“सारी मूर्खताओं और धूर्तताओं के ख़िलाफ़ खड़ा होना हमारा फ़र्ज़ है”

आख़िरी बातचीत : विष्णु खरे से अविनाश मिश्र

कहीं कोई तरतीब नहीं

वह जो एक बुझता हुआ-सा कोयला है
फूंकते रहना है उसे
हर बार राख उड़ने से
जिससे भौंह नहीं आंख को बचाना है
वह थोड़ा दमकेगा
जलकर छोटा होता जाएगा
लेकिन कोई चारा नहीं फूंकते रहने के सिवा

ताकि जब न बचे सांस
फिर भी वह कुछ देर तक सुलगे
उस पर उभर आई राख को
यकबारगी अंदेशा हो लम्हा भर तुम्हारी सांस का
अंगारे को एक पल उम्मीद बंधे फिर दमकने की

इतना अंतराल काफ़ी है
कि अप्रत्याशित कोई दूसरी सांस जारी रखे यह सिलसिला

— विष्णु खरे की एक कविता ‘सिलसिला’

यह संवाद आरंभ हो इससे पूर्व यहां विष्णु खरे (9 फ़रवरी 1940 – 19 सितंबर 2018) का स्मरण आवश्यक है. यह कहना संभवतः उचित न हो कि वह चाहते थे कि यह बातचीत उनके देहांत के बाद प्रकाशित हो, लेकिन यह कहना उचित है कि वह चाहते थे कि यह साक्षात्कार उनका आख़िरी साक्षात्कार हो. इस प्रक्रिया में कई लम्हे ऐसे आए, जब उन्होंने इस आशय के स्पष्ट कथ्य कहे. लेकिन यह उल्लेख भी ज़रूरी है कि इस साक्षात्कार का यहां प्रस्तुत स्वरूप आख़िरी होते हुए भी आख़िरी नहीं है. इसका यह स्वरूप ‘पहल’ की पृष्ठ-सीमा का ध्यान रखते हुए तैयार किया गया था, जहां यह दुर्भाग्य से प्रकाशित नहीं हो सका, क्योंकि ‘पहल’-संपादक ने इसे चार जगहों पर संपादित करने का प्रस्ताव रखा. इस प्रस्ताव के अस्वीकार में यह प्रस्तुति अंतिम और अविकल है. लेकिन इसमें अनुवाद, पुरातत्व, मिथक, क्रिकेट, सिनेमा, संगीत, हिंदी फ़िल्म गीत-संगीत, बेरोज़गारी, परिवार और प्रेम पर किए गए कुछ प्रश्नों और उनके उत्तरों को शामिल नहीं किया जा रहा है. इनके साथ गतिशील जीवन और साहित्य यहां मूल में हैं. विष्णु खरे की अनुपस्थिति में व्यर्थ के विवादों से बचने के लिए इस साक्षात्कार में उनके कहे कुछ आपत्तिजनक वाक्यों और शब्दों को यहां हटाया गया है, लेकिन वे कहां और क्या रहे होंगे इसके इशारे और अनुमान के लिए उस जगह को [***] से संकेतित किया गया है. दो प्रश्न जिनके उत्तर विष्णु खरे ने रिकॉर्ड न करवाकर, लिखकर देने के लिए कहा था, वे उनके उत्तरों के अभाव में इस प्रकार हैं :

1. व्योमेश शुक्ल के पहले कविता-संग्रह ‘फिर भी कुछ लोग’ (2009) के लिए लिखते हुए आपने एक युवा रचनाकार के लिए तीन ज़रूरी चीज़ों का ज़िक्र किया है—प्रिकॉसिटी, एजेंडा और पोलेमिक. इससे बहुत पहले अवधेश कुमार के पहले कविता-संग्रह ‘जिप्सी लड़की’ (1980) पर लिखते हुए आपने कहा था :

‘‘यदि मुझसे पूछा जाए कि आज की कविता में क्या देखा जाना चाहिए तो मैं कहूंगा कि आदमी के अस्तित्व और उसके सामने खड़े सारे संकटों को लेकर चिंता और प्रतिबद्धता, मानव होने के रोमांचक मामले में गहरी दिलचस्पी, जीवन और रिश्तों के अनंत वैविध्य को लेकर उत्सुकता, और इस सबको अपनी भाषा और शैली में कह पाने की क्षमता.’’

आपकी नज़र में इस सदी में उभरे वे कौन-से हिंदी कवि हैं जो आपकी इन शर्तों/बातों पर खरे उतरते हैं?

2. आप यों मानते रहे हैं कि हिंदुस्तान का एक और बंटवारा होगा. क्या आपके लिए आज भी यह जान पाना कठिन ही है कि प्रबुद्ध मुसलमान ‘कुरआन’ और नबी के बारे में क्या सोचता है. इस्लाम, इस्लामी राजतंत्र और इस्लामी फंडामेंटलिज्म में वह क्या संबंध देखता है?

यह बातचीत साल 2017 के अक्टूबर-नवंबर में संभव हुई. इसका शुरुआती हिस्सा दिल्ली में और बाक़ी का मुंबई में रिकॉर्ड हुआ. इस बीच यत्न यह रहा कि इसका शिल्प आत्मकथा/जीवनी का शिल्प रहे और विष्णु खरे के पूर्व-साक्षात्कारों की छायाएं इस पर न पड़ें.

विष्णु खरे के कई कथ्यों को हिंदी-वृत्त में पूर्वाग्रहग्रस्त, ईर्ष्यायुक्त और कुंठाजन्य मानकर त्याग देने की प्रवृत्ति रही है. यह बहुत मुमकिन है कि प्रस्तुत साक्षात्कार का पाठ भी इस प्रवृत्ति के अंतर्गत किया जाए. लेकिन विष्णु खरे ने अतिरेक की दाल को कभी पूर्वाग्रह, ईर्ष्या और कुंठा से नहीं छौंका, इसलिए उनके अतिरेकों में कालापन क़तई नहीं है, वे सच्चाई के स्वाद से भरे हुए हैं. उनसे कभी किसी का असली रूप छुपता नहीं था और यह जांच इसलिए यक़ीन के योग्य होती थी, क्योंकि वह ख़ुद को इसके ऊपर या बाहर नहीं रखते थे. उन्हें सुनना आनंद और करुणा से एक साथ भरना था. वह इस मामले में बुद्ध जैसे लगते हैं. उन्हें कान देकर उनके विचार-प्रवाह में बहना हिंदी में ज्ञान पाने की सबसे सरलतम विधि थी, लेकिन बहुतों के लिए उन तक पहुंचना चाह कर भी कभी आसान नहीं रहा. उन्हें ज़्यादा से ज़्यादा सुन लेने की ज़रूरत से यह संवाद उत्पन्न हुआ. इसके पहले प्रश्न से पहले उनकी एक कविता ‘पाठांतर’ यहां द्रष्टव्य है :

उम्र ज़्यादा होती जाती है
तो तुम्हारे आस-पास के नौजवान सोचते हैं
कि तुम्हें वह सब मालूम होगा
जो वे समझते हैं कि उनके अपने बुज़ुर्गों को मालूम था
लेकिन जो उसे उन्हें बताते न थे
सो वे तुमसे उन चीज़ों के बारे में पूछते हैं
जिन्हें तुम ख़ुद कभी हिम्मत करके
लड़कपन में अपने बड़ों से पूछते थे
और तुम्हें कोई पूरा तसल्लीबख़्श जवाब मिलता न था
फिर भी उतनी व दूसरी सुनी-सुनाई बहुत-सी बातें
प्रचलित रहती ही थीं
और अलग-अलग रूपांतरों में दुहराई जाकर
वे एक प्रामाणिकता हासिल कर लेती थीं
सो तुम भी उन कमउम्रों को कमोबेश वही बताते हो
अपनी तरफ़ से उसे कम से कम अविश्वसनीय बनाते हुए
उस यक़ीन के साथ जो
एक ख़ालिस लेकिन लंबी बतकही पर आश्रित रहता है
और वे हैरत में एक दूसरे को देखते हैं
और तुम्हें काका या दादा संबोधित करते हुए
आदर से बोलते हैं कि आपको कितना मालूम है
अब तो इससे चौथाई जानने वाले लोग भी नहीं रहे
आपसे कितना कुछ सीखने-जानने को है—
और अचानक तुम्हें एहसास होता है
कि जो तुमने उन्हें बताया उसे अपनी सच्चाई बनाते हुए
जब ये लोग अपने वक़्त अपने नौजवानों से मुख़ातिब होंगे
तो तुम जैसों को हवाला बनाकर या न बनाकर
वही दुहरा रहे होंगे
जो तुम्हें अनिच्छा से बताया था तुम्हारे बुज़ुर्गों ने
अपने बड़ों से उतनी ही मुश्किलों से पूछकर
लेकिन उस पर एक अस्पष्ट यक़ीन करके
और उसमें अपनी तरफ़ से कुछ भरोसेमंद जोड़ते हुए—
इस तरह धीरे-धीरे हर वह चीज़ प्रामाणिक होती जाती है
और हर एक के पास अपना उसका एक संस्करण होता है
उतना ही मौलिक और असली
और इस तरह बनता जाता होगा वह
जिसे किसी उपयुक्त शब्द के अभाव में
परंपरा, स्मृति, इतिहास आदि के
विचित्र किंतु अपर्याप्त बल्कि कभी-कभी शायद नितांत भ्रामक
नामों से पुकारा जाता है

विष्णु खरे से अविनाश मिश्र की बातचीत

वेनिस में पक्षियों को दाना खिलाते विष्णु खरे

‘लौटना’ आपकी कविता-सृष्टि में बहुत है. अगर मैं बहुत पीछे लौटने को कहूं तो आप कहां जाकर रुकेंगे? या इसे यों भी पूछने को दिल चाहता है कि अगर आप अपनी आत्मकथा लिखना शुरू करें, तब सबसे पहले आपको क्या याद आएगा?

मैं आत्मकथा लिखना ही नहीं चाहता हूं, क्योंकि वह बहुत लंबी हो जाएगी और जीवनी मेरी कोई लिख नहीं सकता, क्योंकि अपने बारे में कुछ ज़रूरी दस्तावेज़ मैंने नष्ट कर दिए हैं. मेरी ज़िंदगी के कुछ फ़ेजेज हैं. एक फ़ेज है—मेरे जन्म से लेकर मेरी पंद्रह वर्ष तक की उम्र का. यह छिंदवाड़ा फ़ेज है. इसके बाद छिंदवाड़ा छूट जाता है. वहां जाता हूं, लेकिन वह छूट चुका है. इसके बाद जो फ़ेज है, उसे खंडवा फ़ेज कह सकते हैं, जहां मैं चार साल रहा और जहां से मैंने बी.ए. किया. इसके बाद फिर एक अजीब फ़ेज है जिसे मैं इंदौर-रतलाम फ़ेज कह सकता हूं. मैंने दो वर्ष इंदौर में रहकर एम.ए. किया और पत्रकारिता की. इस दरमियान ही एम.ए. का रिजल्ट आया और चूंकि मैं मेरिट में था, मुझे यक़ीन था कि सरकारी नौकरी मिल जाएगी. लेकिन सरकारी नौकरी मिलने से पहले मैंने गुजराती कॉलेज में पढ़ाना शुरू कर दिया था. इससे पहले मैंने नगर निगम इंदौर में अपर डिवीजन क्लर्की भी की, क्योंकि पिता ने अचानक पैसे भेजने बंद कर दिए थे.

ये नौकरियां स्थायी तो नहीं होंगी?

अरे, नगर निगम वालों ने मुझे छोड़ने से इंकार कर दिया. मुझे बताया गया कि जिस बूढ़े की जगह पर तुम काम कर रहे हो, वह रिटायर होने वाला है. उसके बाद जो तुम्हारा टॉप अफ़सर है, वह भी रिटायर होने वाला है. लेकिन क्या अजीब काम था वह. मेरे पास एक बड़ा मैदान था—क्रिकेट के मैदान की तरह. उसमें नगर निगम की सारी सामग्री पड़ी रहती थी—सफ़ाई की. मैं उसका इंचार्ज था. मैं लीव वेकेंसी पर था, लेकिन पैसा बहुत था. 180 रुपए अगर उस ज़माने में आपको मिल जाएं तो यह एक बड़ी बात थी. बहरहाल, इसके बाद सरकारी नौकरी का अप्वाइंटमेंट आ गया और मैं चला गया रतलाम. रतलाम में मैं रहा 1967 तक. यह फेज़ डबल और मिक्स्ड फेज़ है. जीवन जो है, वह इसके बाद शुरू होता है, यानी एम.ए. के बाद या कह लें नौकरी लगने के बाद या कह लें मेरे विवाह के बाद. यहां से जीवन शुरू होता है. मैं इसे ऑपरेटिव जीवन कहूंगा, जहां जीवन जीवन हो चुका, जहां से चीज़ें शुरू होती हैं और आपको आदमी बनाती हैं, गृहस्थ बनाती हैं, आपको बड़ी समस्याओं में डालती हैं.

आपकी शादी कितने वर्ष की उम्र में हुई?

सत्ताईस वर्ष का था मैं. इसकी एक अलग कहानी है. मेरी शादी का बहुत विरोध था. मेरी पत्नी एक बहुत सुंदर लड़की थी. वह मेरी छात्रा थी और बहुत सारे लड़के उसके प्रेम में थे. वह मेरी जाति की नहीं थी, लेकिन यह मुख्य वजह नहीं थी—विरोध की. इस विवाह का कॉलेज के लड़के बहुत विरोध कर रहे थे. कॉलेज प्रशासन को भी लगता था कि एक सरकारी मुलाज़िम को, कॉलेज के अध्यापक को यह नहीं करना चाहिए. लेकिन यह कोई चारित्रिक पतन तो था नहीं. मैं शादी कर रहा था, लड़की के घरवालों को यह स्वीकार था, फिर इसमें दूसरों की छाती क्यों फट रही थी? दरअसल, पूरा सरकारी तंत्र इसमें शामिल था. इस वजह शादी के बाद मैं निकाला गया रतलाम कॉलेज से, ट्रांसफर हुआ, क्योंकि परमानेंट हो चुका था, इसलिए तबादला ही किया जा सकता था.

सुधा खरे और विष्णु खरे का विवाह

वहां से कहां गए आप?

रामपुरा.

रामपुरा इतनी ख़राब जगह थी कि क्या कहूं. हालांकि वह वोहरा समाज का तीर्थ है. वहां बड़ी आबादी वोहरा समाज की है. वोहरे एक बिल्कुल बंद शहर में रहते हैं. इस शहर में ग़ैर-वोहराओं का प्रवेश निषेध है. तब भी था, अब भी है. वे बेहद अमीर लोग हैं और इसलिए उन्हें परवाह नहीं है संसार की. ख़ैर, रतलाम से मैं फेंका गया रामपुरा. रामपुरा की एक और क्वालिफ़िकेशन है जो उसे कुछ और डिफ़ाइन कर सकती है, वह यह है कि रामपुरा में उस ज़माने में किसी भी मकान में संडास नहीं हुआ करता था, और अगर आप किसी मकान में किराएदार हैं तो आपको अपने पास ख़ुद का एक घड़ा रखना पड़ता था जिसमें आप पाखाना करते और उसे बाहर फेंक कर आते थे—अक्सर सड़क पर. घर के बाहर मैदान में शौच करना मैंने पहली बार जीवन में रामपुरा में ही सीखा. लेकिन मैंने फ़ैसला कर लिया था कि मुझे यहां रुकना नहीं है. मैं रामपुरा से निकलने के बारे में बराबर सोच रहा था. तब तक साहित्यिक दुनिया में लोग मुझे जानने लगे थे. मैं दिल्ली जाता-आता रहता था. प्रभाकर माचवे साहित्य अकादेमी में थे, भारतभूषण अग्रवाल थे… ये लोग प्यार करते थे मुझसे. मेरे अनुवाद विदेशों में प्रकाशित होने लगे थे, यहां तो होते ही थे. मैं अंग्रेजी से एम.ए. हूं, इसका एक अलग रोब था उन दिनों—दिल्ली में.

