़ में पानी नहीं पैठ पाया. 

मुझे नंदलाल साजिश करके भूख भड़काने वाला एक खतरनाक व्यापारी लगता था लेकिन मैं भी अपने सहपाठियों के खाने की शैलियों को देखने और बतरस के लिए कटहल के नीचे चला जाता था. मैं इलाहाबाद से आठवीं पास करके आया था इसलिए हाफ पैंट पहनता था और हर बात में ‘अबे’ बोलता था. श्रवण कुमार त्रिपाठी कहता, ये क्या बकरी की तरह बें-बें करते रहते हो. उसके देसी तर्क में दम था जिसे और लड़कों ने भी पकड़ लिया. मुझे क्लास में बैठना अझेल लगने लगा. स्कूल आने और खिंचते ही चले जाते बचपन को ढकने के लिए एक फुलपैंट या पाजामे की जरूरत थी. पापा की दो पैंटों को बाजार के एक टेलर से ऑल्टर कराया गया. एक बुर्राक थी लेकिन घुटनों पर अचानक इतनी चुस्त हो गई थी कि मेरा नाम ‘जेंटुलमैन’ पड़ गया. दस में से आठ कुंआरे लड़के चौड़ी मोहरी वाला सफेद पाजामा पहनते थे. शादी में खिचड़ी खाते समय पहना जाने वाला पैंट इंटर तक काम चला देता था.   

पढ़ाई, रोज सुबह ननिहाल के गांव के पिछवाड़े सोनही के मिडिल स्कूल में होती थी. खपरैल से छाए एक क्लासरूम में बैठकर, संक्षेप में मिट्टी पोतने (अखाड़े पर जोड़ और कसरत का प्रतीकात्मक कर्मकांड) के बाद हम दोनों भाई किताबों के फटे पन्ने, कवर की तरह चढ़ाए अखबारों-पत्रिकाओं के नुचे टुकड़े, सामग्री कम पड़ जाए तो हर तरह का कागजी कूड़ा बटोर कर, स्कूल के कुएं की जगत पर फैलाकर पढ़ जाते थे. कल्पना को सबसे अधिक हवा पत्रिकाओं के ओस से भीगे पन्ने देते थे. जैसे बहस छिड़ जाती कि अमेरिका की खोज करने वाला कोलम्बस कैसा रहा होगा? छोटा भाई सुनील, दूर आंखें टिकाए हुए बताता, हो न हो वह अपनी नाव पर हमारे गांव की सबसे लंबी कोली (गली) से भी लंबा बांस लेकर चलता हो. जहां रुकना होता हो, समुद्र में धंसा देता हो. हम इस पर सहमत रहते कि अंतरिक्ष में ‘लाइका’ कुतिया को पहले इसलिए भेजा गया क्योंकि वैज्ञानिकों की फट रही थी. मरना हो तो कुतिया मरे! 

इसके बाद पंपिंग सेट की हौदी में स्नान करके, एक थाली दूध-भात-गुड़ या दाल-भात-भरवां मिर्च का प्रातराश उठाने के बाद, साइकिल के टायर में सोए गेटर के उछाल की संगीतमय आवृत्ति के साथ, एक नदी पार ग्यारह किलोमीटर दूर स्कूल के लिए प्रस्थान होता था. पानी की धार, हौदी में रोकने के लिए मुर्चे की चिंता छोड़कर टिन की एक पुरानी दोन खड़ी की गई थी. दोन, पुरवट और रहट का लोहा-लक्कड़ कच्चे घरों के किवाड़ों के बाहर गल रहा था. नहर निकलने के बाद उनसे सिंचाई का जमाना जा चुका था. 

दस-बारह पैडिल बाद, कोआपरेटिव बैंक की इमारत के पीछे हम लोगों की बंसवारी थी जिसमें ती-ती-ती-ती बोलते हुए झांकू चपरासी मुर्गियों-मुर्गों को कल रात के बचे पिसान की लोइयां खिला रहे होते थे. मैं डंडे पर खड़ा होकर रंगबिरंगे मुर्गों को देखते हुए पूछता, “मामा, आज कौन वाले बारी है?” 

वह अपने खिचड़ी बालों को दार्शनिक की तरह खुजाने लगते, “भैया देखो, अब इनमें से जिसकी भी आई हो. कोई टाल थोड़े सकता है.” शोकसभा जितने लंबे मौन में हम दोनों इठलाते मुर्गों को देखते रहते फिर लाठी के लायक किसी छरहरे बांस की सुंदरता पर चर्चा होने लगती. कहीं से झांकती अम्मा आवाज लगाती, “ऐ मुर्गों के हितैषी, आगे बढ़ो, लेट हो जाओगे.” 

कनेरी गांव के रहने वाले झांकू दूसरी ओर जाकर तितियाने लगते. वह बैंक मैनेजर के मुर्गे पालने और पकाने के लिए तैनात किए गए थे जो जौनपुर के बड़ी टंकी (तोंद) वाले ठाकुर थे. शराब-मुर्गा और आन-बान के शौकीन. मोटा गबन किया और एक दिन फरार हो गए. गबन अक्सर होता. जब होता, पुलिस थाने में एक रात उल्टा लटकाने के लिए झांकू को ले जाती. गोदाम की चिटकी दीवार से यूरिया की गंध आनी बंद हो जाती. बाजार से ब्लैक में खरीदते किसान और मासूम दिखने लगते थे. अगले मैनेजर के आने की खबर बैंक के बाहर पान की दुकान चलाने वाले शिवकुमार सिंह से ली जाती थी.

पौन किलोमीटर आगे परसनी का प्राइमरी स्कूल था जहां इलाहाबाद भेजे जाने से पहले, तीसरे दर्जे तक मेरी पढ़ाई हुई थी. अब मेरी तीन बहनें पढ़ रही थीं. इनमें से एक मौसी की लड़की ऊषा थी जो स्कूल से भागने के लिए अक्सर अपनी नानी को मार दिया करती थी. स्कूल के पीछे, सड़क के किनारे, लौकी की लतर से ढकी रामरतन पांड़े की पान की गुमटी थी. वहां बसें रुकती थीं. पांडे की झौआ भर दाढ़ी थी. चिलम से लपट उठाने की काबिलियत का दम मारते थे. नाच-नौटंकी के शौकीन लोफर थे. उनकी गुमटी पर अनजान मुसाफिर या ठकुरान के लड़के बैठते थे. कभी स्कूल से लगे गड़रान (गड़ेरियों का टोला) की कोई सहमी हुई औरत माचिस या अपने रोते बच्चे के लिए लेमनचूस लेने चली आती लेकिन एक-दो कुबोल सुने बिना वापस नहीं लौट पाती थी. पांडे, पान खाने का प्रस्ताव देते और बैठने वाले न खाने की वजहों और खाने के फायदों का खुलासा करते हुए बात में पत्ती जोड़ते जाते. 

