[कवि ज्ञानेंद्रपति की ये बेहद नई कविता मांगने में हम कुछ हिचक रहे थे. केवल एक अनुरोध पर उन्होंने उदारता दिखाई. और लीजिए, कविता सामने हैं. जो साफ़ करती है कि मानवीय सूचकांक, प्रशासनिक पैमाने के सबसे निचले हिस्से में है. हम कवि के आभारी.]

जल में कुंभ, कुंभ में जल है, बाहर-भीतर पानी
फूटत कुंभ, जल जलहिं समाना, यह कथ बूझै ग्यानी
— सुनी तो थी संत कवि की यह गूढ़ बानी
लेकिन यहाँ, प्रयाग के संगम-तट जुड़े इस महाकुंभ में
जहां देश के कोने-कोने से आये बटुरे थे
धर्म-भीरु श्रद्धालु
शुभ मुहूर्त में पावन स्नान को अधीर
समुद्र-मंथन के सार-रस की अमृत स्मृति संजोये
मन-कुंभ में
पहुँचते टोलियों में
टेसन और बस-अड्डों से संगम तक पैदल
प्रशस्त मेला-क्षेत्र में
ठाठदार टेण्टों और सुरक्षित छावनियों के सामने से निकलते
माथे पर गठरी, हाथ में थैला सँभाले, सहेजे कलेवा
गाँव का चिवड़ा सत्तू चना-चबेना
और एक जोड़ा कपड़ा, अँगोछा और एक चद्दर
रेती पर बिछा, पौढ़ जाने के लिए
ओढ़े हुए कंबल तले गिठुर
अपनी अस्थियों की मज्जा में घुलाये आस्था अकूत
वे ही भोले भले जन, निश्छल भारतीय
श्रेष्ठिजनों की स्नान-सुविधा के लिए
उन्हें ही बरजने को
प्रशासकों-व्यवस्थापकों द्वारा लगाये
बल्लियों बाँसों अवरोधों को
कूद-फाँद लाँघ
संगम-तट की रेती तक अधरात पहुँच, श्रान्त
लेटे हुए बिताते शेष रात माघी अमावस की
झलफलाह की प्रतीक्षा में
कि औचक उमड़ती और भीड़ मचाती भगदड़
जिसमें बेबस कुचले जाते जाने कितने लोग
सी सी टी वी कैमरों की सतत निगरानी में
प्रशासन की अंधतावश, बेशक
जिसे केवल महाजनों की परवाह
जो जीवन-कुंभ फूट गए असमय
जिनका जीवन-जल संगम के नीलधवल पानी में
घुलना-धुलना चाहता
रेती में बरबस सूख गया
असंख्य का हिस्सा थे जो कल तक
अब उनमें कुछ केवल संख्या
और अधिकतर असंख्या हैं
अस्पताली और सरकारी विज्ञप्तियों में
मौतों के छुपाये गये आँकड़ों के बीच से
घुटी आवाज में
परिजनों प्रियजनों को पुकारते
सरकारी विज्ञापन-भोजी मीडिया के बधिर हुए कानों तक
नहीं पहुँचती उनकी आवाज
जिसकी ओर निर्दय पीठ फेर रखी है
संगम में
मीडिया-मंडलित महिमा-मंडित डुबकी लगाने आने वाले
धर्म-भोगी शासकों और शोषकों ने।