दो साल हो चुके थे भारतीय ज्ञानपीठ की स्थापना हुए और माचवे जी के संबंध बहुत अच्छे थे ज्ञानपीठ से. ज्ञानपीठ तब कलकत्ता में हुआ करता था. वहां से माचवे जी को एक चिट्ठी आई—ज्ञानपीठ के सर्वेसर्वा लक्ष्मीचंद जैन की कि हमें एक ऐसा नवयुवक चाहिए जो साहित्य जानता हो और अंग्रेज़ी अच्छी लिखता हो… तो जिस पोस्ट पर आज मंडलोई (लीलाधर) है, उस पर मैं था—1967 में. लेकिन ‘ज्ञानोदय’ का संपादक रमेश बक्षी था. मैं साढ़े पांच सौ रुपए की सेलरी पर कलकत्ता गया था. मकान उन्होंने वहां मुझे ज्ञानपीठ के दफ़्तर में ही दे दिया था. साहू शांतिप्रसाद जैन की कोठी का आउटहाउस था वह. वह तब जिंदा थे. समीर जैन तब बहुत छोटा हुआ करता था. ख़ैर, मैं बन गया अवार्ड ऑफ़िसर. मेरा काम संसार भर में जो नोबेल पुरस्कार विजेता हैं, उन्हें चिट्ठियां लिखना था कि आप हमारे सम्मान समारोह में आइए, और भी कई काम थे मेरे पास. एक काम तो ऐसा था मेरे पास जिसके लोग लाखों रुपए दे देते.

क्या?

मेरा एक काम था रोज़ सुबह उठकर अंग्रेज़ी के सारे अखबार साहू शांतिप्रसाद जैन को उनके सामने बैठकर सुनाना. मैंने यह काम किया. ‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ के मालिक को अख़बार सुनाए और अच्छे सुनाए. यह मेरी ड्यूटी-शीट में शामिल था, और यह इतनी बड़ी पोज़िशन थी कि मैं कुछ भी कर सकता था. अगर मैं एक साल और काम कर लेता वहां तो मैं चला जाता बेनेट-कोलमैन, अमेरिका. लेकिन मैं कुछ वजहों से वहां रह नहीं पाया.

प्राग में विष्णु खरे

एक सवाल आपसे अक्सर पूछा जाता है कि आप आई.ए.एस. में क्यों नहीं गए.

हां. इसकी वजह है कि मेरे पिता के पास पैसे नहीं थे. आप आई.ए.एस. की तैयारी रतलाम में रहकर नहीं कर सकते. इसके लिए दिल्ली या इलाहाबाद जाना पड़ता है. मुझे सत्तर रुपए पिता बहुत मुश्किल से भेज पाते थे. वैसे मैंने एक बार बुलाए थे अनसॉल्व्ड पेपर. वह बी.ए. ऑनर्स लेवल के थे और बी.ए. ऑनर्स सिर्फ़ दिल्ली या इलाहाबाद में होता था. मैंने इसलिए कभी कोशिश ही नहीं की. मैं हो ही नहीं पाता और इसके पीछे सिर्फ़ आर्थिक कारण थे.

कलकत्ता के बाद आप फिर रतलाम आ गए.

हां. मुझे कलकत्ता में अपना और अपनी पत्नी का कोई भविष्य नज़र नहीं आया. कलकत्ता तब भी मरे हुए हिंदी लेखकों का शहर था, आज भी है. मुरदार हैं साले सब के सब. [***] एकदम बोगस. उन्हें थर्ड रेट भी नहीं कह सकते, इतने ख़राब हैं.

अलका सरावगी?

अलका की बात अलग है. वह तब थी कहां.

लेकिन आप तो आज की बात भी कर रहे हैं?

कुछ अपवाद हैं, होंगे.

अशोक सेकसरिया?

ख़ैर, वह तो अलका के गुरु ही थे. उन्होंने बहुत लिखा भी नहीं है, जितना लिखा अच्छा लिखा है. लेकिन उन्हें कलकत्ता की मेनस्ट्रीम का लेखक नहीं कह सकते. कलकत्ता की मेनस्ट्रीम में एक से बढ़कर एक बेवकूफ़ लोग हैं.

आपका यह कहना शायद माइग्रेट होकर कलकत्ता गए हिंदी लेखकों के लिए नहीं है?

हां. वे तो कुछ भी नहीं हैं वहां पर. कलकत्ता एक तरह से हिंदी लेखकों का मुर्दाघर है. वहां रमेश बक्षी मध्य प्रदेश से गया था और वह वहां जाकर संपादक हुआ ‘ज्ञानोदय’ का—शरद देवड़ा के बाद. रमेश ने बहुत बढ़िया निकाला था ‘ज्ञानोदय’.

रमेश बक्षी बतौर लेखक आपको कैसे लगते हैं?

मुझे अच्छे लगते हैं. फर्स्ट रेट नहीं हैं, लेकिन सेकेंड रेट भी नहीं हैं. वह फर्स्ट और सेकेंड के बीच में कहीं है. वह बोहेमियन था. उसने अपनी बीवी को छोड़ दिया था. उसका बेटा भी था उससे. क्या-क्या नहीं हुआ रमेश के जीवन में. बहुत बड़ा लड़कीबाज़ था वह. सड़क चलते लड़कियों को पकड़ लेता था. [***] वह कलकत्ता में अपनी बड़ी मां के पास रहता था और सत्यजीत रे के घर उनसे मिलने पैदल जाता था. रमेश और मैं एक तरह से दोनों इंदौर के थे. वह हिंदी में फर्स्ट क्लास फर्स्ट आया था. अच्छा कहानीकार तो वह था ही. हम दोनों ही शराब पीने वाले व्यक्ति थे. हमने बहुत अजीब जगहों पर साथ-साथ शराब पी. कोढ़ियों और किन्नरों के बीच भी हमने शराब पी. रमेश को शायद यह मालूम नहीं था कि मैं उससे बहुत पहले बोहेमियन हो चुका था. अगर तुम मेरे विद्यार्थी जीवन और इंदौर के दिनों के बारे में सुनो तो तुम्हें वह सब कुछ बहुत भयंकर लगेगा.

बताइए…

जब मैं कॉलेज में लेक्चरर हुआ तब मेरी दोस्ती ज्यूडिशियरी के लोगों के साथ थी. मैं उनके साथ उठता-बैठता था. वह एक अलग और बहुत बीहड़ जीवन था. वे रोज़ की दारू-पार्टियां और बढ़िया खाना. बहरहाल, बाद में रमेश मुझे बहुत पहुंचा हुआ समझने लगा. वह बहुत उच्चवर्ग का ब्राह्मण था. मैं बोहेमियन था, लेकिन कुछ मामलों में रमेश मुझसे भी आगे का बोहेमियन था. [***] रमेश एक वास्तविक विद्रोही था. वह राजकमल चौधरी टाइप था. राजकमल जितना ब्रिलिएंट नहीं था, लेकिन बाद में हो भी गया था. कहानी के इलाक़े में उसने धर्मवीर भारती, मोहन राकेश और कमलेश्वर को टक्कर दी. इस वजह से उसकी नौकरी भी गई, कहा गया कि निकालिए इस लड़के को, यह बहुत गड़बड़ करता है.

बॉन में सुधा खरे के साथ विष्णु खरे

खंडवा के अपने दिनों के बारे में कुछ बताइए.

वे दिन भी बड़े बीहड़ हैं. वहां हम नदी किनारे जाकर शराब पीते थे. जैसे मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ में एक डोमाजी उस्ताद है, वैसे ही मध्य प्रदेश के हर शहर में एक गुंडा हुआ करता है. खंडवा में भी था एक. दाम्या नाम था उसका. वह पहलवान भी था. गुंडे अक्सर पहलवान और पहलवान अक्सर गुंडे होते ही हैं. ख़ैर, ‘दारू पीना सीखना है अब’ यह सोच खंडवा में मेरे भीतर पनपने लगी थी. लेकिन दारू पीना मैं स्कूल में ही सीख चुका था. अरुण कांगो नाम का मेरा एक दोस्त था स्कूल में, वह अब पुणे में रहता है. उसके जीजा पंडित जवाहरलाल नेहरू के प्लेन के मैकेनिक थे. नेहरू जी उन्हें अपने साथ लेकर विदेश जाते थे और वह स्कॉच वग़ैरह लाते थे वहां से. यह 1956 के दिनों की बात है. वह पहले अपने ससुर साहब को देते थे, जो कि शौक़ीन थे. बाक़ी इसके बाद फिर हम लोगों के लिए जूठन वग़ैरह बचती थी. कभी रेड वाइन आ रही है, कभी स्कॉच मिल रही है—छोटी-छोटी शीशियों वाली… यानी दारू पीना मैंने संसार की कुछ अच्छी शराबों से सीखा है. इसके बाद जब कॉलेज में आए, तब तो बस दारू पीना ही है.

बहरहाल, जो दाम्या उस्ताद थे वह कहते थे कि जाओ नदी के पास बोतलें रखी हैं, जाओ सालो और एक ही बोतल उठाना, नहीं तो हाथ-पैर तोड़ दिए जाएंगे. हम जाते और अपनी बोतल लेकर आते और देशी शराब पीते. यह मेरे विद्यार्थी जीवन की बात है. तब मैं बी.ए. नहीं था, लेकिन टी.एस. एलियट की लंबी कविता ‘वेस्टलैंड’ का अनुवाद कर चुका था. फिर इंदौर आए, वहां विदेशी छोड़कर सारी अच्छी शराबें मिल जाती थीं. इंदौर में मैं और जयप्रकाश चौकसे पार्क में बैठकर शराब पीते थे. छह रुपए में जिन का क्वार्टर आता था. पचास रुपए में विह्स्की की बोतल आती थी. पचास रुपए बहुत होते थे तब.

खंडवा में मेरे एक दोस्त थे—पुरुषोत्तम भास्कर किलास्कर. मुझसे सीनियर थे वह. मैं उनके छोटे भाई के साथ पढ़ता था. मेरी कंपनी हमेशा अपने से उम्र में बड़ों की रही है. मैं कभी अपने समकालीनों में रहा ही नहीं हूं. मैं उनको चूतिया समझता रहा हूं—गदहे. [***] दो साल सीनियर, चार साल सीनियर, समाज में दस साल सीनियर, बीस साल सीनियर… ये लोग मेरे दोस्त रहे हैं—छिंदवाड़ा से ही. मेरे बचपन में मेरा दोस्त एक ख़ूनी था. उसने बरछी से ख़ून किया था. उसका बहुत आतंक था. उसके नाम से लोग कांपते थे. उसकी एक आंख नक़ली थी. मैं उसके साथ रोज़ सुबह बैठकर चाय पीता था. बहरहाल, पुरुषोत्तम मुझसे दो साल आगे थे. जब वह लॉ करने गए इंदौर, तब मैं एम.ए. करने गया. उन्होंने एल.एल.बी. फर्स्ट क्लास किया और वह सिविल जज हो गए. मेरी नौकरी रतलाम में लग गई और इस तरह हम बिछड़ गए. रतलाम में जब मेरी नौकरी लगी, तब मैं जानता ही नहीं था कि रतलाम कहां है. हम महाकौशल के लोग हैं, रतलाम मालवा में है. मैंने पूछा रतलाम है कहां और पता चलने पर वहां जाकर ज्वाइन कर लिया और फिर लौटकर इंदौर आ गया और पुरुषोत्तम के तबादले तक उसके साथ सरकारी क्वार्टर में रहा. उस दुनिया में भी शराब बहुत थी.

दुपहर में भी पीते थे आप लोग?

नहीं, दुपहर में नहीं.

बीयर भी नहीं?

नहीं, बीयर में मुझे कभी मज़ा नहीं आया.

नापसंद है आपको?

वह आपदधर्म की तरह है.

फिर…

फिर मैं तीन बरस पुरुषोत्तम के साथ रहा. मैं शहर के सारे सरकारी अफ़सरों को जान गया था, क्योंकि वे पुरुषोत्तम को जानते थे, इसलिए मुझे भी जानने लगे. उनमें से कुछ तो मुझे भी जज समझते थे. उनके दिमाग़ में ही नहीं आता था कि एक जज की किसी नॉन जज से दोस्ती हो सकती है… तो ये तीन फेज़ हैं मेरी ज़िंदगी के.

अपनी छोटी बेटी के साथ विष्णु खरे

आप ग़ुलाम भारत में पैदा हुए. अपने जन्म के समय के बहुत सारे ब्यौरे आपने अपने आत्मकथ्य ‘मैं और मेरा समय’ में दिए हैं. जैसे :

‘‘1940 के उस चालीसवें दिन भी भारत ग़ुलाम था. विक्टर अलेक्जेंडर जॉन रोप, मार्क्वेस ऑफ़ लिन्लिथगो, भारत का वाइसरॉय और गर्वनर-जनरल था. हिटलर पोलैंड पर क़ब्ज़ा कर चुका था, उसके साथ संधिबद्ध सोवियत संघ स्तालीन के नेतृत्व में फिनलैंड पर हमला किए हुए था. पहली लड़ाई की तरह दूसरी लड़ाई में भी हिंदुस्तानी फ़ौजी मित्र-राष्ट्रों के लिए लड़ रहे थे—कुछ फ्रांस में तैनात थे. हिटलर ने यहूदियों का संहार शुरू कर दिया था. ब्रिटेन और फ्रांस ने अभी जंग का ऐलान नहीं किया था. गांधी कह रहे थे कि भारत ख़ुद फ़ैसला करेगा कि उसकी ज़रूरियात क्या हैं, लेकिन लड़ाई को देखते हुए अभी सविनय अवज्ञा न करने का भरोसा भी दे रहे थे. नेहरू ने ब्रिटिश सरकार से कहा कि कोई रिश्ते नहीं रखे जाएंगे. एम. एन. रॉय ने कांग्रेस के अध्यक्ष पद का चुनाव न लड़ने का फ़ैसला दिया. जिन्ना की पाकिस्तान की मांग ज़ोर पकड़ चुकी थी और कुछ नेता उसका विरोध भी करने लगे थे.