टाइम पास के लिए बिसाती, पंवरिया, साधुओं, कुंजड़िनों और नाच के लौंडों को भी घाम का वास्ता देकर बुला लिया जाता था. 

स्कूल के दरवाजों में कुंडी नहीं थी. बच्चे खेलने के लिए जब चाहे चले आते थे. सुबह, पांड़े अपनी दुकान की साफ-सफाई कर रहे होते थे. अक्सर मुझे देखकर, स्कूल की खिड़की से लटका मेरे ननिहाल का कोई बच्चा हुलस कर नारा लगाता, “रामरतन के जानय ला, पक्का पेल्हर तानय ला!”

मैं उसे थप्पड़ दिखाकर आगे बढ़ जाता था. लेकिन अब सोचता हूं, यह एक सर्रियलिस्ट कविता थी. भावार्थ यह था कि रामरतन पांड़े को जानने की इकलौती काबिलियत यह है कि आपको अच्छी स्तंभन शक्ति वाला व्यक्ति होना चाहिए. पता नही किसने या कितने लोगों ने क्रमिक ढंग से हमारे इलाके की रूखी भोजपुरी की लफ्ज-तराशी करते हुए यह कविता बनाई होगी. वैसे, तब देहात में हर चीज के लिए एक कविता थी.

दो किलोमीटर आगे हिरावनपुर को छूते हुए, गांगी नदी बहती थी जिस पर छोटा सा बहुत पुराना पुल था. उसके एक मोखे में काले रंग से ‘जयगुरूदेव’ और उसके नीचे लाल पेंट से छोटे, सुंदर अक्षरों में ‘मछरी भूंजब तोहंउ के देब’ लिखा हुआ था. यह विद्रोह और शरारत की साझा लिखाई थी जिसे रुक कर रोज समझना जरूरी था. तबियत उचट जाए तो पुल पर गाड़ियों की बदली आवाज को सुनना पड़ता था. इस सड़क पर बस चलाने के परमिट के लिए कत्ल हो रहे थे. दरवाजों से बाहर लटके कंडक्टर, सड़क किनारे घास काटने वाली औरतों को एक से एक नए हर्राफा गाने सुना रहे थे. कोई न कोई जानने वाला पुल से नदी में तैरने के लिए कूद रहा होता था. पानी में सुर्खाब का जोड़ा या दूर पश्चिम के एक पुल पर रेलगाड़ी के डिब्बे दिख जाते थे जिनके धुंआं छोड़ता सांप हो जाने तक इंतजार करना ही पड़ता था. एक बार, पुल पर तल्लीन होकर पानी देख रहा था कि एक आदमी साइकिल से आया और मेरा गाल काटकर भाग गया. मैं संभलता तब तक दूर जा चुका था. 

सड़क किनारे के पेड़ों और दीवारों पर ‘जयगुरूदेव-सतयुग आएगा’, ‘शाकाहारी बनो’, ‘जयगुरूदेव नाम परमात्मा का’ बहुत ज्यादा लिखा हुआ था. हीरो साइकिल, घड़ी डिटर्जेंट, अग्निबाण हरड़ और वेदना निग्रह रस के विज्ञापन भी फेल थे. कोइरी बिरादरी के कुछ चेले बोरा तक पहनने लगे थे. वे अपने कोठार में अनाज और उनके बच्चे विद्या बढ़ाने के लिए अपनी किताबों में बाबा के प्रवचन स्थल की मिट्टी रखते थे. उनके लिए बाबा पक्का अवतारी थे, कुछ के लिए आधा सुभाषचंद्र बोस थे, कुछ के लिए वायरलेसधारी, एकतिहाई पाकिस्तानी जासूस थे. जो भी हो, वे इस इलाके में आते थे तो बोरों में दर्शन-शुल्क भरकर, ट्रक से ले जाते थे. 

यह नदी किनारे, मछली के जिक्र वाली उस लाल लिखावट का ही असर था कि कोई पंद्रह साल बाद, एक अखबार में जयगुरूदेव का इंटरव्यू लिखने के कारण मेरी नौकरी कुछ घंटों के लिए चली गई थी.

पुल के बाद ढलान थी. पौन किलोमीटर, हवा का मजा लेने के बाद कुछ पैडल और कि मेरे अपने गांव दौलतपुर का बस स्टैंड ककरहीं आ जाता था. कोई न कोई मिल जाता था जो मुझे अपने इंतजार में धीरे से खींच लेने के लिए एक विचित्र बात लोका देता था-

“कहो, तोहरे ननिउरे क खेतवा बिकात ह का?”

तोहार नानी मुसुलमान हईं का, सुनलीं ह कि बूढ़ा मरिहैं त दफनावल जइहैं!”

“बहुत अंग्रजी जानय ला, तनि नॉलेज क स्पेलिंग बतावा त?”

परात में खोवा लेकर बनारस की ओर जा रहे एक बुढ़ऊ धज्जू चौधरी, अक्सर गणित का एक बइठउवा सवाल पूछते या जमीन पर लाठी से एक बड़े गोले के भीतर छोटे गोले का एनिमेशन खींच देते थे. वह चुनौती देते, इस चीज के बिना दुनिया इक्कीस दिन के अंदर खत्म हो जाएगी. जिसने इसके मर्म को बूझ लिया समझो सब पढ़ाई एक बार में पास कर गया. मैं मतलब जानता था लेकिन सब भूल-भालकर खेलने लगता था- ये जो आपने बनाया है इसे कोई इज्जतदार भैंस भी नहीं पूछेगी. भैंस तो छोड़िए इसको चींटी तक नहीं खा सकती. ये जो आपने बीच के गोले में रखा है, यदि सचमुच का होता तो आपको ऊपर जाकर भगवान के सामने अपनी बरौनियों से उठाना पड़ता. ये जो बड़ा गोला है उसे आपके खोए के साथ लपेटने में बहुत मजा आएगा. इस खेल में वहां बैठे चरवाहे और बस का इंतजार करती सवारियां भी शामिल हो जातीं.  

यह रोटी के ऊपर रखे नमक का एनिमेशन हुआ करता था.

बुढ़ऊ, अब एक झोलाछाप डॉक्टर के क्लिनिक की ओर हाथ उठाते, “क्या हम लोगों ने फ्रिज नहीं देखा है. तुम तो इलाहाबाद से आए हो, देखा ही होगा. हमारे जैसे आदमी ने भी बनारस और गाजीपुर के बाजार में खूब देखा है.”

डॉक्टर बाहर निकल कर, दोनों हाथ सीने पर बांधकर मुस्तैदी से खड़ा हो जाता.