बड़ी मंडियों में उस दिन तैयार गेहूं का भाव 3 रुपए 1 आने मन था. चांदी जो पिछले बरस 52 रुपए 5 आने 6 पाई सेर थी, वह 56 रुपए 6 आने हो गई थी. सोना पिछले बरस के 37 रुपए 3 पाई तोले से बढ़कर 42 रुपए 4 आने 3 पाई पर चल रहा था. अहमदाबाद में आम हड़ताल थी, लेकिन सेंट्रल प्रॉविंसेज में बस कर्मचारी काम पर नहीं आए थे, इसलिए छिंदवाडा से नागपुर-जबलपुर मोटर यातायात 64 था. ‘अछूत’, ‘जवानी की रात’, और ‘पुकार’ रुपहले पर्दे पर कामयाबी हासिल कर रही थीं. संभ्रांत दर्शक ‘मिस्टर स्मिथ गोज टू वाशिंगटन’, ‘द्विजर्ड ऑफ ऑज’, ‘कन्फैशंस ऑफ ए नात्सी स्पाई’ और मार्क्स ब्रदर्स की ‘एट दि सर्कस’ देख रहे थे. नागपुर यूनिवर्सिटी के उस साइंस ग्रेजुएट को यह सब पता था या नहीं, कह नहीं सकते, लेकिन किसी तुफ़ैल में उसकी दिलचस्पी हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में थी. 9 फ़रवरी 1940 को, जिस दिन सूर्योदय 7.11 को हुआ और सूर्यास्त 6.36 को, जब शाम 7.10 को वह दुबारा एक बेटे का बाप बना तो उसने उसका नाम अपने प्रिय गायक विष्णुपंत पागनीस से मिलता-जुलता रखा.’’

यह लंबा उद्धरण यहां यह सहूलियत देता है कि यह कहा जा सके कि आपने ‘देखने’ पर सदा बहुत ज़ोर दिया है. इस साक्षात्कार को ले रहे व्यक्ति ने जब 2007 की एक सर्द दुपहर में आपसे यह जानना चाहा था कि कविता लिखने के लिए सबसे ज़रूरी क्या है? तब आपने उस ठीक से युवा भी नहीं हुए कवि से कहा था—‘देखना’. आपको देखते और कविता लिखते हुए एक उम्र हो गई है. ग़ुलाम भारत से आज़ाद भारत में आज़ादी मांगते हुए युवाओं की इस नई सदी तक आप आ गए हैं. आपका देखना इस बीच कैसे-कैसे प्रभावित हुआ है?

इस प्रश्न की व्याख्या अपने आप में एक आत्मकथा हो जाएगी. मेरी ज़िंदगी का यह सबसे त्रासद पक्ष है कि जब मैं केवल छह साल का था, तब मेरी मां की मृत्यु हो गई. मां की स्मृतियां बहुत कटी-छंटी और सलेक्टिव हैं. मां की मृत्यु के बाद मेरी दोनों बुआओं की मृत्यु हुई. मेरे बारह साल के होते-होते औरतें हमारे परिवार से एकदम साफ़ हो गईं. औरत नाम की चीज़ ही नहीं बची. मेरे पिता संसार के सबसे चुप्पे लोगों में से एक थे. तुम जिसे मेरा ‘देखना’ कह रहे हो, वह इस सबके बीच शुरू हुआ और समझ में आया कि यह दुनिया क्या है और किस तरह आप इसमें अकेले और अलग पड़ जाते हैं. यह जो सुलूक करती है आपके और आपके परिवार के साथ और इसमें जो आपका शहर बदल रहा है, आस-पास के लोग बदल रहे हैं. मैं थोड़ा आगे जाऊं तो कह सकता हूं कि जब मैं छिंदवाड़ा छोड़कर गया, तब तत्काल छह या सात रोज़ बाद कुछ करने के लिए लौटा. मैंने देखा कि मैं वहां एलियन हो गया हूं. मैं कुछ भी नहीं हूं अब. कुछ हूं ही नहीं मैं. यह मेरे लिए एक बड़ा भारी ऑब्जर्वेशन था कि कैसे आप अपनी आइडेंटिटी खो देते हैं और कैसे उसे पुन: अर्जित करना पड़ता है और कैसे वह ज़्यादा प्रॉमिनेंट होती है और कैसे इसके लिए आपको अंदर जाना पड़ता है. दरअसल, बाहर की आइडेंटिटी कोई मायने नहीं रखती और अंदर की आइडेंटिटी बहुत पेनफुल होती है, क्योंकि वह हमेशा देखती रहती है कि आप क्या हैं, संसार की आंखों में आप क्या हैं, अब आप क्या हो गए, अब आप क्या नहीं रहे. इसलिए मैं कह रहा हूं कि दुनिया को लेकर मेरा अनुभव बहुत अजीब है. यह अनुभव नकारात्मक नहीं है, लेकिन मैं दुनिया को बहुत पहले पहचान गया था कि दुनिया कितनी निर्मम हो सकती है—आपको लेकर. मैं जब पिपरिया से छिंदवाड़ा लौटा, तब मैंने देखा कि अब तो मेरे लिए कुछ बचा ही नहीं है. मेरे दोस्त मुझसे बात करने नहीं आ रहे हैं. तब बचता कौन है—मुहल्ले की औरतें जो आपकी मां को जानती थीं. उनमें प्रेम है आपके लिए, लेकिन आपके दोस्त आपके साथ विश्वासघात कर गए हैं. आज अगर कोई मुझसे पूछे तो छिंदवाड़ा के कुछ लैंडस्केप्स के सिवा मेरी स्मृति में वहां का कुछ बचा नहीं है.

एक देखने का तरीक़ा मुझे खंडवा में भी मिला, जब मैं किशोर हुआ और समाज के और अंदर गया. तब मैंने ख़ुद को और समाज को एक अलग ढंग से देखा. जब मेरे पास पैसे आने लगे, तब मैंने दुकानदारों का, दोस्तों का और उनके परिवारों का सुलूक देखा. इसके बाद मैं जब मैं राजनीतिक हुआ, तब पार्टियों का सुलूक देखा. कम्युनिस्ट तो कोई था ही नहीं खंडवा में, शायद इकलौता कम्युनिस्ट मैं ही था. ख़ैर, मुझे धीरे-धीरे लगने लगा कि समाज के साथ बहुत समस्याएं हैं और मेरे साथ भी. दरअसल, यह समाज एक बीमार समाज है. तब इतना बीमार नहीं था, जितना आज हो गया है. अब तो समाज देखा नहीं जाता. तब समाज में प्यार था, प्यार करने वाले लोग भी थे. अब सब कुछ बिखर गया है.

नौकरी मिलने के बाद भी आपका देखना बदलता है. आपके अचानक कुछ रिश्तेदार हो जाते हैं और इससे आपका एक समाज हो जाता है और यह समाज आपको एक अलग नज़रिए से देखने लगता है. लेकिन समस्या यह है कि अगर आप एक लिखने-पढ़ने-सोचने वाले व्यक्ति हैं, तब समाज और आपका रिश्ता कभी सहज हो ही नहीं सकता, क्योंकि आप क्रिटिकल हैं हर वक़्त—समाज को लेकर. आपकी फैकल्टीज बंद नहीं हुई हैं. आप हर आदमी के बारे में कुछ और देख रहे हैं, जो कि वह दिखने में नहीं हैं. इस तरह देखने से आपको समाज का, अपने दोस्तों और रिश्ते-नातेदारों का एक बहुत ही अजीब रूप नज़र आता है. समाज खुलता है आप पर और आपको यह बताता है कि वह कितना निष्ठुर है. मैं समझता हूं कि देखने की यह जो प्रक्रिया है, एक ख़ास समय तक आपके साथ चलती है—आपके मुलाज़िम और आपके शादीशुदा होने तक. इसके बाद आपका देखना एक मक़ाम पर आकर बंद हो जाता है और समाज आपके ऊपर पूरी तरह से भर्राकर गिरता है.

गृहस्थी का बसाना भी आपको बदलता है, और समस्याएं पैदा करता है आपके सामने. आपका जो संबंध है अपनी पत्नी से, आपकी पत्नी का आपसे… यह आपके देखने पर असर डालता है. आपके बच्चे अगर हैं तो वे भी आपके देखने पर असर डालते हैं और उन्हें लेकर आपकी चिंताएं भी कि पैसे कहां से लाएं, मकान कैसे लें, इन्हें अच्छे से अच्छा कैसे खिलाएं, इनके बदन पर अच्छे कपड़े कैसे हों, इन्हें अच्छे स्कूल में कैसे भेजें, समाज में आपकी इज़्ज़त कैसे हो, समाज में आपकी बेइज़्ज़ती कैसे न हो… और फिर आप चूंकि पॉलिटिकल अवेयर भी हैं तो आपको लगता है कि समाज क्या कहेगा—यह जो शोषित समाज बैठा हुआ है, जो आपसे हज़ार गुना ज़्यादा बदहाली में है. मेरे पास अगर आज मुंबई में एक तीन बेडरूम का घर है, तो मैं कम से कम भारत के पनचानबे करोड़ लोगों से तो बेहतर हूं, अस्सी करोड़ मान लीजिए. यह बात जब आप जानते हैं, यह आपको परेशान करती है और एक राजनीति आपको खींचती है. अगर नहीं खींचती है तो आप वही होकर रह जाते हैं जो ज़्यादातर लोग हैं. आप दूसरी पार्टी, दूसरी विचारधारा की तरफ़ चले जाते हैं. मुझे क्या मतलब चालीस करोड़ ग़रीबों से, मेरा क्या संबंध है उनसे, मैं क्यों उनके प्रति ज़िम्मेदारी महसूस करता हूं, क्यों… क्यों… क्यों मैं रोता हूं उनके बच्चों को देखकर, उनकी तकलीफ़ सुनकर… यह है क्या? यह एक अलग देखना है. इसके बाद आपको तमाम मानवता दिखने लगती है कि यह जो भुखमरी का, अभाव का, बीमारियों का, मृत्यु और अकालमृत्यु का समाज है… यह क्यों है, और तुम्हारी समझ और प्रतिबद्धता से भी हो क्या रहा है? लेकिन फिर भी तुम्हें इस बात की तसल्ली है कि कम से कम तुम उन राक्षसों में से तो नहीं हो, जिन्हें इनके बारे में कुछ सूझता ही नहीं है. देखो, आज अगर मैं प्रतिबद्ध हूं तो मैं कर क्या पा रहा हूं! लेकिन यह एक राहत है मेरे लिए कि मैं इनके साथ हूं, वे जानें या न जानें, मुझे परवाह नहीं है उनकी, मुझे अपनी परवाह है—अपने ज़मीर की. मैं तो कुत्ते की मौत मर जाऊंगा, अगर मैं उनके बारे में न सोचूं. मेरी ज़िंदगी का एकमात्र मक़सद है यह. मानव-जीवन का भी एकमात्र मक़सद है यह कि आप इनके बारे में सोचें. बाक़ी मैं सारी निरर्थकता जानता हूं—मानव-जीवन की. मैं जानता हूं कि यह भी व्यर्थ है, लेकिन यह मेरे सामने है और मुझे खींचता है, मुझे तोड़ता है, बर्बाद करता है, तहस-नहस करता है मुझे, कभी एक पल चैन से रहने नहीं देता… इसका इतना असर है मुझ पर, इसलिए यह असल है और इसलिए मेरा इनके साथ होना असल है. ये देखने के सोपान हैं और मैं आज इस बिंदु पर बिल्कुल कन्विंस हूं कि मानव-जीवन का एकमात्र सत्य यह है कि आप मानव के साथ हैं या नहीं. भूल जाओ यह कि जीवन क्षणभंगुर है, वह तो है. अर्थहीन है… है हां है, तो! लेकिन मैं कह रहा हूं कि जिनके जीवन में यह अर्थ नहीं है, उनके जीवन का कोई अर्थ नहीं है. आप चाहे जितना दर्शन बघार लीजिए, अगर यह नहीं है तो कुछ नहीं है.

बड़ी बेटी अनन्या खरे और डुग्गी व बिंगो नाम से पुकारे जाने वाले अपने प्यारे कुत्ते के साथ विष्णु खरे

बचपन में किसी बीमारी की वजह से आपका गला बंद हो गया था और उससे आवाज़ बिल्कुल नहीं आती थी—लगभग सभी ने यह मान लिया था कि आप जीवन भर गूंगे रहेंगे, लेकिन आपकी मां के प्रयत्नों से आपको आपकी आवाज़ मिली—एक ‘बैठी हुई आवाज़’. यह आवाज़ आपकी विशेषता है. यह आवाज़ इसलिए भी अलग है क्योंकि यह बैठी हुई आवाज़ अपने समय-समाज में सब तरह के कदाचार, अन्याय, असमानता और शोषण के ख़िलाफ़ खड़ी हुई है. खड़ी बोली आपकी इस बैठी हुई आवाज़ से समृद्ध हुई है. इस आवाज़ के संघर्ष जानने की इच्छा होती है?

देखो, मुझे बचपन में स्मॉल पॉक्स निकल आई थीं. इसमें हुआ यह, होता ही है, कि मेरे पूरे बदन पर दाने निकल आए. मेरे साथ एक और बात प्रकृति ने की थी कि वे दाने सिर्फ़ बदन पर ही न रहकर, अंदर भी चले गए थे—गले में भी. वे लेरिंग में चले गए. लेरिंग्स में दो परदे होते हैं जिनसे हम बोलते और गाते हैं, आवाज़ वहीं से आती है. यह ह्यूमन बॉडी का साउंड-बॉक्स है. दाने मेरे दोनों लेरिंग्स पर हुए थे, लेकिन एक पर बहुत ज़्यादा हो गए थे. उन दानों ने मेरे साउंड-बॉक्स को बिल्कुल बेकार कर दिया. एक लेरिंग जो बची है, मैं उससे ही बहुत प्रयत्न करके बोलता हूं. हालांकि अब इसका इलाज आ गया है. जिस दिन फाइबर-टिफलॉन ईजाद हुआ, उस दिन ही इसका इलाज आया. ये बीमारी उस वक़्त लाखों लोगों को हुई थी. इस बीमारी के बावजूद मैं स्कूल और कॉलेज में डिबेटर रहा. मैं अंग्रेज़ी का अध्यापक रहा, लेकिन मजाल है कि कभी किसी ने मेरी टीचिंग का मज़ाक उड़ाया हो, कभी हूटिंग हुई हो. यह इस बात का प्रमाण है कि लोगों में टॉलरेंस कितना है! इतना टॉलरेंस मुझे मिलेगा, मुझे इसकी उम्मीद नहीं थी. लेकिन कभी किसी ने नहीं कहा कि साहब आपकी आवाज़ सुनाई नहीं पड़ रही. हां, यह ज़रूर है कि अगर यह बीमारी न हुई होती तो मैं एक बड़ा गायक होता, क्योंकि मेरे घर में गायन की परंपरा थी. मेरे पिता क्लासिकल गाते थे, यह अलग बात है कि वह बहुत अच्छे गायक नहीं थे. मेरे दोनों भाई—बड़े और छोटे—अच्छा गाते हैं. हमारे घर में हारमोनियम और बांसुरी जैसे वाद्य-यंत्र हुआ करते थे. पिता उन्हें बजाते थे.

कोलौं में विष्णु खरे

दिल्ली छोड़कर मुंबई में बसना और वहां से बराबर छिंदवाडा और दिल्ली लौटते रहना, इस आवाजाही की वजहें क्या हैं?

इस आवाजाही की वजहें बड़ी दर्दनाक हैं. जब हम दिल्ली छोड़कर मुंबई गए तब इसके पीछे दो वजहें थीं. एक तो मेरी छोटी बेटी ने शादी कर ली और उसके तत्काल बाद बड़ी बेटी ने भी. मेरी दोनों बेटियों ने विदेशियों से शादी की. छोटी वाली चली गई जर्मनी और बड़ी वाली चली गई अमेरिका. मेरा बेटा फ़िल्म वग़ैरह के लिए काम करता रहता है. उसने फ़िल्म डायरेक्शन में डिप्लोमा किया है. वह मुंबई में अकेला और मुसीबत में पड़ गया था. बेटी ने एक कुत्ता भी पाला हुआ था. वक़्त-बेवक़्त खाना, वक़्त-बेवक़्त आना-जाना… मेरे बेटे का स्वास्थ्य चिंता की चीज़ हो गया था. हमने मुंबई में रहने के लिए, दिल्ली वाला घर किराए पर भी उठाया, लेकिन उसे संभालना जटिल होता गया और हमें लगा यहां रहना बेकार है. बेटे के पास रहने के लिए हमने दिल्ली वाला घर बेचने का फ़ैसला किया, क्योंकि बेटा मुंबई में किराए के घर में रहता था. ख़ैर, कुछ महीने बहुत अच्छे कटे मुंबई में. पर तभी हमारे परिवार पर एक वज्राघात हुआ. हमारे दामाद को मल्टीपल स्क्लेरोसिस हुआ. इस रोग में धीमे-धीमे शरीर निश्चेष्ट होता जाता है. बग़ैर सहारे के रोगी उठ भी नहीं सकता. उसे चौबीसों घंटे नर्सों की ज़रूरत होती है. यह बीमारी मारती नहीं है, इसमें जीवन जारी रहता है, लेकिन शरीर जा चुका होता है. इस वजह हमारी बेटी अपने बीमार पति को लेकर भारत लौट आई. वह अच्छी अभिनेत्री है तो उसे यहां आते ही काम भी मिलने लगा. उसने एक अलग फ्लैट भी ले लिया जिसमें अभी मैं रहता हूं, क्योंकि जिस घर में दामाद है, वहां इतने नौकर आते-जाते हैं कि मेरे लिखने-पढ़ने का कोई काम हो ही नहीं सकता. मुझे एक पूरा कमरा चाहिए. मैंने सोचा मैं छिंदवाड़ा जाकर वहां काम करूंगा—एक अलग कमरा लेकर. लेकिन इस बीच हुआ यह कि मुझे पिछली जुलाई (2016) में छिंदवाड़ा में रात को तीन बजे हार्ट अटैक हुआ. उसके बाद पता नहीं तुम्हें पता है या नहीं कि मुझे मुंबई में 5 फ़रवरी (2017) को स्ट्रोक हुआ. इसमें व्यक्ति को बजाय दिल के दिमाग़ का दौरा पड़ता है, और अगर यह बहुत गंभीर हुआ तो तत्काल आपको मार डालता है. इसके कई स्टेज होते हैं. मुझे फर्स्ट स्टेज वाला हुआ था. मैं ठीक भी हो गया, लेकिन डॉक्टरों ने कहा कि अब आप अकेले नहीं रह सकते, क्योंकि यह स्ट्रोक आपके घर में बैठा हुआ आपका सबसे बड़ा दुश्मन है. दिल का इलाज तो है, लेकिन इस दिमाग़ अब कोई इलाज नहीं. इसमें बहुत परहेज़ करना पड़ता है. भारत में प्रतिवर्ष क़रीब दस लाख लोग स्ट्रोक से मरते हैं. अब बताओ कि काम कैसे करूं, जब मैं अकेला ही नहीं रह सकता.

लेकिन यात्राएं तो अब भी आप ख़ूब कर रहे हैं?

हां, आख़िर डरकर मैं कब रक रहूंगा. मुझे अकेले रहकर काम करना ही होगा.

काम बहुत है?

हां, काम बहुत है. लेकिन लगता नहीं कि पूरा हो पाएगा. मेरी मृत्यु मुझे बहुत नज़दीक लगती है.

किस तरह के काम हैं आपके पास?

कई तरह के—आलोचना के, कविता के, फिक्शन के, अनुवाद के… और भी कई तरह के…

आपके अब तक के जीवन का सबसे ख़राब दिन कौन-सा है?

इसके लिए मुझे टेलीस्कोपिंग करनी होगी. दरअसल, मुझे मेरी मां की मृत्यु उतनी ख़राब नहीं लगती जितनी अपनी बुआओं की लगती है. मेरी मां चार लड़के पैदा करके और सुहागिन मरीं. वह अपने पति को देखकर मरीं. लेकिन मेरी बुआएं कुंवारी मरीं. मेरे जीवन के केंद्र में अगर कोई दुःख है तो वह मेरी बुआओं का दुःख है. मैं उन्हें रोज़ याद करता हूं. पता नहीं क्यों और कैसे मुझे रोज़ उनकी याद आती है. अगर मैं थोड़ा बड़ा होता तो मैं ग़ुलामी करके, किसी लौंडेबाज़ से गांड मरवाकर उन्हें पालता, उनकी शादी करवाता. यहां मेरे पिता की अपनी त्रासदी है कि उनकी दो जवान बहनें मर रही हैं और वह कुछ नहीं कर पा रहे हैं. उन्हें क़र्ज़ भी कौन दे. उनकी तनख़्वाह सिर्फ़ सौ रुपए. घर में बेचने के लिए भी सिर्फ़ बर्तन थे, क़ीमती कुछ भी नहीं था. यह 1950 के भी पहले की बात है.

और सबसे अच्छा दिन?

दो ही हो सकते हैं. एक मेरे विवाह का दिन और दूसरा दिल्ली वाले घर में आने का दिन. मेरी पत्नी ख़ुशी के मारे पागल हो गई थी उस दिन. उसे मैंने बताया नहीं था और उसे अपने घर में ले गया था.

सुधा खरे के साथ विष्णु खरे

अपनी एक कविता में आप कहते हैं : ‘हर आदमी का घर अक्सर सिर्फ़ एक बार ही होता है जीवन में.’ एक जीवन में एक ‘घर’ को कैसे देखते हैं आप?

मेरा घर तो छिंदवाड़ा वाला ही था. मेरा आज कोई घर नहीं है. उन घरों में जिन्हें मैंने बनाया और रहा, वे भी मुझे कभी अपने नहीं लगे. वे सब के सब फ्रेम्ड लगते हैं. वे मेरे बच्चों के घर हैं. मेरा घर अब मुझे कहां मिलेगा? उसकी गूंजें और पुकारें अब कहां मिलेंगी? वे आती ज़रूर हैं, लेकिन बहुत भयानक लगती हैं.

लेकिन क्या उस घर और जगह को छोड़ देना वहां रहने की तुलना में कम पीड़ादायक नहीं है, जहां आपकी मां और बुआएं गुज़रीं?

हां है, लेकिन मैं जाना फिर भी वहीं चाहता हूं.

क्या वह घर अब भी है?

नहीं, वहां अब एक गोदाम है. जाता हूं अब भी कभी-कभी उसे देखने.

अपने आत्मकथ्य में आपने कहा है कि आप तेईस की उम्र तक तीन कृपालु युवतियों से सफल प्रेम कर चुके थे. इन सफलताओं की स्मृतियां और अनुभव क्या अब तक शेष हैं?

वे प्रेम-संबंध एक साथ नहीं, एक-एक करके हुए थे. बहुत दूर तक बात गई थी और बहुत समस्याएं हुई थीं. मेरे मन में सदा से यह था कि मैं जिस स्त्री से प्रेम करूं, उसे केवल उसके शरीर के लिए अपने साथ न सुलाऊं. मैं उसमें एक पत्नी देखता था और इसलिए प्रेम-संबंध गड़बड़ हो जाते थे. उनके माता-पिता, उनके भाई और भय के मारे स्वयं वे भी इस बात के लिए राज़ी नहीं होती थीं. वे आपको छूने-चूमने दे रही हैं, यही उस वक़्त उनकी बहुत बड़ी कृपा थी.

चेकोस्लोवाकिया में विष्णु खरे

आपकी कहानियां क्या हुईं?

मेरे पास उनकी कॉपियां हैं. तुम्हें जानकर आश्चर्य होगा कि जब ज्ञानरंजन कुछ नहीं थे और राजेंद्र यादव, मोहन राकेश और कमलेश्वर उभर ही रहे थे, तब मेरी कहानियां प्रकाशित हो रही थीं. मेरी एक कहानी ‘कहानी’ पत्रिका की पहली कहानी के रूप में छपी थी—इस संपादकीय टिप्पणी के साथ कि इनका भविष्य बहुत उज्ज्वल है, ये बहुत आगे जाएंगे, क्योंकि अठारह वर्ष की उम्र में ही जब ये ऐसी कहानियां लिख रहे हैं…

यों कहा जाता है कि मैनेजर पांडेय ने आपकी तुलना एक ऐसे हाथी से की है जो किसी युद्ध में पलटकर अपनी ही सेना को रौंद देता है. यहां मेरा प्रश्न यह है कि आप किस सेना से संबद्ध हैं और आपके मार्फ़त घायल हुए सैनिकों के प्रति आपकी कितनी सहानुभूति है?

अव्वल तो इस बात की मुझे कोई जानकारी नहीं है, फिर भी अगर ऐसा कुछ है तो इसका यह अर्थ नहीं है कि मैं वैचारिक रूप से अपने पक्ष को डैमेज करता हूं. मैं अगर अपने पक्ष के किसी व्यक्ति की किसी किताब का रिव्यू करके उसे डैमेज करता हूं, तब यह तो मेरा अधिकार है. रही बात मैनेजर पांडेय की तो आधी कौड़ी की अक़्ल है उनकी. वह साहित्य समझते ही नहीं हैं. [***] नामवर सिंह के जूते साफ़ कर-करके वह आगे बढ़ गए हैं. बताइए कि उनका काम कहां है? इनके प्रिय बने रहने का सिर्फ़ एक तरीक़ा है, इनके पैर छुओ…

इस बात से जुड़ा हुआ एक प्रश्न आपसे यह है कि हिंदी में चरण-स्पर्श को आप कैसे देखते हैं. आपकी कविताओं में आपके चरण छूने वाले व्यक्तियों के प्रसंग कुछ जगहों पर आए हैं. ‘मुरीद’ शीर्षक एक कविता में इस क़दर : ‘कि हे भगवान मेरा दुश्मन बनने में अब वह कितना वक़्त लेगा.’ यह कहते हुए मुझे यह भी याद आ रहा है कि आपने एक बातचीत में बताया है कि आपने अपने जीवन में किसी को साहित्यिक गुरु नहीं बनाया, किसी का झोला उठाकर नहीं चले, सिर्फ़ दो-एक लोगों के (एक बार को छोड़कर) आपने आज तक किसी के पैर नहीं छुए.

इसकी वजह यह है कि मैं हिंदी का आदमी नहीं हूं. मैं अगर हिंदी से एम.ए. करता तब ये दुर्गुण मुझमें बहुत आसानी से आ जाते.

आपने लंबे समय तक हिंदी में पत्रकारिता की और अब भी कर रहे हैं, ज्ञानपीठ और साहित्य अकादेमी में भी रहे हैं, आप हिंदी के कवि-आलोचक हैं… कम से कम यह न कहें कि आप हिंदी के आदमी नहीं हैं.

मेरा मतलब मैं हिंदी विभागों का आदमी नहीं हूं.

आप कहना चाह रहे हैं कि यह चरण-स्पर्श की परंपरा का विकास हिंदी विभागों की देन है?

हां.

लेकिन पत्रकारिता के संसार में भी कई बड़े संपादक पैर छुआने में यक़ीन रखते हैं और रखते रहे हैं…

हिंदी में. यह सब सिर्फ़ हिंदी में है. मैं अंग्रेज़ी अकेडमिक और अंग्रेज़ी पत्रकारिता दोनों में रहा हूं. मैंने कभी किसी को किसी के पैर छूते, किसी को किसी से पैर छुआते नहीं देखा. यही बात झोला उठाने के साथ भी है. तुम देखोगे कि हिंदी में बड़े मेधावी छात्र भी चरण-स्पर्श को किसी दुर्गुण की तरह नहीं देखते. वे इसे गुरु-शिष्य परंपरा से जोड़ देते हैं. ऐसे वे बात द्रोणाचार्य-एकलव्य की करते हैं, लेकिन जब बात ख़ुद की आती है तो चुप रहते हैं.

आप इस चीज़ को जाते देख रहे हैं क्या?

यह चीज़ मुझे तब तक जाती हुई नहीं दिखती, जब तक हिंदी विभागों में ज़्यादा से ज़्यादा ग़ैर-सवर्ण, दलित और मुस्लिम अध्यापक नहीं आते… या बहुत मुमकिन है कि यह चीज़ शायद तब भी न जाए. हिंदू धर्म में सब क़िस्म के एस्केप हैं. जहां दरवाज़ा नहीं है, यहां वहां भी दरवाज़ा निकल आता है. बेसिकली एम.ए. हिंदी की पूरी टीचिंग एक हिंदू टीचिंग है. इसके पीछे पूरी सवर्ण हिंदू मानसिकता है.

क्या एक रचनाकार के रूप में आपको आत्महंता होना ज़रूरी लगता है?

रचनाकार का पहला कर्तव्य होना चाहिए अपनी रचना को यानी अपने को बचाना. यहां बचाना कायरता के अर्थ में नहीं है. जैसे योद्धा जब रण में जाता है, तब वह मरने नहीं, मारने जाता है. वह आत्महत्या करने नहीं जाता है. उसकी अगर हत्या हो जाए तो और बात है, लेकिन मरना उसका एजेंडा नहीं है. साहित्य में भी आत्महंता जैसा कुछ नहीं है. साहित्य में ऐसे कौन-से मूल्य हैं, जिनके लिए आपको मरना पड़ेगा. दरअसल, सारी मूल्यनिष्ठता इसमें है कि मैं नहीं मरूंगा. मुक्तिबोध के यहां कभी मरने का ज़िक्र नहीं आता. मैं यह बताना चाह रहा हूं कि न तो किसी साहित्यकार को कायरता से जीना चाहिए और न ही उसे एक मॉर्बिड त्याग-परंपरा से प्रेरित होकर मरना चाहिए. एक अच्छे कलाकार का कर्तव्य जीवित रहना है. लड़ते-लड़ते मर जाने में तो फिर भी एक बात है, लेकिन लिखते-लिखते मर जाने से क्या होगा.

निराला की पंक्ति है ‘अभी न होगा मेरा अंत’, दूधनाथ सिंह ने जब निराला पर किताब लिखी तो उसका शीर्षक रखा—‘आत्महंता आस्था’. क्या निराला को आप आत्महंता मानते हैं?

मैं तो नहीं मानता. निराला सरीखा लड़ाकू तो और कोई नहीं था. ठीक है कि कभी-कभी बहुत लड़ने वाले में भी एक प्रकार का पैसिविज्म आ जाता है, लेकिन निराला में कभी इसे देखा नहीं गया.

‘देखता हूं/ आ रही मेरे दिवस की सांध्य-बेला’

यह और बात है, इसका कोई संबंध लड़ने या न लड़ने से नहीं है. यह बात हर कलाकार में नज़र आती है—कभी न कभी. हां, अगर तुम यह कहना चाह रहे हो कि निराला ने अपनी जीवन-शैली से, अपने त्याग से, अपनी लापरवाहियों से अपने आपको ख़त्म कर डाला, तब यह एक बिल्कुल दूसरी बात है.