“अरे तुमको नहीं कह रहे हैं जो सब काम छोड़कर, चकुनी हाथी की तरह झूमने लगे. आजमगढ़ के तरवां-खरिहानी में एक ऐसा डाक्टर है जो मरीज को फ्रिज के आगे बैठाकर बत्ती देखाता है, दो बार भट्ट-भट्ट दरवाजा खोल-बंद करके कहता है जाओ हो गया एक्सरे. अस्पताल के बाहर फेंकी हुई एक्सरे की प्लेट, बटोर कर रखे रहता है. वही फ्रिजवा के पीछे से निकाल कर, एक लिफाफा में रखकर, खूब चुनकर गलत-सलत अंग्रेजी में नाम लिखने के बाद दे देता है. ऐसे तो आजकल डाक्टरी हो रही है.”

डॉक्टर कई बार खंखारने के बाद कहता, “क्या कीजिएगा, हर फील्ड का आदमी दो नंबरी हो गया है. आपकी बात नहीं हो रही है लेकिन होली-दीवाली नहीं अब बारहो मास उबला आलू मिलाकर खोवा बेचा जा रहा है.”

कई और रायबहादुर बोलने लगते. सनसनी महसूस होती, अब ज्यादा देर नहीं है. मारपीट शुरू होने वाली है. धीमे से पैडिल दबाता. आगे बढ़ लेता.  

अपने गांव का समाचार लेने के बाद दो ढाई किलोमीटर और फिर एक बरगद के नीचे पान की अकेली गुमटी पड़ती. पचास कदम पर एक पुराने मंदिर के सामने धूप में शीशे की तरह चौंधियाता डहन का सीढ़ीदार पोखरा आ जाता था. वहां जरा देर साइकिल रोक कर, नहाने और पत्थरों पर कपड़े धोने वाली औरतों के चेहरे देखते हुए एक रहस्य को समझने का प्रयास करना पड़ता था. मेरे छोटे भाई ने बताया था, कुछ ही दिन पहले इस पोखरे में एक लड़की की मौत हो चुकी है. मैने पूछा, डूबने से? वह इस तरह हंसा था, जैसे मैं कोई बच्चा होऊं. उसने बताया था, नहीं… इस पोखरे में एक लड़का और लड़की तैरते हुए सेक्स कर रहे थे. लड़के का गुप्तांग पिचकारी की तरह काम करने लगा. पहले लड़की के पेट में पानी भरा फिर धीरे-धीरे फेफड़ा, दिल, सांस की नली, कान और दिमाग सब जगह भर गया. समझो वह पानी की बन गई और अपने अंदर ही अंदर डूबकर मर गई. लड़का फरार हो गया.   

जिस दिन वहां कोई नहीं होता, मैं साइकिल स्टैंड पर खड़ी कर देता. पोखरे के टूटते-ढहते कोनों पर, सीढ़ियों पर बैठकर उस कांड को दृश्यों में बदलने की कोशिश करता था. कभी सड़क से किसी मुसाफिर का उलाहना आता, “वाह रे विद्यार्थी, यहीं स्कूल चल रहा है!”

आगे के रास्ते पर कोई बड़ा पेड़ नहीं था. सड़क किनारे की सरपत और बबूल की झाड़ियों के बीच सनसनाती साइकिल, सीधे चार किलोमीटर आगे गांधी आश्रम के सामने जाकर धीमी होती जहां से कीचड़, खौरहे कुत्तों, बसों के हार्न, प्लास्टिक के कूड़े और हवा में उड़ती पेशाब की अमोनिया झार से बिलखता सैदपुर बाजार शुरू होने लगता था. 

पंद्रह-बीस दिन में एक बार, फूले हुए झोले लिए औरतें मिलतीं जिन पर कुछ ज्यादा सफेद और खिलखिल गांधी जी का छापा होता. नीचे लिखा होता, ‘खादी वस्त्र नहीं विचार है’. गांधी आश्रम कच्चा माल देता था. वे चरखे पर कातकर सूत जमा कराने आई होती थीं. कोई नहान या त्योहार होता तो वहीं से झुंड में गीत गाते हुए गंगाजी की ओर निकल लेती थीं. 

कई बार अनुमान लगाने के बाद, मैने एक सुंदर सी बूढ़ी औरत को छांटा कि यह मेरी अम्मा को जरूर जानती होगी. वह भी मेरे पैदा होने के पहले चरखा चलाती थी. इसी आश्रम में सूत जमा करने आया करती थी. अब उसके चरखों और तकुओं के टुकड़े-पुर्जे हम लोगों और गांव के बच्चों के खेलने के काम आ रहे थे. मैने एक दिन रूक कर उससे पूछ लिया, “क्या आप मेवाती देवी को जानती हैं?”

“नहीं बच्चा, इनमें से तो उस नाम की कोई नहीं है”, उसने सड़क पार कर रही औरतों को दिखाकर कहा.

“यहां थोड़े आई है. घर पर है. मेरी अम्मा का नाम है. पहले वह भी चरखा चलाती थी.”

“अच्छा, तुम्हारा घर कहां है?”

“कुंजी का पूरा, मतलब परसनी खुर्द.”

उसने रूककर देखा. मेरा हाथ पकड़ कर कहा, “मेरे साथ आओ.” 

उसने आश्रम के अंदर एक भाईजी को आवाज लगाकर कहा, “जरा रिकार्ड देखकर बताइएगा तो मेवाती नाम की लड़की यहां कब आती थी. सन सत्तर से पहले का कागज देखिएगा.”

भाई जी ने चौंककर पूछा, “क्या नाम बताया?”

मैने उत्साह से कहा, “मेवाती देवी डॉटर आफ बल्ली बाबा, परसनी खुर्द.” तब मुझे लगता था कि आसपास के पचास कोस में कोई ऐसा नहीं है जो मेरे नाना को नहीं जानता होगा.

भाईजी को मेरा चहकना खराब लगा. उन्होंने ऐंठी हुई आवाज में कहा, “पता नहीं कितनी मेवाती-गुजराती आती हैं. खादी का सूता बेचकर टेरीकाट-टेरीलिन खरीदती हैं.”

बुढ़िया खफा हो गई. उसने अपनी साड़ी को देखते हुए कहा, “वो तो आपके बीबी-बच्चे भी पहिनते हैं. नौकरी न होती तो क्या आप भी नहीं पहिनते? लड़का इतनी दूर से आया है पता करने तो बताना पड़ेगा.” 

लेकिन भाईजी वहीं खड़े होकर नीम की कृमिनाशक सींक से दांत खोदते रहे. हिले नहीं. थोड़ी देर लगी, मैं समझ गया कि भाईजी, गांधी जी जैसे नहीं है. उनका चौंकना नकली था. वह भी मेरे स्कूल और गांव के कोआपरेटिव बैंक के क्लर्कों की तरह एक क्लर्क थे जिनके मुंह से काम की एक बात निकलने में कई दिन लगते हैं. मैं लौटने लगा तो बुढ़िया ने कहा, “फिर किसी दिन आना बेटा, मैं पता करके रखूंगी.” 