आज से क़रीब दो दशक पूर्व प्रकाशित आपके एक साक्षात्कार की शुरुआत में इस बात का ज़िक्र है कि दो-तीन उपन्यास लिखना आपकी योजनाओं के केंद्र में है. वे उपन्यास कहां तक पहुंचे या कहीं नहीं पहुंचे?

कुछ उपन्यासों के नोट्स तो मैंने काफ़ी लिए हैं. लेकिन उपन्यास, या शायद हर विधा, के साथ यह समस्या है कि अगर आप उसे लगभग तत्काल न लिख लें, तब वह व्यर्थ है. मेरे कहने का आशय यह है कि कितना भी ख़राब क्यों न बने, तुरंत लिख डालो, छोड़ो मत. महान लिखने के चक्कर में रहोगे तो कुछ नहीं लिख पाओगे. कई थीम्स पुरानी पड़ जाती हैं, अगर वे उपन्यास में चली गई होतीं तो जीवित रहतीं. साहित्य कई चीज़ों को ज़िंदा रखता है—लेकिन ध्यान रखिए साहित्य. इसलिए मैं एक उपन्यास को पांच वर्ष का वक़्त देता हूं, ख़ुद को देता हूं, अगर इस अवधि के दरमियान मैं उसे नहीं लिख पाता… तब इसका अर्थ है कि मेरी थीम में कोई दम नहीं है या मुझमें ही कोई दम नहीं है. देखा यही जाएगा कि मुझमें ही कोई दम नहीं है.

हेमिंग्वे ने कहा है कि हमें किसी विषय पर लिखने में न तो बहुत जल्दबाजी करनी चाहिए और न ही बहुत देरी… और मार्केज ने कहा है कि मेरी ऐसी किसी चीज़ के बारे में लिखने में कभी रुचि ही नहीं रही जो वर्षों मेरी उपेक्षा को सह न सकती हो. अगर वह विचार ‘वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलीट्यूड’ की तरह पंद्रह वर्ष, ‘ऑटम ऑफ द पैट्रिआर्क’ की तरह सत्रह वर्ष और ‘क्रॉनिकल आफ अ डेथ फोरटोल्ड’ की तरह तीस वर्ष मेरे दिमाग़ के कोने में टिका रह सकता है तो फिर मेरे पास लिखने के अलावा कोई चारा नहीं बचता.

हां, यह भी सही है. मेरे पास कुछ बने हुए उपन्यास पड़े हुए हैं, जिन्हें एक लास्टिंग कृति में मुझे टर्न करना है और यह मुझसे हो नहीं रहा है. यहां फिर वही सवाल है कि या तो इन उपन्यासों में कोई दम नहीं है या मुझमें ही कोई दम नहीं है. इसलिए आपको अपनी रचना-प्रक्रिया और क्षमता का ध्यान रखना पड़ता है. लिखने को आप थर्ड रेट चीज़ लिख सकते हैं, जैसी आजकल अंग्रेज़ी में लिखी जा रही हैं. वे भी फर्स्ट रेट हो सकती थीं, लेकिन उन पर मेहनत नहीं की गई. मेहनत जो चार साल, पांच साल, दस साल… किसी चीज़ पर की जाती है.

‘सत्य शायद जानना चाहता है/ कि उसके पीछे हम कितनी दूर तक भटक सकते हैं’ ‘सत्य’ शीर्षक कविता में आईं आपकी इन कविता-पंक्तियों के इशारे से पूछूं तो आप सत्य के पीछे कितनी दूर तक आ गए हैं?

इस प्रश्न के उत्तर में मुझे इस गर्वोक्ति से बचना होगा कि मैं सत्य के बहुत क़रीब आ गया हूं और इस गर्वोक्ति से भी कि सत्य को किसने देखा है. क्योंकि सत्य के बारे में अगर यह सत्य भी पा लिया गया कि सत्य को पाना कठिन है, लेकिन उसे पाने प्रयत्न को खोना नहीं चाहिए तो यह भी सत्य ही है. जैसे मेरी जिस कविता का तुम ज़िक्र कर रहे हो, और जो ‘महाभारत’ के एक प्रकरण से ली गई है, उसमें युधिष्ठिर और द्रोण भाग रहे हैं. वे थक जाते हैं और एक पेड़ की छाल से बदन टिका लेते हैं कि अब आगे नहीं भाग सकते. सत्य भाग रहा है, लेकिन वे और भागते तो मारे जाते. एक तीर निकलता और युधिष्ठिर के बदन में समा जाता. दरअसल, सत्य का भागना सत्य की बदमाशी है. यह सत्य की शरारत है कि मैं तेरे हाथ नहीं आऊंगा. लेकिन अगर आप उसके पीछे भाग रहे हैं, थके नहीं हैं, बज़िद हैं और आपका एक संकल्प है तो सत्य भी भाग-भागकर थकता है. इसका अर्थ है कि सत्य को आपने काफ़ी कुछ पा लिया है अब. इतना पा लिया है कि सत्य को अब रास्ता नहीं है. वह आपसे दूर जा सकने की अपनी संभावनाएं खो चुका है या खोने वाला है या खो रहा है. अब वह सब कुछ निकालकर आपको दे देता है, यह कहकर कि मैं नहीं जानता यह क्या है जो मेरे बदन से निकल रहा है. यह अब तेरा है तू संभाल. तू समझ कि यह सत्य है या नहीं. इसलिए सत्य को उतना ही पाया जा सकता है जितना सत्य आपको वापस कर सके.

आपने एक बातचीत में यह स्वीकारा है कि जब-जब आपने अशोक वाजपेयी का विरोध किया, उन्होंने आपको नुक़सान पहुंचाया और आपसे गिन-गिनकर बदले लिए. इस बीच अशोक वाजपेयी ने कुछेक अपवादों को छोड़कर लगभग समूचे हिंदी साहित्य संसार को अपनी सत्ता के आगे कृतज्ञ और नतमस्तक कर दिया है. उनसे उपकृत और उनके उपांग आज पहले से कहीं ज़्यादा बढ़ गए हैं. वह मौजूदा और केंद्रीय सत्ता के सबसे बड़े ‘प्रतिरोधी स्वर’ बनकर भी उभरे हैं. वह पहले की तुलना में अब बहुत लोकतांत्रिक और उदार भी दृश्य हो रहे हैं और अपने दंभ की आत्मकेंद्रीयता में श्रेष्ठताओं के बीच औसतताओं को खपा देने का हुनर भी उन्होंने विकसित कर लिया है. ऐसे में आपकी क़रीब दो दशक पुरानी वह भविष्यवाणी ग़लत साबित हुई है जिसमें आपने कहा था :

‘‘अशोक की जो स्थिति है, वह मेरे मन में क्रोध नहीं करुणा उपजाती है. मुझे वह किसी दु:खांत नाटक के नायक की तरह ही ज़्यादा लगते हैं जो धीरे-धीरे अपने अंत की ओर बढ़ रहा है. …अशोक इस सारे जंजाल में बहुत अकेला छूट जाने वाला है. निराशा में सिर धुनता हुआ अपने एकांत में पड़ा एक नायक जो ख़ुद अपने बनाए जाल में क़ैद हो गया हो. …मुझे अशोक की स्थिति कुछ-कुछ महाभारत के दुर्योधन की आख़िरी स्थिति जैसी लगती है जो मंत्रबिद्ध जल में पड़ा है और सोच रहा है कि दुनिया सिर्फ़ इतनी ही है.’’

देखो, मैं इसका श्रेय लेना नहीं चाहता, लेकिन मेरे इस उद्धरण की मूल भावना का असर अशोक पर बहुत हुआ है. मैं यह नहीं कह रहा हूं कि मैंने अशोक को बदला है, लेकिन उसने इन बातों को समझा है. उसे लग गया कि वह एक बहुत ग़लत कुचक्र में है जो मुख्यतः उसका ही बनाया हुआ है या लोगों ने उससे बनवा दिया है. अब वह इस कुचक्र से बाहर आ चुका है, लेकिन तब भी मेरे मन में यह संदेह उभरता है कि उसका कमिटमेंट वंचित समाज को लेकर आख़िर अब तक क्यों नहीं है. उसका एजेंडा मध्यवर्ग के आस-पास ही केंद्रित है. यह मूलतः कल्चरल एजेंडा है. यह राजनीतिक एजेंडा नहीं है. अशोक इस देश की राजनीति को बदलना ही नहीं चाहता है. उसने बस इस देश की मौजूदा राजनीति का एक लक्षण पकड़ लिया है—असहिष्णुता. अगर कुल-मिलाकर देखा जाए तो बात बस इतनी है कि जो लोग कला-संस्कृति के विरोधी हैं, वे अशोक के शत्रु हैं. वे लोग अगर अच्छी कला-संस्कृति करने लग जाएं तो अशोक को उनसे कोई दिक़्क़त नहीं रह जाएगी. कला-संस्कृति भी वैसी, जैसी अशोक करता है. उसकी कला-संस्कृति कोई प्रतिबद्ध कला-संस्कृति नहीं है. वह एक प्रबुद्ध बुर्जुआ है और कुछ नहीं. इससे आगे वह जा ही नहीं सकता, वह लाख शोर मचाए. वह जो भयानक इलाक़ा है प्रतिबद्धता का, वहां तक उसकी कोई रसाई ही नहीं है. क्या आज भी यह कहना मुमकिन है कि अशोक भारतीय मनुष्य के पक्ष में खड़ा है? यह कहना मुमकिन नहीं है, क्योंकि वह भारतीय एलीट के साथ खड़ा है. अशोक के मुंह से ‘दलित’ शब्द कब सुना गया है, कोई बता दे मुझे… उनकी फ़िक्रें कहां हैं उसके यहां…

‘आदमी’ की बात तो करते हैं.

‘आदमी’ तो बड़ी भारी संज्ञा है, स्पेस्फिक्स में जाना पड़ता है.

स्त्रियों की बात भी नहीं है उनके यहां.

हो ही नहीं सकती है. [***]

‘महाभारत’-प्रेम आपकी कविता-सृष्टि का एक अनिवार्य अवयव है. आपने ‘महाभारत’ को सारे समयों की केंद्रीय पुस्तक कहा है. ‘महाभारत’ तक आप कैसे गए?

इस प्रश्न से काफ़ी कुछ जुड़ा हुआ है. आज लोगों को यह पता नहीं है कि देश के हिंदू माइंड के मेकअप में ‘कल्याण’ नाम की उस पत्रिका बड़ा योगदान है जो गीता प्रेस, गोरखपुर से निकलती थी. गीता प्रेस ने ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ दोनों छापी हैं, लेकिन ‘कल्याण’ एक मासिक पत्रिका थी जिसके ग्राहक पूरे भारत में थे. वे ख़रीदकर उसे पढ़ते थे. ‘कल्याण’ संभवतः अपने समय की सबसे लोकप्रिय पत्रिका थी. वह डाक से घर-घर पहुंचती और पढ़ी जाती थी. परिवार के परिवार उसके सदस्य थे. वह एक बड़ी भारी सांस्कृतिक, धार्मिक और नैतिक भूख का शमन करती थी. ‘कल्याण’ हमारे यहां भी आती थी—डाक से. उस वक़्त सन् 1920-30-40-50 के दौर में वह पढ़े-लिखे घरों में आती ही थी. मेरे लिए मेरे घर में वह एक रीडिंग मैटेरियल थी—अपने दर्शन और मूल्यवान गल्प की वजह से. ‘कल्याण’ में होता यह था कि वर्ष की शुरुआत में कल्याणवाले कोई एक बड़ी किताब चुनते थे और उसका एक बड़ा हिस्सा साल के पहले अंक में विशेषांक के रूप में छापते और बाक़ी हिस्से अगले अंकों में. इस तरह आपको एक बड़ा ग्रंथ मिल जाता था और आप वर्ष ख़त्म होते-होते उसे पढ़ना चाहें तो पढ़ भी लेते थे. 1946 में ‘कल्याण’ के अंकों में इस प्रकार ‘महाभारत’ प्रकाशित हुई थी. मेरी मां की मृत्यु भी इस वर्ष ही हुई. मां की मृत्यु के बाद आपको एक ऐसी किताब का घर में मिलना, जिसे आप पढ़ने के लिए आज़ाद हों, जैसे वह आपके लिए ही भेजी गई हो… क्या कहूं तुम मुझे कहां ले गए हो… 1946 मेरे जीवन का सबसे महत्वपूर्ण वर्ष है. इस वर्ष जो ख़ला मेरी मां की मृत्यु ने मेरे जीवन में पैदा की, उसकी पूर्ति ‘महाभारत’ ने की. इस किताब ने मुझे स्नेह दिया, अब तक देती है.

अक्षय मुकुल की किताब ‘गीताप्रेस एंड द मेकिंग ऑफ हिंदू इंडिया’ क्या आपने पढ़ी है?

मैं उसे पढ़ना ही नहीं चाहता हूं.

हिंदी में आपके एक सच्चे और अनन्य प्रेमी के रूप में मुझे प्रकाश मनु का नाम बहुत शिद्दत से याद आता है. आपके अब तक के सबसे बेहतर और सबसे लंबे साक्षात्कार उन्होंने ही किए हैं. प्रस्तुत साक्षात्कार की तैयारी के दौरान आप पर केंद्रित किताब ‘एक दुर्जेय मेधा : विष्णु खरे’ पढ़ते हुए मुझे लगा कि प्रकाश मनु आपके पास श्रद्धा से भी जाते हैं, तर्क से भी जाते हैं, गर्व से भी जाते हैं और उल्लास से भी. आपके प्रति अपने लगाव और प्यार को वह बहुत खुलकर सार्वजनिक रूप से व्यक्त करते हैं. यह जानते हुए भी कि ‘एक दुर्जेय मेधा’ होने के बावजूद आपके प्रति अपनी सकारात्मक भावनाओं का इज़हार हिंदी संसार में अपने कई शुभचिंतक खोकर कई शत्रुओं का निर्माण कर लेना है. यहां आप प्रकाश मनु के बारे में कुछ कहना चाहेंगे?

प्रकाश मनु के मन में मेरे लिए जो कुछ भी स्नेह वग़ैरह है, उसे मैं आज तक समझ नहीं पाया हूं. वह मुझे क्यों इतना चाहते हैं, मेरी समझ से बाहर है. मैं इसे समझना भी नहीं चाहता हूं, क्योंकि इसे समझना इसे खो देना है. लेकिन प्रकाश मनु में एक अजीब सिफ़त यह है कि वह आदमी घंटों मेरे सामने बैठे रहेगा, क़लम-काग़ज़ कभी छुएगा नहीं, टेप-रिकॉर्डर कभी लाएगा नहीं और जब कहेंगे तब सारी बातचीत आपको लिखकर दे देगा… और यही नहीं बातचीत के वक़्त मेरे भाव कैसे थे, मेरी भंगिमाएं कैसी थीं, मैं हंसा कैसे, मैंने सोचा कैसे, मैंने कहां देखा… प्रकाश यह सब कुछ बातचीत के साथ लिखकर दे देंगे. यह बात मुझे बेहद चकित करती है. लेकिन मुझे इस बात की बहुत ख़ुशी है कि प्रकाश सिर्फ़ मेरे ही इतने क़रीबी नहीं हैं, मुझसे ज़्यादा वह देवेंद्र सत्यार्थी के क़रीबी रहे हैं और उन पर भी उन्होंने बहुत कमाल का काम किया है. ये सब आख़िर आज करता कौन है! मुझे इसलिए प्रकाश मनु बहुत मूल्यवान व्यक्ति लगते हैं… और फिर मैं तो उस सांप की तरह हूं जिसे कोई बीस फुट के डंडे से भी न छुए, फिर आख़िर प्रकाश मुझे इतना चाहते क्यों हैं! मैंने कभी उन पर कुछ लिखा नहीं. उन्होंने कभी इसकी कोई मांग भी नहीं की. एक गोष्ठी में ज़रूर उनके एक उपन्यास पर कुछ बोला हूं. उनके साथ एक बड़ी डिसएडवांटेज यह है कि उनमें भावुकता बहुत है. वह एक भावुक आदमी हैं. लेकिन उनका एक विद्रोही स्वरूप भी है. वह सही चीज़ों के लिए अड़ना जानते हैं. उनका फिक्शन मुझे पढ़ने और पसंद करने लायक़ लगता है. उनकी कविता भी कहीं-कहीं फ्लैश करती है आपको, लेकिन उनमें जो भावुकता का तत्व है, वह उन्हें कहीं रोक देता है—कवि होने से. उन्होंने आज की कविता के किसी मुहावरे को पकड़ा ही नहीं है. इस मामले में वह मलय की तरह हैं. उन्होंने एक ऐसा अजीब मुहावरा तैयार किया है कविता में, जिसे स्वीकृति अब तक नहीं मिली है. इस वजह उनका कवि, उनके उपन्यासकार से ज़्यादा अलक्षित रह गया है. प्रकाश मनु की विनम्रता भी उनके बहुत आड़े आती है. वह कभी-कभी कठोर भी हो जाते हैं, लेकिन सिर्फ़ दूसरों के लिए—एक अलग प्लेटफॉर्म पर. उनकी क्रिटिकल फैकल्टीज और जजमेंट्स लोगों के बारे में बहुत स्पष्ट हैं. यह विचित्र बात है कि आलोचना उन्होंने बहुत कम लिखी है.

कहानी में कविता कहने की आपकी शक्ति को रघुवीर सहाय ने आपके कविता-संग्रह ‘ख़ुद अपनी आंख से’ की समीक्षा में रेखांकित किया है. कथा-मोह और आत्मकथात्मकता के बग़ैर अगर आपकी कविताएं होतीं, तब कैसी होतीं?

इस तरह की कविताएं भी हैं मेरे पास, लेकिन इस पर ध्यान कौन दे. वे ईमानदारी से लिखी गईं वैलिड कविताएं हैं. मैं उन्हें लिखे बग़ैर रह नहीं सकता था. लेकिन हिंदी में जो बौद्धिक आलस्य है, वह कभी किसी कवि को पूरा और ठीक से पढ़ने ही नहीं देता. उसे बस एक क्लीशे चाहिए. इधर एक आलोचक हैं, ओम निश्चल नाम के [***] उन्होंने मेरे नए कविता-संग्रह ‘और अन्य कविताएं’ की समीक्षा करते हुए एक जगह सीधे-सीधे लिख दिया कि विष्णु खरे की कुछ कविताएं तो समझ में ही नहीं आती हैं. मैं दंग रह गया इस वाक्य को पढ़कर. मुझे बहुत हंसी भी आई, क्योंकि इससे ज़्यादा हास्यास्पद और शर्मनाक वाक्य एक आलोचक के लिए और क्या हो सकता है? जब तू कविता को समझ ही नहीं सकता, तब तेरा काम क्या है यहां? सामने वाले की कविताएं तुझे समझ में आ गईं तो तेरा काम हो गया. तब तो एलियट को तू समझ ही नहीं सकता, मलार्मे और रैम्बो सब बेकार हैं तेरे लिए. मुझे बहुत दुख हुआ कि इस तरह के भी आलोचक हैं अपने यहां. इसलिए मुझे नेगेटिव या नीम नेगेटिव लगते हुए भी अपनी कविता के वागीश शुक्ल और गिरधर राठी जैसे आलोचक पसंद हैं. उन्होंने समझा है मेरी कविता को. प्रभात त्रिपाठी ने भी समझने की कोशिश की है. यहां मैं पूरी हिंदी आलोचना पर एक प्रतिक्रिया दे रहा हूं.

असद ज़ैदी को बतौर एक कवि चुका हुआ बताने वाली बात भी आपकी कुछ ग़लत हुई बातों में से एक लगती है. असद ज़ैदी को एक कवि रूप में लॉन्च करने में आपकी महत्वपूर्ण और केंद्रीय भूमिका रही है. उनके कवि-व्यक्तित्व के विकास को अब आप कैसे देखते हैं?

असद अब जो लिख रहा है, एकाध कविता को छोड़ दें तो, उसमें कोई चमक नहीं है. दुर्भाग्य से यही हाल मंगलेश (डबराल) का भी है. ये लोग मुझे अब चौंकाते नहीं हैं, ख़ुश नहीं करते हैं. मंगलेश की जिस अंतिम कविता ने मुझे चौंकाया था, उसका शीर्षक है—‘पागलों का एक वर्णन’. असद के साथ यह है कि मुझे उसकी वही कविता अच्छी लगती है जिसमें मुस्लिम समाज आता है, या उसका परिवार आता है. असद इस पर कोई कमेंट करने से बहुत बचता है. वह अपनी भावनाओं को व्यक्त करने में भी कोताही बरतता है. इसलिए असद कभी उतना बड़ा कवि नहीं हो पाएगा जितना बड़ा देवी (प्रसाद मिश्र) है. देवी ने ऐसी की तैसी करके रख दी है सबकी. यह तो मैं हूं जो मुस्तैदी से डटा हुआ हूं, वरना देवी मुझे भी खा जाता. देवी के पास अभी भी है कविता और उसके पास से वह कहीं जाती दिख नहीं रही. देवी सिर्फ़ मेरी मौत से जीत पाएगा, क्योंकि मेरे पास भी है कविता.

मैं सबसे पहले यह चाहता हूं कि कोई कवि मुझे ख़ुश करे. असद अब मुझे वैसे ख़ुश नहीं करता, जैसे पहले करता था. उसके पहले कविता-संग्रह में जो बात थी, वह कहीं चली गई. इसकी वजह बहुत साफ़ है और जिसे कोई देखता नहीं है : असद अब बहुत संपन्न हो गया है. उसके पैसे ने उसे मार दिया, उसकी गाड़ी ने, गुड़गांव के मकान ने, उसके प्रकाशन की किताबों के अमेरिका एक्सपोर्ट ने… अब वह नष्ट हो चुका है. अब वह मश्किया कविताएं लिख रहा है. इन कविताओं में कोई सफरिंग नहीं है. पॉलिटिकल सफरिंग तो किसी भी चूतिये के पास हो सकती है. लेकिन अब भी जब असद उन पर लौटता है जो ग़रीब हैं—तांगेवाले, रिक्शेवाले, बुआ, बहन, पिटनेवाली… तब खूब ऑथेंटिक लिखता है, लेकिन कितनी देर के लिए—एक या दो कविताओं के लिए… बस. असद की त्रासदी है उसकी संपन्नता. असद के गुडलक ने उसे ख़त्म कर दिया.

उनका गुडलक उनकी कविता का बैडलक है?

बिल्कुल.

क्या यह हर कवि के साथ होता है?

नहीं. यह ज़रूरी नहीं है.

हिंदी में होता है या आपकी भाषा क्या है इस पर निर्भर करता है?

नहीं. यह हिंदी या किसी भी भाषा का मामला नहीं है. यह व्यक्ति पर निर्भर करता है.

क्या संपन्नता को महसूस करने लगना, कवि को नष्ट करता है?

हां. एक संकोच तो होता ही है न मन में कि मैं रहता कहां हूं, लिखता कहां की हूं. वह माद्दा जो अमेरिकन कवियों में दिखता है कि वे सारी संपन्नता के बावजूद अपनी कविता को बचा ले जाते हैं, वह यहां संभव नहीं है. इसकी वजह यह है कि हमारे कवियों पर कवि-समाज का दबाव बहुत ज़्यादा है—नैतिक दबाव. यह दबाव बहुत कंट्रोल करता है कवि को. यह उसे नैचुरल रहने नहीं देता, अगर उसमें अंदरूनी ताक़त न हो. देवी में है यह ताक़त और वह अब तक सफर भी कर रहा है. मैं भी सफर कर रहा हूं. इससे ही कहने का साहस मिलता है. इससे ही खड़े और बने रहने की ताक़त मिलती है. इससे ही किसी की हिम्मत नहीं पड़ती कि आपको कंट्राडिक्ट करे. जैसे मेरी कविता पर कोई यह आरोप नहीं लगा सकता कि वह विदेशी है, भारतीय नहीं है. मेरी कविता ख़ूब भारतीय है, भयंकर भारतीय है. मेरी कविता पर चरित्रहीनता का आरोप भी नहीं लग सकता. तब बचता क्या है मेरे पास—कविता.

उस पर बहुत गद्य होने का आरोप लगता है…

लगने दो. यह तो एक पहेली है लोगों के लिए कि इसके बावजूद मेरी कविता, कविता कैसे है? कविता इसे माना कैसे गया है?

जैसे गिरधर राठी ने लिखा है कि आपकी कविता का बाना ऐसा है जिसमें से ‘कवितापन’ के निशान मानो चुन-चुनकर हटा दिए गए हों…

हां. गद्यात्मक होना मेरी कविता की पहेली है. यह उसका नकारात्मक तत्व नहीं है. यह कोई फॉरमूला नहीं है, अगर यह कोई फॉरमूला होता तो मैं कब का ख़त्म हो चुका होता. मैं इसे फॉरमूला बनने से इसलिए रोक पाता हूं, क्योंकि मेरे पास विषय सैकड़ों हैं. मैं इसे क्यों फॉरमूला बनने दूंगा… मैं कवि हूं, क्राफ्टमैन हूं. मैं क्यों अपने क्राफ्ट को वल्गर होने दूंगा.

जब एक वर्ग या समुदाय के लोग किसी चीज़ को बहुत बेहतर बता रहे हों और वह लगभग इस रूप में मान्य और स्वीकार्य हो चुकी हो, तब अगर एक ऐसा व्यक्ति जिसकी बात बहुत ध्यान से सुनी जाती हो, आए और आकर उसी चीज़ को एकदम मामूली बता दे, तब उसे कैसे सुना जाना चाहिए?

मैं अपने उदाहरण से यह कह सकता हूं कि उस व्यक्ति को सुना तो जाता है. मुझे अगर पढ़ा-सुना न जाता तो तुम अपना वक़्त यहां बर्बाद न कर रहे होते. लेकिन हिंदी में मेरी स्वीकृति मैं फिर भी समझ नहीं पाया हूं. यह एक अजीब बात है कि हिंदी में एक से बढ़कर एक घटिया चीज़ें होने के बावजूद, अच्छी से अच्छी चीज़ ही कैसे बची रहती है. मर रहा है नरेंद्र कोहली [***] लिख-लिखकर, लेकिन कोई मान नहीं रहा उसे लेखक.

मेरी कविता को बहुत शुरू में ही पहचान लिया गया था कि इसमें कुछ है… कुछ गड़बड़ है इसमें. लेकिन मैंने आज तक यह वाक्य कभी अपनी कविता के बारे में नहीं पढ़ा कि मैं ख़राब कवि हूं. मेरी कविता में मीन-मेख निकाली गई है, लेकिन इसके बावजूद यह माना गया है कि मैं कवि हूं. इतनी कठिन-सी लगने वाली कविता लिखने के बावजूद, अगर मेरी कविता को स्वीकारा गया है तो यह अकारण नहीं है कि मुझे निराला और मुक्तिबोध में विश्वास है. उन्हें भी अंततः माना गया. इसलिए यह कोई नई बात मेरे साथ नहीं हुई है. मुझे सबक मिलता है इससे कि देखो तुमसे पहले भी यह निराला और मुक्तिबोध के साथ हो चुका है. रघुवीर सहाय के साथ यह नहीं हुआ, क्योंकि उन्होंने बड़े खतरे नहीं उठाए कविता में. मुक्तिबोध कहते हैं कि ऐसी की तैसी करवाइए आप, मैं तो यही लिखूंगा. निराला के साथ भी यही बात है और यही बात अब देवी में आ रही है. लेकिन देवी के यहां एक दिक़्क़त यह है कि वह सेल्फ-कॉन्शस है. उसे थोड़ा और अनगढ़ होना चाहिए. वह शायद हो भी जाएगा, है भी कहीं-कहीं. जहां तक मेरा सवाल है, मेरा चैलेंज दूसरा है. मेरा मानना है कि मैं किसी भी विषय पर लिख सकता हूं. यह मेरी गर्वोक्ति है.

म्यूनिख में विष्णु खरे

अगर आपको हिंदी कविता के इतिहास में एक राजनीतिक कवि के रूप में याद किया जाए, तो क्या यह आपके कवि के साथ न्याय होगा?

नहीं. मैं थोड़ा और कम्प्लीट कवि हूं. मुझे अगर जीवन के वैविध्य का कवि कहा जाए तो मुझे ज़्यादा ख़ुशी होगी.

राजनीतिक कवि की तुलना में?

नहीं, उसके साथ-साथ.

आपसे छंद सधता नहीं है, फिर भी आप कभी-कभी उसमें काव्य-प्रयत्न करते रहते हैं. ये प्रयत्न लगभग असफल लगते हैं और इनसे निर्मित कविताएं आपके संग्रह के वज़न को कम करती लगती हैं. इस छंदासक्ति की क्या वजह है?

मैं छंद में ठीक वही रिस्पॉन्स पाने के लिए लिखता हूं, जो तुम अभी दे रहे हो. दरअसल, यह एक शरारत ही है. लेकिन ये शरारतें कहीं-कहीं गंभीर भी हैं. इनका कथ्य मुंहबिराऊ कथ्य नहीं है. वह मुझसे सधा भी है. छंद में लिखते रहने से छंद आता है. वह जन्मसिद्ध नहीं होता, धीरे-धीरे मंजता है. मैं मश्क करूं तो छंद में ख़ूब बेहतर लिख सकता हूं. बहुत शुरू में मैंने छंद में कुछ कविताएं लिखी भी हैं.

आपकी कविताओं से गुज़रकर लगता है कि आपको तफ़सीलों से बहुत प्यार है. आपकी सारी मशहूर कविताओं में इनकी इंतेहा है. क्या आपको यह नहीं लगता कि इस वजह से आपकी उन कविताओं पर कम ध्यान दिया गया है जो ब्यौरों से रहित हैं और एक या दो पन्नों में ही समाई हुई हैं.