फिर कभी मिलना नहीं हुआ. 

सैदपुर का रेलवे फाटक पार करने में दिव्य मजा था. पटरी के किनारे फटा कंबल बिछाए, घुंघराले बालों और दाढ़ी वाला एक पागल, अपने एक हाथ में पहना तांबे का कड़ा सहलाता हुआ बैठा रहता था. कड़े से खेलना, उसके देखने के साथ बदलता था. उससे आंख मिलाने के लिए साइकिल धीमी करके जरा इंतजार करना पड़ता था. तीन-चार हाफ पैडिल और जमीन से पैर लगते ही वह डूबी आंखों से देखते हुए जैसे मुस्कराता था, मुझे अपनी डोज मिल जाती थी. 

फाटक के उस पार, तहसील के सामने, हर महीने बदलते भड़कीले हार्नों वाली ‘लास्ट सवारी गाजीपुर-बनारस’ चीखती बसें, घुटने भर कीचड़ को आगे-पीछे मथती, घुरघुराती रहती थी. घने धुएं के बीच दोनों ओर की खिड़कियों से उड़ती पान की पीकें एक के ऊपर एक चमकती रहती थीं. यह कस्बे का तोरणद्वार था. मैं अभी-अभी मिली पागल मुस्कान की ताकत को पैडिल में उतार कर ‘आन्ही पानी दोस बुढ़िया भरोस’ कहते हुए साइकिल के दोनों ओर पैर उठाकर बसों के बीच से निकल जाता था. 

इसके आगे के बाजार में सुबह, कीचड़ और बासी खून के रंग की कहानियों के सिवा कुछ नहीं होता था. हर बार बदलते मौसम में बारी-बारी से, कचहरी के सामने एक अहीर और एक ठाकुर की हत्या हुआ करती थी. प्रत्यक्षदर्शियों के बयान चाय की दुकानों में चलते रहते थे. बीच में गर्व से बताया जाता था कि संसद में सैदपुर को दूसरी चंबल घाटी बोला गया है. कथाकारों को कभी संतोष नहीं होता था. वे जैसे किसी निर्णायक (पता नहीं कौन होगा वह) के सामने अंतिम बार जाने से पहले अपनी बातों का प्रूफ पढ़ते रहते थे. हफ्ता-दस दिन में कहानी के मर्मस्थल -जैसे ललकारने और मरने के समय के संवाद, बम लगने पर पीठ का फटना या सीधा-साबुत रहना, डिड़ियाना (जानवर की तरह पुकारना) या दहाड़ना, असलहों के प्रकार और हत्या के कारण तक बदल जाते थे. किसी को गद्दार, भेदिया, वीर या कायर बना देना, उनके लिए चुटकियों का काम हुआ करता था. अगर कोई अजनबी ज्यादा ही ध्यान से कहानी सुनने लगे तो थम कर, दो बातें पूछ ली जाती थी. 

“कहां घर परी?”                

“कवन बिरादर?”

जवाब से तय होता था कि कहानी पहले की तरह चलती रहेगी या बदल जाएगी. या कोई नई कहानी शुरू हो जाएगी.

एक चाय की दुकान में एक आदमी बांस की टिकठी (अर्थी) पर रंगीन, गोटेदार कफन ओढ़कर लेटा रहता था जिसके चारों कोनों पर चिलमों से दसांग का धुंआ निकलता रहता था. पेट पर कुछ नोट, बताशे और सिक्के पड़े रहते थे. तीस-बत्तीस साल का रहा होगा. उसके सीने के नीचे तक लंबी दाढ़ी थी. वह कभी कुछ नहीं बोलता था लेकिन उसकी तरफ से बताया जाता था कि वह मर चुका है. उसके भाई ने राजस्व के कागजों में उसे मरा दिखाकर जमीन हड़प ली है और वह खुद को जिंदा साबित करने के लिए मुकदमा लड़ रहा है. उसे विश्वास है कि किसी दिन कचहरी के भीतर से कोई जज या मुंसिफ आकर उसे देखेंगे और उसके पक्ष में फैसला सुना देंगे. जरूरत पड़ी तो हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट के आगे भी जाकर ऐसे ही मर जाएगा. कथाकार, उसकी कहानी सुना कर अंत में कहते थे, चाहे जो फैसला हो, हमारे लिए तो अच्छा ही है. इसके रहने से मच्छर नहीं काटते.

थाने से पहले की त्रिमुहानी से गंगा जी की तरफ घूमने पर सरपत की झाडियों से प्रार्थना की भुनभुन सुनाई देती थी. स्कूल की बाउंड्रीवाल की जगह जमाए गए बरसाती पुल (चह) के पीपों की लंबी कतार के गोलों से लड़के दिखने लगते थे. स्कूल और मेरे बीच की हवा, थकान, अब तक सोमरस में बदल चुका प्रातराश, सब मिलकर आवाजों को अपने-अपने कोणों से घिसकर एकसार और अनवरत बना देते थे ताकि वे बह सकें. गेटर की उछाल, मंद होकर थपकी जैसी लगने लगती थी. 

मैं साइकिल, स्कूल के स्टैंड में खड़ी करके अपनी कक्षा की कतार में, हाथ जोड़कर, खड़े होने तक कुछ झूम रहा होता था. राष्ट्रगान के बीच, खुमार के झीने परदे के उस पार के उस लड़के को ठीक से पहचान नहीं पाता था जो अपने पैर का पंजा मेरी पैंट की मोहरी में घुसाकर फुफकारता, ‘जेंटुलमैन! सोझे खड़ा होखा’ लेकिन सीधा खड़ा हो जाता था. 

अक्सर प्रार्थना खत्म हो चुकी होती थी. क्लासरूम में घुसने के लिए इजाजत की जरूरत नहीं थी. पहला घंटा गणित का होता था, रामबचन पांडेय का थिएटर शुरू हो चुका होता था.

नवीं-विज्ञान की क्लास, स्कूल के सबसे ऊंचे और भव्य कमरे में चलती थी. यह हॉल के किनारे सीढ़ीदार मंच के आजू-बाजू लगे दो बड़े कमरों में से एक था जो आयोजनों के समय ग्रीनरूम की तरह इस्तेमाल किया जाता था. उस दिन इसमें सम्मानित अतिथियों का फूल-माला, नाश्ता-पानी और सजावट-अभिनंदन का समान रखा जाता था. अगर सह-शिक्षा होती तो इसी कमरे में स्वागत गीत गाने वाली लड़कियां साड़ी पहनतीं और सजतीं. उनके अभाव को जरा सा और गहरा बनाने के लिए भीड़ में से पांच लजाते लड़कों को ही बुला लिया जाता था. 