देखो, मैं जब कोई विषय उठाता हूं, तब यह कोशिश करता हूं कि उसका कोई नुक़्ता रह न जाए, जो मेरे लिए प्रासंगिक हो. इसके पीछे एक स्वार्थ-भावना यह है कि मैं उस विषय को किसी और के लिए छोड़ना नहीं चाहता हूं. एक तरह से यह किसी विषय पर मेरी इजारेदारी है, मेरा क़ब्ज़ा है. मैं एक फुलनेस या इसे उलटकर कहूं तो एक लीस्ट अनकम्प्लीटनेस चाहता हूं. मैं अपनी कविता ही नहीं, अपने हर किए-धरे में कम से कम अपूर्णता चाहता हूं. यह हर चीज़ में बहुत दिलचस्पी लेने की बात है कि आप किसी चीज़ का पीछा करते हुए उसके साथ कितनी दूर तक जा सकते हैं. मैं अपने बारे में कहूं तो इस ब्रह्मांड को लेकर मेरी उत्सुकता का कोई अंत नहीं है. मैं कभी ऊब सकता ही नहीं. मैं कई बार चांदनी रातों में ऊपर देखते हुए बिल्कुल पागल हो जाता हूं : कहां जा रही है ये निगाह? क्या है ये सब? आदमी तड़पकर रह जाता है इस सबके आगे कि वह कितना लाचार है. बहुत कुछ जान लिया है उसने, लेकिन कुछ भी तो नहीं जाना है… अभी तो जानने की शुरुआत ही हो रही है.

मुझे यह बात बहुत निराश करती है कि हिंदी कवियों की सोच का दायरा बहुत कम है. यह दुःख है, लेकिन इसमें ख़ुशी भी है कि सब कुछ अपने लिए पड़ा हुआ है. मेरे साथ अब गीत चतुर्वेदी ने कुछ चैलेंज स्वीकार किया है, लेकिन उसमें दिखावा बहुत ज़्यादा है. वह सिर्फ़ अपना पांडित्य दिखलाना चाहता है. उसे अपने देखने से मुहब्बत नहीं है और इसलिए ही वह बेचैन नहीं है. मैं कह यह रहा हूं कि अगर आपकी दिलचस्पी लगभग हर चीज़ में नहीं है तो आपका कवि होना थोड़ा बेकार है. आपके मस्तिष्क की जितनी उड़ान होगी, आख़िर आप उतना ही तो उड़ेंगे. आप देखिए कि किन कवियों को संसार में महान उड़ानें मिली हैं, किन्हें कम मिली हैं, किन्हें नहीं मिली हैं. यह अलग तथ्य है कि इससे उनकी कविता इनवैलिड नहीं हो गई. कभी-कभी छोटे स्पेस में काम करने वालों से भी बहुत बड़ा काम हो जाता है.

एक पत्रकार, अनुवादक और समीक्षक के रूप में आपने विचार, भाषा और साहित्य-सुधार के कई कार्यक्रम चलाए हैं, बावजूद इसके आज हिंदी में इन तीनों कर्तव्यों की स्थिति क्षीण है. दुख होता है?

दुख तो मुझे बहुत होता है. यह दुख एक पूरे देश की सोच, उसके रुझान और उसकी संस्कृति के पतन तक जाता है. दुख इस बात का भी है कि वे लोग जो अब अपने अंतिम पड़ाव पर हैं, उन्होंने इस तरफ़ कुछ किया नहीं. मैं तो बहुत लड़ा, लेकिन बहुत सारे लोग जैसे नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, और इनके पहले नगेंद्र, हजारी प्रसाद द्विवेदी… यानी विचित्र है कि महावीर प्रसाद द्विवेदी और रामचंद्र शुक्ल ये दोनों पूरी संस्कृति के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझते थे. इनकी भूमिका समाज में हमारे प्राचीन ऋषियों की तरह थी जो आशीर्वाद भी देते थे, श्राप भी देते थे, पढ़ाते भी थे, आश्रम में भी रहते थे और त्याग भी करते थे… वे एक पूरी जीवन-शैली सिखाते थे. इनके जाने के बाद हमारे हिंदी भाषी समाज के लिए कुछ करना है, यह सोच ही जाती रही. हालांकि अशोक वाजपेयी में यह बात है और वह एक सुपरफिशियल लेवल पर कुछ कर भी रहा है, लेकिन समाज के निम्नतम वर्ग तक साहित्य-कला-संस्कृति पहुंचे, यह उसका सरोकार ही नहीं है. मैं यहां यह पहले भी कह चुका हूं, और इसकी वजह है कि अशोक जनता का आदमी नहीं है. लेकिन हॉरर यह है कि जनता के आदमी नामवर सिंह भी नहीं हैं. अकेडमिक में प्रवेश करते ही ये लोग मर गए. इन्हें प्रवेश भी कहां मिला पी.जी. क्लासेज में, लोअर क्लासेज इन्होंने पढ़ाई ही नहीं. इनके मुक़ाबले अगर देखें तो अंग्रेज़ी प्राध्यापक लोअर क्लासेज से शुरू करता है, क्योंकि वह अपनी ज़िम्मेदारी महसूस करता है. वह अपने कर्तव्य के प्रति अधिक सजग है. हिंदी में हालत यह है कि निचले काम में हाथ गंदे कौन करे! तब सही हिंदी लिखना सिखाएगा कौन? 1960 तक तो यह था कि भाषा और वर्तनी की भूलों को अक्षम्य माना जाता था—साहित्य और पत्रकारिता में ही नहीं—हर जगह, हर व्यक्ति के लिए. वर्तनी भाषा का ब्यौरा है. हो सकता है कि मैं दक़ियानूस हूं, लेकिन अब मैं यह मानता हूं कि वर्तनी और व्याकरण की छूट बिल्कुल नहीं दी जानी चाहिए. भाषा का सही होना हमारे मस्तिष्क के लिए बहुत ज़रूरी है, क्योंकि कुछ रोगों का उपचार भाषा के ज़रिए होता है. पागलपन को क्योर करने के लिए शुद्ध भाषा बहुत ज़रूरी है. यहां ज़रा रुक कर सोचो हम लोग कितना ग़लत-सलत और अनर्गल सोच रहे हैं, यह सोचना भाषा से छनकर शुद्ध होता है. भाषा में सही-ग़लत कुछ नहीं होता का मतलब है, जीवन में सही-ग़लत कुछ नहीं होता, क्योंकि जो सहीपन भाषा की नैतिकता है, वही सहीपन जीवन की भी नैतिकता है.

वह क्या है जो स्मृति को वांछनीय बनाता है और नॉस्टेल्जिया को वर्जनीय? वह बारीक सीमा-रेखा क्या आपको दिख गई है?

यह सवाल मेरे लिए अब और कठिन हो गया है, क्योंकि अब मैंने नॉस्टेल्जिया को लेकर अपने विचारों को रिवाइज किया है. अब मैं यह कह सकता हूं कि नॉस्टेल्जिया आपको भावुक बनाता है और स्मृति आपके नॉस्टेल्जिया को छानकर उसमें से एक संभावना को निकालकर बाहर लाती है, जो नॉस्टेल्जिया में नहीं होती है. जब आप स्मृति में होंगे, तब आप आंसू नहीं बहाएंगे, बहुत संभव है कि आप बहुत विचारपूर्ण हो जाएं, लेकिन इससे यह नहीं होगा कि आप भावुक होकर रोने लग जाएं. दो चीज़ों को बहुत बदनाम किया जाता है—एक नॉस्टेल्जिया और दूसरी आत्मदया. मैंने इन दोनों के पक्ष में कविताएं लिखी हैं. आत्मदया तो नॉस्टेल्जिया से भी ज़्यादा प्रिविलेज्ड है. संसार भरा हुआ आत्मदया के महान उदाहरणों से.

नॉस्टेल्जिया में आत्मदया भरपूर होती है, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि नॉस्टेल्जिया आत्मदया से बेहतर है. आत्मदया का एक सीमा के बाद आप बचाव नहीं कर सकते. इस अर्थ में नॉस्टेल्जिया मुझे ज़्यादा प्रामाणिक और स्थायी चीज़ लगती है. इसे कमज़ोरी, अपरिपक्वता और कई बार ग़ैर-मर्दानगी से भी जोड़कर देखा जाता है. आत्मदया को तो पुरुषों की चीज़ माना जाता है, लेकिन नॉस्टेल्जिया और स्मृति सिर्फ़ पुरुषों का दुर्गुण नहीं है. हमारे सारे लोकगीत स्त्रियों के नॉस्टेल्जिया और स्मृति से भरे हुए हैं. हालांकि स्त्रियों ने अपने नॉस्टेल्जिया और आत्मदया दोनों को सॉल्व कर लिया है. पुरुष अब तक नहीं कर पाया है.

आप अपने नॉस्टेल्जिया को सॉल्व करना चाहते हैं?

मैं नॉस्टेल्जिया को कंट्रोल कर सकता हूं, सॉल्व शायद कभी नहीं कर पाऊंगा, कर सकता ही नहीं, मैं करना ही नहीं चाहता… क्योंकि मुझ सरीखे लोग कुछ भी भूलना नहीं चाहते. मैं अपनी बुरी से बुरी याद को भी भूलना नहीं चाहता. कई स्मृतियां हैं—अभाव, अपमान, अन्याय और संघर्ष की… कैसे भूल जाऊं. मैं ख़ुद पर कोई सेंसर कैसे लागू करूं? करूं भी तो क्यों करूं? क्यों? समय के साथ कुछ स्मृतियां शायद सॉल्व हो जाएं. कई स्मृतियां नहीं बचीं, जो पहले बहुत शिद्दत से आती थीं… अब उनकी एक गूंज आती हैं, उनकी परछाईं दिखती है.

मिथकों और परिवार से आप अब तक अपनी कविता-सृष्टि में मुक्त नहीं हो पाए हैं. आपका अब तक शाया कोई भी कविता-संग्रह इससे अछूता नहीं है. क्यों?

वैसे इसका उत्तर तुम्हारे इससे पहले के सवाल से ही जुड़ा हुआ है. मैंने सिर्फ़ हिंदू मायथोलॉजी ही नहीं, बल्कि सारे संसार की मायथोलॉजी को पढ़ डाला है. ग्रीक मिथक तो मैंने दस-बारह साल की उम्र में ही पढ़ लिए थे. ग्रीक, रोमन, असीरियन, बेबीलोनियन, ईजिप्शियन मिथक मैं छिंदवाड़ा में ही पढ़ चुका था. यह संयोग से हुआ कि वहां एक लाइब्रेरी थी, अब भी है, जिसमें अंग्रेज़ी किताबों के एक अद्भुत संग्रह के साथ-साथ ‘द मायथोलॉजी ऑफ़ वर्ल्ड’ शीर्षक एक पूरी सीरीज थी—अलग-अलग वॉल्यूम में. इसमें हिंदू मिथक भी थे, लेकिन तब मैंने उन्हें छुआ तक नहीं. दक्षिण अमेरिकी और अफ्रीकी मिथक भी थे, जिन्हें मैं पढ़ गया. यह अध्ययन मेरी बड़ी भारी पूंजी है. वैसे मुझे मिथक की ओर धकेला ‘महाभारत’ ने, छह बरस की उम्र में, कैसे, इस पर हम चर्चा कर चुके हैं. ‘रामायण’ को मैंने कभी मिथक नहीं माना. मेरे दिमाग़ में मिथक का प्रॉमिनेंट पैमाना ‘महाभारत’ ही है. बाक़ी संस्कृतियों के मिथक मुझे ‘महाभारत’ की तुलना में कमतर लगते हैं, लेकिन मुझे उन तक लेकर जाने वाला ‘महाभारत’ ही है. मिथक मुझे पुरातत्व की दुनिया में भी ले गए. इस सवाल के दूसरे हिस्से पर आऊं तो कहना चाहूंगा कि मेरा पारिवारिक इतिहास इतना जटिल है कि मैं उसे सुनाई ही नहीं सकता. मैं जानता हूं कि उसे सुनाने से उसका भयंकर और मार्मिक जादू नष्ट हो जाएगा. यह इतिहास बहुत भयानक है और भावनाओं और स्मृतियों से भरा हुआ है. इसकी कई बातें तो अब तक मैं कहीं लिख ही नहीं पाया हूं. मैं उन्हें लिख देने से घबराता भी हूं, लेकिन मरने से पहले ज़रूर लिखकर जाऊंगा… उसे पढ़कर हिंदीवालों के परख्च्चे उड़ जाएंगे.

आपके हर कविता-संग्रह के शुरुआती पृष्ठ पर प्राचीन मिस्र के चौथे-पांचवें (लगभग 2500 ई. पू.) राजवंश के समय निर्मित एक मूर्ति का चित्र रहता है जो अपनी निर्भीक मुद्रा और सत्य की गहराइयों तक पहुंचने वाली दृष्टि के लिए विख्यात है. इसकी क्या वजह है?

वह मिथक से ही आया है. उसे लिपिकार कहा जाता है. वह ईजिप्शियन सभ्यता का एक स्तंभ हुआ करता था, क्योंकि राजा उसे अपने सामने बैठाता था. वह सब कुछ उसे बताता और सब कुछ उससे सुनता था कि आज क्या-क्या हुआ. वह दैनिक इतिहासकार था. उन लिपिकारों की बहुत सारी मूर्तियां लूव्र, पेरिस में भी हैं. उनके बड़े-बड़े ललाट, उनकी बड़ी-बड़ी आंखें, उनके भरे हुए बदन और एक अजीब-सी एरोगेंस और आत्मविश्वास कि क्या है राजा… हम जानते हैं… जब मैं लूव्र गया, तब मैंने इन मूर्तियों को देखा और तब ही यह तय किया कि मेरा मस्कट यही होगा, कविता की मेरी पुस्तकों की शुरुआत में यह जाएगा.

विषय के दुहराव की परवाह न करके आप अपने अपराध और असहायताबोध को बार-बार व्यक्त करते हैं. ‘ख़ुद अपनी आंख से’ में शामिल कविता ‘वापस’ और ‘पाठांतर’ में शामिल कविता ‘जिनकी अपनी कोई दूकान नहीं होती’ में एक अनूठा साम्य दीखता है. इस प्रकार के और भी ताल्लुक़ खोजे जा सकते हैं. क्या आपका इस तरफ़ ध्यान गया है?

इन दोनों कविताओं के विषय अलग-अलग हैं. लेकिन मेरी कुछ कविताओं में दुहराव की बात सही है. यह वैसे ही है जैसे जब सूर्य या चंद्र-ग्रहण होता है और जब उसका मोक्ष होता है, तब एक कटी छाया हमेशा बच जाती है जो धीरे-धीरे ग़ायब होती है…

‘सबकी आवाज़ के परदे में’ में शामिल एक कविता ‘निवेदन’ में आप ग़ुस्सा करने के पक्ष में तर्क देते हुए कहते हैं : ‘ग़ुस्से के कारण आई मृत्यु मुझे स्वीकार्य है/ ग़ुस्सा न करने की मौत की बजाय.’ इस कविता के अंत में आप चंद लोगों के एक साथ मिलकर ग़ुस्सा होने की उम्मीद को शब्द देते हैं. इस कविता के प्रकाशित होने के बाद से आपने ज़रूर चंद लोगों को एक साथ मिलकर ग़ुस्सा होते हुए देखा होगा, उनके बारे में सुना-पढ़ा होगा. आज इस तरह की कार्रवाई में आपका यक़ीन कितना बढ़ा है? यहां मेरा आशय आंदोलनों और उनकी प्रासंगिकता से है.