दुनिया छोटी-छोटी बातों में गलती करती थी और रोती थी. रामबचन गुरूजी होशियारी से मुंह दाबकर हंसते थे. उनके दांत खरगोसिया थे. हंसने में दीनता थी और आंखें आत्ममुग्धता से मुंद जाया करती थी. दोनों के मेल से मजा आने लगता था. वह हम लोगों को गणित पढ़ाने के बीच में हिरमाना खाने का, दातुन करने का, अमरूद के पत्तों से मंजन बनाने का, दधि के बहुविध इस्तेमाल का सही तरीका बताने लगते थे. नारा बैठाने या खिसकी नाभि को सही जगह लाने के विधि सिखाने के लिए वह अपनी कमीज-बनियान उतार कर कुर्सी पर लटका देते. पहले जनेऊ के इस्तेमाल का सही तरीका बताते फिर शिखा, करधन, स्नान, मालिश, काजल, तेल-फुलेल की सही प्रयोग विधियों की तरफ बहकते हुए वहां चले जाते जहां से ‘साइन-कॉस-थीटा’ की तरफ वापस आ पाना इस जनम में संभव नहीं था. समझ में आने वाली बात है कि मैं खुमारी में स्वास्थ्य और धर्म का संबंध उलझ जाने के कारण गणित में अधिकतम छह नंबर का ग्रेस मार्क पाकर हाईस्कूल पास हुआ. 

एकमात्र सवाल, जिसका जवाब मैने पूरे आत्मविश्वास के साथ लिखा, वह यह था- एक से दस के बीच की संख्याओं को आरोही एवं अवरोही क्रम में लिखो. 

क्लास में कुछ ज्यादा सफेद दांतों वाला लंबा, चौड़ा, सुंदर एक लड़का था, मुहम्मद जफर जो तहसील कंपाउंड में रहता था. उसके अब्बा, नायब तहसीलदार या कानूनगो थे. उसे गणित में सब आता था. जो अभी पढ़ाया नहीं गया था, वह भी. वही एक टूथब्रश था बाकी दातुन थे. उसकी कापी कभी गंदी नहीं होती थी. बारिश में बस्ता नहीं भींगता था. कपड़ों की क्रीज नहीं बिगड़ती थी. पहली बार खेल के बजाय पढ़ाई की कोचिंग का जिक्र उसी से सुना. लड़कों के आश्चर्य और प्रशंसा के जवाब में शाइस्तगी से हंसकर, अल्ला करम! कहता था. हैरानी होती थी कि यह अपना तेजू खाँ होना इतनी होशियारी से छिपाता क्यों है?  समझ में नहीं आता लेकिन अखबार में देखी, आदिवासी प्रशंसकों से घिरी इंदिरा गांधी की फोटो याद आती थी. 

दूसरा घंटा हिंदी का होता था. शिवशंकर सिंह गुरूजी का नाम ‘नून का बोरा’ था. उनकी आंखें पीली थीं और फूले हुए चेहरे पर चेचक के दाग थे. वह हाल की सीढ़ियों पर किसी तरह अपनी भारी काया को खींचते-टिकाते आते और कुर्सी पर भहरा जाते. सबको पता था कि अगले पंद्रह-बीस मिनट तक सहानुभूति एवं सांत्वना पर्व मनाया जाने वाला है. 

वह सांसों के संभलने के बाद, धोती से तीन बार अपना चेहरा पोंछने के बीच शुरू होते, डाक्टरों ने मुझसे बहुत कहा, नारियल का डाब लगाइए लेकिन मैने कभी नहीं लगाया क्योंकि असली सुंदरता तो अंदर होती है. वाइफ ने भी कहा लेकिन मैने कहा ना, असली सुंदरता तो…खिड़कियों के बाहर मेंहदी, मोरपंखी और पाम की कतारों की आपस में घुलती हरियाली और दो तरफ ऊंचे रोशनदानों से आते नीली रोशनी के झरनों के नीचे खुद को सुंदर और कमनीय मनवा लेने के दयनीय अभिनय के बीच मैं धीमे से अपना बस्ता सीने पर दबाता और बाहर निकल जाता. तब पता नही क्यों ऐसा लगता था, आसपास जो कुछ भी चल रहा है, मेरा खिसकना उसके साथ इतना लयबद्ध है कि मेरी तरफ किसी का ध्यान नहीं गया होगा. 

हॉल से लगा एक पुराना कुंआं था जिसमें पंप लगाया जा चुका था. वहां हमेशा रहने वाली ठंडक में कोई ऐसा इशारा था कि पैर अपने आप गंगा जी के किनारे, निर्जन घाट पर महंत शिवदास की कुटिया की ओर चलने लगते. उसके आगे एक छोटा सा वन था और बाढ़ से कटे-फटे बलुआ खेत शुरू हो जाते थे. 

नदी, धूप में ऐसी लगती थी जैसे किसी ने सिगरेट की पन्नी मचोड़ कर बनारस से कलकत्ता के बीच फेंक दी हो. महंत जी पता नहीं कब के मर चुके थे. उनकी एक घिस चुकी, मटमैली मूर्ति बची थी. नदी के भीतर तक गई घाट की सीढ़ियों से लगे इमली, बेल, पीपल, महुआ के पेड़ों के बीच एक अखाड़े के चारो ओर खंडहर होते छोटे-छोटे मंदिर थे. सीलन, बासी चंदन और अगरबत्तियों की गंध बसी हुई थी. धूप-पानी से चिटक कर फट रहे सीमेंट के चबूतरों पर सूख कर काले हो चुके कनेर के फूल हवा में डोलते रहते थे. 

मैं एक चबूतरे पर बस्ते का तकिया बनाकर लेटते हुए वन की तरफ कान लगाकर, इंतजार करने लगता था. एक ऐसे भौंरे को खोजता था जिसकी गुंजार, एक बार कुछ देर तक सुनाई दे जाए फिर उसकी भेंटती-बिछड़ती तान पर नींद और दुनिया में आवाजाही का रास्ता खुल जाता था. 

कुछ देर बाद कच्चे रास्ते पर दो भारी साइकिलों की खड़खड़ और सीटों के स्प्रिंग की चरमराहट सुनाई देती थीं. दूध बेचकर बाजार से लौटे दो पहलवान उतरते थे. वे धोती-कुर्ता उतारकर, लंगोट बांधने के बाद, बांस के झुरमुट से पत्तियां नोचकर अपने बाल्टे मांजने के लिए घाट की सीढ़ियां उतर जाते थे. लंगोट बांधते समय, वे पुछल्ले दांतों से पकड़ कर मुझे देखते, एक दूसरे को देखते और हंस पड़ते थे. रोज वह दो तरह का हंसना, वास्तव से कहीं अधिक तेज और देर तक मेरे भीतर बजता रहता था. उसमें गोंद जैसी कोई लिसलिसी चीज थी जो बहुत लोगों को आपस में चिपका सकती थी. 

अब भौरे- मधुमक्खियों की गुंजार में पानी और बाल्टों के बालू से घिसे जाने की आवाजें भी शामिल हो जाती थीं. कोई बैठे गले वाला कौवा चालू हो जाता या इमली के गलते कोटरों के आसपास लटके बंदर आपस में लड़ पड़ते तब खलल पड़ता लेकिन पेड़ों के बीच से ऊपर नीले आसमान चीलें दिखाई देतीं. वे इत्मीनान से डैने फैलाए गोल घेरों में स्कूल की परिक्रमा करती हुई आश्वस्त करतीं थी, बस जरा देर का झगड़ा है. अचानक तोतों का झुंड इमली पर उतरता तब भी वे इशारा करती थीं, अपनी हवा पकड़े रहो, लय न टूटने पाए.

पहलवान लोग धीरे-धीरे अपने बाल्टे, नपने और ढक्कन सूखने के लिए सीढ़ियों पर औंधाकर ऊपर आते. एक अरघे पर लटकती छोटी सी घंटी बजाते, टुन्न!. वे उसकी आवाज हवा में घुल जाने से पहले, एक भारी फावड़े से बारी-बारी अखाड़ा खोदने लगते. एक विशाल पहलवान की दोनों होठों के नीचे तक लटकती चौड़ी, अधपकी मूंछे थीं. हाथी जैसा पेट और हाथ-पैर थे. खाल भी हाथी जैसी ढीली और रोशनी सोखने वाली थी. अखाड़े की नरम मिट्टी में फावड़े के धंसने को उसका हांफना संगत देता लगता था. वह पसीना छलकने के बाद, अखाड़े के चारों ओर की मेड़ धसकाता हुआ एक छोटी सी दौड़ लगाता और कराहते हुए बैठक करने लगता था. उसकी सांसों से फिसल गई कराह इतनी महीन होती थी कि वह एक मल्ल के बुढ़ापे की गरिमा का निबाह करता लगता था. मैं नींद में जाने लगता.  

दूसरा पहलवान गठा हुआ, लकलक फर्रीबाज था. वह फावड़ा चलाते हुए हुंकारता था. उसकी जांघों, बाजुओं, सीने और नरम बालों से ढके गालों से लाल रोशनी फूटती लगती थी. वह बूढ़े की धसकाई मिट्टी समेट कर, एक हाथ ऊंची कुदान की चौरी बनाता. स्थिर, चमकीली आंखों से दस हाथ ऊपर इमली की डाल में बंधे एक लाल कपड़े को निशानेबाज की तरह देखता हुआ पेड़ों के अंधेरे में दूर तक उल्टे पांव चलता जाता था. मैं खुमारी से निकल कर, अधखुली आंखों से उसका रास्ता देखने लगता. थोड़ी देर तक बाजुओं पर थप्पी मारने की आवाज आती. वह दौड़ता हुआ आता, चौरी पर उछाल लेकर कलाबाजी खाते हुआ उड़ता, डाल में बंधे कपड़े को एक पैर के तलवे से छूते हुए हवा में दो गुलाटियां मारता और मिट्टी के फौव्वारे में आधे से अधिक झुककर खड़ा हो जाता. 

बूढ़ा बिना उसकी ओर देखे, थकी हुई आवाज में शाबासी देता, एक राम एक, बा पट्ठे बाह!

वे कम से कम दस फर्री की गिनती के बाद जोड़ करना शुरू करते थे. छोटा वाला अपनी कमान सी तनी देह पर मोंछू के वजन को साधते, ढोते हुए पैंतरे बदलता रहता. मोंछू को इसका अहसास कुछ समय लगता. वह बुदबुदाता ‘बुजरौ के’ और बाहर छिटक कर अपनी जांघ पर ताल ठोंकता, अचानक किसी दांव का आधा चलकर उसके पैर उखाड़ देता. फर्रीबाज बंदर की तरह लचक कर खुद को बचाता और काट का दांव दिखाने के लिए झपट्टा मारता. दस-बारह मिनट, दिमाग अपना काम करता रहता तब तक कुश्ती चिड़ियों की प्रणय कलह जैसी कोई चीज लगती फिर देहें स्वतंत्र होकर जोम में अपनी चालें चलने लगतीं. पशुओं की लड़ाई शुरू हो जाती. 

क्लासरूमों से आता बहुत धीमा, लहरदार शोर सुनाई देना बंद हो जाता. बूढ़े को गिरा देना करतब था लेकिन चित्त करना असंभव था. छोटे को अपनी पकड़ में रखना हैरानी थी, वह मछली की तरह फिसलने के बीच में एक नया दांव चल देता था. उनकी देहों पर पत्तों से छन कर आते धूपिया चकत्तों से उठती, कसमसाती, फुफकारती सांसे सुनते हुए पूरा स्कूल एक जंगल लगने लगता जहां यही दांवपेंच एक बिल्कुल दूसरी भाषा और व्याकरण में सिखाए जा रहे थे. छात्रों को उन्हें एक दूसरे पर फिर दुनिया में जो सामने पड़ जाए, उसे पछाड़ने के लिए इस्तेमाल करना था. 

नदी की बिछलती लहरों पर बहुत दूर, अचानक कोई नाव दिख जाती. उस पार के रेतीले विस्तार में कोई टिन की छत चमक उठती. ‘अगर कोई बडा कलाकार इसी दृश्य को ऐसा ही पेंट कर दे तो!’ वह कलाकृति कितनी महंगी बिकेगी, कितनी प्रशंसा मिलेगी. एक उदासी घेरने लगती कि पास जाते ही सुंदरता की पोल खुल जाएगी. मल्लाह पुलिस को महीना और गुंडों को सबसे अच्छी मछली का हिस्सा देने का रोना रोता मिलेगा. उस टिन की छत के लिए लाठियां चल चुकी होंगी. अब मुकदमा चल रहा होगा. हर आदिम-बनैली चीज को एक मोहक भ्रम में लपेटा जा चुका है, और अधिक लपेटा जा रहा है. बहुत धुंधला सा आभास होता कि यही मनुष्य की बनाई सबसे बड़ी चीज हो सकती है. शायद इतिहास-सभ्यता-संस्कृति या गर्व करने लायक समझा जाने वाला सबकुछ मोटा-मोटी यही है. फिर अच्छा क्या है. इस लपेट का विरोध करना ?…करके देखो, हर जगह से लात मारकर बाहर कर दिए जाओगे. 

दिमाग थक जाता. नींद आने लगती.