देखो, मेरी उम्मीद अब सिर्फ़ जंगलों में रहने वाले नक्सलियों से ही है. मेरा ऐसा मानना है कि अब तक अरबन गुरिल्लाओं की एक बड़ी फ़ौज हमें खड़ी कर लेनी चाहिए थी, यह हम कर नहीं पाए. यहां आकर मैं कम्युनिस्ट पार्टियों का बुर्जुआ बिट्रेयल भी देखता हूं. अगर एक अच्छी कम्युनिस्ट पार्टी होती तो वह एक सबवर्सिव आंदोलन चलाती और हमारे वर्कर सबोटाज कर रहे होते. दरअसल, हम लोग हमेशा ओवरग्राउंड रहे, जबकि देश की आज़ादी से पहले ऐसा नहीं था.

क्या यह नैतिक पतन है कम्युनिस्ट पार्टियों का?

हां, थोड़ा-सा. नेहरू ने कुछ फ़ायदों के साथ जो एक सबसे बड़ा नुक़सान किया, वह यह किया कि उन्होंने कम्युनिस्टों को सॉफ्ट कर दिया. इसके पीछे सोवियत यूनियन का भी हाथ था. वह जानता था कि कम्युनिस्टों के साथ होने से क्या फ़ायदा, जब भारतीय शासक साथ है और जो समाजवादी होने का दम भी भरता है… वह हमारे ज़्यादा काम आएगा, क्योंकि वह एक पूरा देश है. इससे हुआ यह कि इसने कम्युनिस्टों से वह नैतिक साहस छीन लिया जिसके दम पर गांधी और नेहरू को पलटा जा सकता था—ख़ासकर नेहरू को. कम्युनिस्ट धीरे-धीरे केवल नेहरू के एडमायरर बनकर रह गए, और जब सब नेहरूवादी हो जाएंगे तो क्रांति कौन करेगा?

क्या आपने कभी कल्पना की थी कि भारतीय जनता पार्टी पूर्ण बहुमत से सत्ता में आएगी?

देखो, नेहरू के जमाने में ही भारतीय राज्यों में ग़ैर-कांग्रेसी सरकारें बनने लगी थीं और कांग्रेस में विद्रोह होने लगे थे और उसमें दरारें पड़ने लगी थीं. इस वजह कई नई पार्टियां अस्तित्व में आ गई थीं. नेहरू की मृत्यु के बाद जब इंदिरा आईं और इमरजेंसी भी तो ये सारी निष्क्रिय पार्टियां सक्रिय हो गईं. जनसंघ तब कुछ था ही नहीं, लेकिन बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद यह लगने लगा कि भाजपा अब कभी भी पूर्ण बहुमत से इस मुल्क में आ सकती है. जब ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने एक पंडित (विद्यानिवास मिश्र) को लाकर संपादक बना दिया, जिसने कभी एक दिन भी संपादन नहीं किया था, तब मुझे लगने लगा था कि इस देश के मीडिया-संस्थान भी भाजपा के पक्ष में माहौल बनाना और उसे लाना चाह रहे हैं. मुझे लग गया था कि अब यह देश भाजपा के द्वारा ही चलाया जाएगा. इस देश के अख़बार भाजपा के लिए पीठिका तैयार कर रहे थे. रातों-रात पूरा ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ भाजपाई हो गया और आज तक है… कहां जाएगा, होना ही पड़ेगा. अब तो और भी ज़्यादा होना पड़ेगा. अब तो भाजपा को कोई परवाह भी नहीं है ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ की, ये तो अपने मन से ही उसके लिए सब कुछ करने को तैयार बैठे हैं.

आपकी कुछ कविताएं हिंसा की ‘ताईद’ करती हैं. मैं बहुत मासूमियत से पूछ रहा हूं कि क्या बुद्ध और गांधी का दर्शन अब सचमुच इस संसार में बिल्कुल काम का नहीं रहा?

कहां बचा है अहिंसा का दर्शन और किस देश में कारगर है? बुद्ध और गांधी ने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि यह दुनिया इतनी क्रूर और पाशविक हो जाएगी. गांधी तो ख़ुद को भ्रम में ही रखते रहे. जाति को भी उन्होंने कभी नहीं देखा. भारत में अगर आप जाति नहीं देखेंगे, तो और कहां/क्या देखेंगे? गांधी का हिंदुत्व भी भाजपा के सॉफ्ट हिंदुत्व से बहुत अलग नहीं है. गांधी हिंदुत्व को वैसे ही नहीं छोड़ते हैं, जैसे कोई वामपंथी मुसलमान इस्लाम को न छोड़े. इसलिए सब मोर्चों पर आज गांधीवाद असफल है. कोई मुस्लिम आतंकवादी सुनेगा क्या आपका गांधीवाद? इस्लाम सुनेगा क्या? इसलिए मुस्लिम संसार के लिए गांधीवाद तब भी आउट ऑफ डेट था, आज भी आउट ऑफ डेट है. हिंदुओं ने थोड़ा-बहुत स्वीकारा उसे, लेकिन वे भी कितनी जल्दी लौट गए बर्बरता की तरफ़—विभाजन के वक़्त ही. एक हिंदू के हाथों गांधी का मारा जाना स्वयं इस बात का प्रमाण है… वह भी तब जब देश पूरी तरह आज़ाद भी नहीं हुआ है. इसलिए गांधीवाद की त्रासदी बहुत भयावह है. बुद्धिज्म तो अपनी नास्तिकता की वजह से फिर भी बचा हुआ है. वामपंथ में भी वह स्वीकार्य है. उसमें जाति भी नहीं है. ये पहलू बुद्धिज्म को बचा ले जाते हैं और उसके आगे भी बचे रहने की संभावना को जीवित रखते हैं.

आपके नए कविता-संग्रह ‘और अन्य कविताएं’ में शामिल कविता ‘फ़ासला’ में जो स्थिति वर्णित है, वह अब दाना मांझी तक आ चुकी है. इस विस्तार में शर्म के अनेक पड़ाव संभव हुए हैं, लेकिन हम संभले नहीं हैं तो इसके सूत्र आपको कहां नज़र आते हैं?

शर्मनाक घटनाओं का कोई अंत है क्या? ये दुनिया इस वक़्त एक बहुत बड़े नैतिक रोग से गुज़र रही है. जितने बलात्कार आज नाबालिग़ बच्चियों से इस देश में हो रहे हैं, मेरी स्मृति में इससे पहले कभी नहीं हुए. मैं अठहत्तर साल का होने जा रहा हूं, मैंने इतनी ख़बरें अब से पहले कभी नहीं सुनीं, लोगों के गले चाकू से रेते जाने की. इसका मतलब बहुत साफ़ है कि उदारीकरण के साथ हमारे देश में जो एक नई सभ्यता आई है, मर्केंटाइल सभ्यता, उसने बहुत सारे नए अपराध और बहुत सारे नए मनोवैज्ञानिक रोग पैदा किए हैं. अब लोग कोई भी अपराध करने में डर नहीं रहे हैं. अब कहीं कोई नैतिक अड़ंगा है ही नहीं. समाज की गति और दिशा अब बिल्कुल बदल गई है. अब हर व्यक्ति कारोबारी होना चाहता है. ईमानदारी का कॉन्सेप्ट ख़त्म हो गया है. व्यापार और सफलता आज दो सबसे बड़ी ईमानदारियां हैं. कमाने और कमाने की बात करने में अब कोई संकोच नहीं करता है. यह समाज अब खुलकर लेन-देन की बात कर रहा है. हिंदू समाज में इससे पहले इतना बड़ा नैतिक बदलाव कभी नहीं हुआ. हमारा समाज कभी मर्केंटाइल समाज नहीं था. अब बेईमानियां करने में होने वाली हिचक जाती रही है. अपराध करना अब बदनामी का बायस नहीं रह गया है. कुछ भी करके अब आप बदनाम नहीं होते. आज का ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ उठाकर देख लो, उसमें कम से कम दस तांत्रिकों और बाबाओं के इश्तिहार हैं, कम से कम पचास मसाज पॉर्लर के इश्तिहार हैं, कॉल गर्ल्स के इश्तिहार हैं… आज से बीस बरस पहले ये इश्तिहार इस तरह कहीं दिखते नहीं थे, आज खुल्लम-खुल्ला ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ और ‘मिरर’ में छ्पते हैं. आज सबसे अनैतिक जगह अख़बारों के विज्ञापन-पृष्ठ हैं. इनमें हमारे पूरे समाज का रिफ्लेक्शन है. आप पाकिस्तान को फेल्ड स्टेट कहते हैं, आप किसी फेल्ड स्टेट से कम हैं क्या? इस सबका सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह हुआ है कि अब विरोध और आंदोलन करने के तरीक़े बदल गए हैं. अब आदर्शवादी युवक-युवतियां मिलना बंद हो गए हैं. आज जब कोई आंदोलन नहीं है तो ऐसे में अन्याय, ग़रीबी और भूख से जूझती हुई जनसंख्या कहां जाए, और हम उसके पास कैसे जाएं… यह मेरे सामने एक बहुत बड़ा सवाल है. आज अगर आप एक सही बात कर रहे हैं तो आपसे ज़्यादा अकेला और कोई नहीं है, या जो आपको सुन रहे हैं, वे भी आपके ही जैसे हैं—अकेले. हम जनता के पास जाने में हिचकिचाते हैं. जनता साक्षर होती तो इसकी ज़रूरत न होती, लेकिन आज वह जैसी है और बना दी गई है… वह आपके विचारों को समझे कैसे? इसलिए ट्रेड-यूनियन की ट्रेनिंग बड़ी महत्वपूर्ण थी, उसमें सब समझाया जाता कि पूंजीवाद से कैसे लड़ना है. अब तो लगता है कि जैसे कम्युनिस्ट पार्टियां कुछ करना ही नहीं चाहतीं. इन मसलों को लेकर कम्युनिस्ट पार्टियां कभी सड़क पर उतरते दिखती ही नहीं. क्या इनके लिए सब सॉल्व हो गया? आज कम्युनिस्ट नेताओं से ज़्यादा कमिटेड तो हिंदी का लेखक है… वह ज़्यादा लिख रहा है, ज़्यादा कह रहा है.

अपने परिवार के साथ विष्णु खरे

क्या आप अकेलापन महसूस करते हैं? यह पूछते हुए मेरे ज़ेहन में ‘और अन्य कविताएं’ में शामिल कविता ‘फांक’ गूंज रही है.

अकेलापन कोई स्थायी मूड नहीं है, लेकिन अकेले होते ही आप मार दिए जाएंगे, क्योंकि समाज में अकेले आदमी की कोई जगह बची नहीं है. आज जहां भी आप हैं, वहां से कोई न कोई आपको हटाने में लगा हुआ है. आज का हमारा समाज पूरी तरह भय पर केंद्रित और उस पर निर्भर समाज बन चुका है. आप ज़रा सही बात के लिए आवाज़ उठाकर देखिए, आप तत्काल पूरे देश के दुश्मन हो जाते हैं—आप भारत माता, गाय माता और विवेकानंद के दुश्मन हो जाते हैं.

नंदकिशोर नवल ने आपको हमारे ‘नैतिक विनाश’ का कवि कहा है. आप इससे कहां तक सहमत हैं?

यह आंशिक रूप से सही है. ‘नैतिक विनाश’ को दर्ज किए बग़ैर मेरी कविता पूरी होती नहीं है. मैं इस देश के नैतिक विनाश को बहुत शिद्दत से देखता हूं. मेरे पत्रकार ने मुझे इस तरह देखने की शक्ति दी है. वैसे आज नैतिक विनाश का कवि होने के लिए अख़बार पढ़ना जरूरी नहीं है, न पढ़ना ज़रूरी है.

सपने आते हैं आपको?

ख़ूब. स्त्रियों और सेक्स के नहीं आते. फंतासियों और यात्राओं के आते हैं. बचपन के आते हैं.

माता-पिता के?

पिता के आते हैं, मां के नहीं.

याद रहते हैं सुबह?

कुछ-कुछ.

आपको रूखा, तुनकमिज़ाज और ग़ुस्सैल माना जाता है, पर ऐसे लिखित और वाचिक विवरण भी मिलते हैं जिनमें आपको बहुत सहृदय, भावुक और आर्द्र भी दर्ज किया गया है? आप ख़ुद, ख़ुद को कैसे देखा जाना पसंद करते हैं?

मैं मूर्खों और धूर्तों को बर्दाश्त नहीं कर पाता हूं, चूंकि अधिकांश लोग ऐसे ही हैं, इसलिए मैं रूखा, तुनकमिज़ाज और ग़ुस्सैल समझा जाता हूं. मैं जाहिलों को बर्दाश्त करने के लिए अगर उपलब्ध नहीं हूं, तो इसमें मेरा कोई क़सूर है क्या? वैसे ये आरोप मुझ पर हिंदी के बेवकूफ़ प्राध्यापक और घटिया लेखक लगाते हैं. अकारण नहीं, लेकिन मुझे अक्सर इन पर ग़ुस्सा होना पड़ता है… आख़िर सारी मूर्खताओं और धूर्तताओं के ख़िलाफ़ खड़ा होना हमारा फ़र्ज़ है. यह किए बग़ैर हिंदी की संस्कृति कभी गरिमापूर्ण, स्वाभिमानी और उन्नत हो ही नहीं सकती.

आखिरी प्रश्न : आप अपने हार्ट का ख़याल रख रहे हैं?

हां, रख रहा हूं. खाना कंट्रोल कर रहा हूं, दवाएं ले रहा हूं, शराब लगभग नहीं पी रहा हूं… वे दिन तो गए छह-आठ पेग वाले…


[विष्णु खरे की मृत्यु के साथ ही तमाम अश्लील और भौंडे उपक्रमों की नुमाइश हुई, उन्हें याद करने और उन पर बात करने के तमाम उपक्रम. मृत्यु के बाद की जल्दबाज़ और बेजा आपाधापी ने इन उपक्रमों को थोड़ा ढांपे रखा, लेकिन विष्णु खरे के साहित्यिक पुरुष का निर्माण कैसे होता है और हिंदी का नाटकीय स्वरूप कैसे अपने निर्माण के लिए मृतक की ‘लिंचिंग’ करने पर आमादा है, यह भी पता चलता है. विष्णु खरे का यह आख़िरी संवाद प्रकाशित करते हुए हमें बहुत ख़ुशी हो रही है. जैसा विष्णु खरे अपने हरेक संवाद से ज़ाहिर करते रहे हैं कि हिंदी के रचनाकार अपनी भव्यता और कुलीनता के बावजूद हिंदी साहित्य को उसकी जहालत से नहीं बचा सके, इस तथ्य को उन्होंने इस बातचीत में थोड़ा और विस्तार दिया है. हिंदी व्यर्थ के करुण-क्रंदन और शहीद-विलाप से ग्रस्त है, उसमें अवसाद का दिखावा इतना है कि आशंका होती है कि ये आशंकाएं अच्छी रचना को जन्म दे सकती हैं, लेकिन एक संकुचित और निर्लज्ज व्यवस्था के सिवाय शायद कुछ नहीं जन्मा इस जगह से. इस बात को भी विष्णु खरे ज़ाहिर कर देते हैं. ये सारी दुर्लभ तस्वीरें विष्णु खरे के बेटे अप्रतिम खरे के सौजन्य से मिल सकी हैं, हम उनके तहे-दिल से आभारी हैं. कई तरीक़ों से यह बातचीत संभव हुई अविनाश मिश्र द्वारा, उनका भी आभार. बुद्धू-बक्सा की ओर से विष्णु खरे को ‘चीयर्स’.]

Share, so the world knows!