कभी पहलवान नहीं आते. वन के बीच से, नदी में आकर मिलने वाले नाले में किसी मरे जानवर की दुर्गंध कुछ ज्यादा महसूस होती. गिद्धों और कुत्तों की अंतहीन लड़ाई की आवाजें गुनूदगी में घुसकर उत्पात करती रहती. इमली पर तोतों के बौखलाए झुंड आड़ा-तिरछा-उल्टा लटक कर चीखते रहते. बिच्छू या गोंजर के खोखल को घसीट कर, चबूतरे की दरार में ले जाती चींटियों की पलटन को रास्ता देने के लिए लेटने की जगह बदलनी पड़ती तब बहुत संतोष होता था. ‘अच्छा, तो यही प्रकृति है जिसमें मैं, पहलवान, स्कूल, समाज सब शामिल हैं’. 

कभी ओफा में इक्का-दुक्का लड़के भटक कर चले आते. मुझे लार बहाते बेसुध सोया देखकर हंसते. हंसते ही जाते, “हई देक्खा! लगत हौ नया बियाह भयल हौ. आज राति क मशीन चलल हौ.” (तब हाईस्कूल-इंटर तक विवाह हो जाना आम बात थी और दिन में सोना भी नवविवाहितों का एक लक्षण हुआ करता था.)

कोई दुनियादार लड़का कहता, “जाए दा मरदे, हमहन से का मतलब जे जइसन करी वइसन पाई, अगले साल बोर्ड हौ.”

“हां, तब खूब सुत्ता भइया, तकिया अउर बेना लेके परीक्षा देवै सेंटर पर जइहा.”   

जोड़ करके थक जाने के बाद दोनों खुद को गदरन तक मिट्टी में तोपकर अखाड़े में लेट जाते. यह उनका दुक्खम-सुक्खम का समय होता. एक दिन बूढ़े ने कहा, “हमार छोटका ठकुरन के दांजा-रीसी में का जाने कहां से एक ठे कट्टा कीन के ली आयल हौ. हम सोचलीं कि पुलिस से फंसावय बदे कउनो देहले होई. बेटाराम के मार देहली, बहुत मरान. पनरहियां भयल तब से माई, मलकिन सबसे बोलाचाली बंद हौ.”

फर्रीबाज ने अलसाई आवाज में कहा, “जाए दा, एह उमिर में हाथ मत चलावल करा. आजकल क लड़का खतरनाक हो गयल हउवें. समइए अइसन आय गइल. ताकत शरीर से निकल के मशीन में जाय रहल बा. ट्रैक्टरय देख ला. ओतना खेत केहू हर-बरधा से जोत पाई?”

“तब!”

“अब असली पहलवान इ कट्टा वाला हउवें. हमहन ना हईं. धीरे से निकाल के देखाय देत हउवें बड़-बड़ चंदगीराम क हावा सरक जात हौ.”

“कहो, इ मसीनियों त अदमिए न बनावत हउवंय?”

“अरे अदमिन क का कहनाम. बेलबाटम अउर बूट बदे खेत रेहन रखात हौ. अदमिए न सूई मारत हउवें. ओहू से ना पूरा परत हौ त निरमा बेचत हउवें.”

“तोहार मन बेलबटमिया कय ना करत?”

“करय ला काहे ना बाकी बड़ी लाज लगय ले.”

बूढ़ा मुंह फेरकर, एक गीत गाने लगा जो धोबिया नाच में सुनाई पड़ता था- तीन पौवा कपड़ा में बिलाउज बन जाता सारी देहियां छोड़ के जोबनवय तोपाता. अब ध्यान जाता है कि लंगोट का भी वही मतलब है जो इस गीत में ब्लाउज का बताया गया है.

दिन के कामों की याद करते हुए, चलने के लिए एक दूसरे का बेमन से निहोरा करने के बीच में फर्रीबाज हड़बड़ा कर उठता और मिट्टी झाड़ते हुए घाट की सीढ़ियां उतरने लगता. कुछ देर बाद उनींदा बूढ़ा, ख़ड़ा होकर एक बेल के पेड़ से अपनी पीठ रगड़ने लगता. वह हाथी की तरह झूमते हुए, धक्कों से पूरा पेड़ दलकाता, पपड़ी हो चुकी मिट्टी छुड़ा डालता. 

सरसों के तेल से मुलायम हुई पीली धूल में अपने पैरों की छाप देखते और एक तरफ संगमरमर की तरह चिकने हो चुके उस पेड़ को महसूस करते हुए मुझे कई बार लगा कि कुश्ती का सबसे बड़ा सुख यही है. 

दोनों गंगा-नहान और सुरुजनरायन को जल चढ़ाने के बाद, एक पुरानी डोरीदार थैली में से शीशी निकाल कर सरसों का तेल पोतते. शीशे के एक टुकड़े में देखकर माथे, गले और भुजाओं पर चंदन लगाते, कंघी करते, कपड़े पहनते. कानी उंगली उठाकर, महुए के पत्ते में बंधे चौघड़े की सींक खींचते हुए एक-एक बीड़ा पान खाते और अपनी तर्जनियों पर चूना अटका कर चल पड़ते. 

आपस में फुनगियां जोड़कर धनुष बनाते पेड़ों के बीच के लंबे रास्ते पर, देर तक बाल्टों की खड़खड़ और स्प्रिंगों की मचर-मचर लहराती रहती.

उनके जाने के बाद, गिलहरियों के चंचल वार्तालाप के बावजूद कुटिया उजाड़ हो जाती. मैं भी नदी में मुंह धोता, कपड़े झाड़ता, बस्ता संभालकर लंगड़ू साहेब की क्लास करने चल देता था. उनका नाम बद्रे आलम था, हम लोगों को अंग्रेजी पढ़ाते थे. यह नाम कुछ सम्मान, कुछ बालकोचित दया से लिया जाता था. वह सीढ़ियों पर एक टांग से फुदकते, नक्काशीदार छड़ी टेकते हुए आते थे. जाड़े में बंद गले का भूरा सूट और बाकी दिनों में बांग्ला कुर्ता पहनते थे. क्लीनशेव्ड, नाजुकमिजाज और कविता के रसिया थे. वे क्लास में अभिभूत होकर दौड़ना, छलांग मारना, नाचना चाहते थे लेकिन लाचार हो जाते थे क्योंकि छोकरों ने अंग्रेजी का मुंह अभी छठवीं से देखना शुरू किया था. वे अभी अंग्रेजों के नामों, स्पेलिंग और उच्चारण की विचित्रता पर खिलखिला और हैरान हो रहे थे. कोई स्नेह से रसमय, विराट और कुछ अज्ञात का साझा करना चाहता है लेकिन जरा सा पकड़ में आता है, बाकी सब गदेलेपन के कारण छूट जाता है- इसी कसक के साथ हम लोग रोज लंगड़ू साहेब का इंतजार करते थे. 

इसके बाद विज्ञान के घंटे थे जो भौतिकी और रसायन में बांटकर सुखसागर और नउवा मास्साब पढ़ाते थे. पता नहीं बांभनों के प्रबंधन वाले स्कूल मे आत्मविश्वास कुचला गया था या पहले से जर्जर था लेकिन वे दोनों तनाव में तेजी से खुद ही बोलते, खुद ही सुनते और समझते थे. उनकी एक आंख छात्रों के मनोरंजन के काम आती थी और एक दरवाजे पर लगी रहती थी कि अगर प्रधानाचार्य सुधाकर मिसिर आकर कोई काम बता दें तो वे साइकिल उठाकर चंपत हो जाएं.

तभी फील्ड में गुदगुदाने वाला, एक मीठा धमाका होता जो डायाफ्राम को कुछ ऊपर उठा देता था. पम्म!!! पम्म!! पम्म! 

यह फुटबाल की पुकार होती थी. पहले पहुंच गए लड़के हाईकिक मारकर टाइम पास कर रहे होते थे. 

चौड़ी जांघों वाला रियाजुद्दीन बहुत अच्छा ड्रिबलर और मिडफिल्डर था. वह स्कूल से थोड़ी दूर पम्पकैनाल पर एक अस्थाई नौकरी करता था. शायद वाचमैन था क्योंकि उसने एक चौपाई बनाई थी-‘नींद, नारि, भोजन परिहरहीं ते नर नहर में नौकरी करहीं’. वह जानबूझ कर जोर जोर से चिल्लाता ताकि लड़के क्लास से भागकर आएं. क्रास पहनने वाला एक ईसाई लड़का था जो हमारा एक्सपर्ट पेनाल्टी शूटर था. बाहर की टीमों को सबसे भ्रमित करने वाला खिलाड़ी मेरा लेफ्टफुटर दोस्त मुरली था क्योंकि वह लंगोट के ऊपर गमछा बांधकर खेलता था लेकिन मिडफिल्ड से सीधे गोल मार सकता था. वह गंगा के बालू में खेलता था, स्कूल के मैदान पर उसकी दौड़ने और शूट करने की क्षमता ड्योढ़ी हो जाती थी. 

गेंद की धमक के बाद मुझसे रहा नहीं जाता था. मैं फिर सीने पर बस्ता दबाए सरक लेता. बाहर चश्मुद्दीन नंदलाल गुप्ता का बिजनेस चरम पर होता था. मैं उससे नजर मिलाने से बचते हुए फील्ड किनारे बस्ता फेंक कर खेलने लगता. थोड़ी ही देर में घास की महक, गेंद पर सही कोण से पैर लग जाने पर होने वाली प्रफुल्ल सनसनी और अचानक तेज दौड़ने से उठने वाली हंसुली की गरमाई के आगे भूख भूल जाती. छह-आठ महीने में एक बार पीटीआई जुगलकिशोर, हम लोगों को स्कूल के पास की एक दुकान पर ले जाकर एक-एक बरफी खिला देते थे. 

फील्ड में, मेरे दिमाग में एक गाना म्यूजिक के साथ चलता रहता था…लैला मैं लैला ऐसी मैं लैला हर कोई चाहे मिलना मुझसे अक्केला! मैं चौंककर आगे-पीछे देखता लेकिन वह रिक्शा कहीं नजर नहीं आता जो इस्टमैन कलर के मारधाड़, संगीत, मनोरंजन से भरपूर महान पारिवारिक चित्र का प्रचार करता था. कस्बे में अभी-अभी पहला सिनेमा हाल खुला था. कुर्सियों की जगह पटरे थे. सिक्का फेंकने पर परदे में आग लग जाने की अफवाह थीं. टिन की छत थी जिस पर बंदरों के कूदने के कारण डॉयलाग नहीं सुनाई देते थे. क्लास का एक लड़का जयशंकर, नीतू सिंह का बहुत बड़ा फैन था. कोई फिल्म नहीं छूटने पाती थी. बॉयलोजी के शिवेंद्र मिश्रा गुरुजी कहते थे, ‘अगर उसने अपनी मां का दूध ठीक से पिया होता तो अन्य अभिनेत्रियों की तरफ भी ध्यान जाता’. 

थोड़ी ही देर बाद, फील्ड के किनारे रखे बरसाती पुल के पीपों के बीच से वह रिक्शा सड़क पर जाता दिखाई देता. एक गोले से सामने रखी दो बैसाखियां और एक सूखे हाथ में जलती सिगरेट दिखाई देती. दूसरे गोले से अमिताभ बच्चन की तरह बालों से कान ढांपे एक आदमी दिखाई देता. तीसरे गोले में वह गायब हो जाता और माइक पर उसकी सनसनीखेज आवाज सुनाई देती. थोड़ी देर में ज्यादातर खिलाड़ी यही गाना गाने लगते थे जो वह खुद को आराम देने के लिए पूरे साल बजाया करता था. मैं इलाहाबाद में पैलेस, प्लाजा, चंद्रलोक जैसे सिनेमा हालों में हो आया था. वहां फिल्म देखने से अधिक रोमांचक टिकट-खिड़की का सिनेमा था. पहले लड़कों की गिनती करके चंदा होता था. कपड़े उतार कर सिर्फ चड्ढी में दो या तीन टिकट निकाली जाती थी. उसे ब्लैक किया जाता था. फिर कोई जांबाज चड्ढी में भीड़ के ऊपर रेंगता हुआ जाकर खिड़की की छड़ तब तक नहीं छोड़ता था जब तक सबके लिए टिकट नहीं मिल जाती थी. 

और यहां सिनेमा देखने वालों को बुलाने के लिए डुग्गी पिटवाई जा रही थी. कहा जाता था कि जब फिल्म का प्रिंट घिसकर बिल्कुल बेकार हो जाता है तो सैदपुर भेज दिया जाता है.

खेल कितनी भी देर चल सकता था क्योंकि स्पोर्टस के स्टोर की चाभी रियाजुद्दीन के पास रहती थी. पसीने से छकाछक, लौटते हुए मुन्ना के बेयरिंग श्रृंगार की दुकान पर बैठकर दीन-हीन हो चुके ‘आज’ अखबार में राशिफल के साथ फैटम और जादूगर ली मैंड्रेक की कार्टूनस्ट्रिप देखी जाती थी. खेल और फिल्म के पन्ने आत्मसात करते हुए हफ्ते में एक दिन बल्ब में बैठे सरदार जी का कॉलम ‘ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर’ पढ़ा जाता था.

इसके आगे नौ किलोमीटर का रास्ता था. गांव पहुंचने तक संदेहास्पद देरी हो चुकी होती थी. जाड़े में तो अभियोग जैसा चांद निकल आया होता था.


[लेखक की तस्वीर बहुत ज़िद के बाद लेखक के ही हवाले से]

Share, so the world knows!