मौत ने मेरे पास अपना अकेलापन पहले ही भेज दिया है

नाज़िम हिकमत की कुछ कविताएं

हलो

कैसी खुशकिस्मती है नाजिम,
कि सरेआम और बेधड़क,
तुम “हलो” कह सकते हो
तहे दिल से !

साल है 1940.
महीना जुलाई का.
दिन, महीने का पहला बृहस्पतिवार.
समय : 9 बजे.

इतनी ही तफसील से तारीख दर्ज करो अपनी चिट्ठियों में.
हम ऐसी दुनिया में रहते हैं
कि दिन, महीने और घंटे
बहुत कुछ कहते हैं.

हलो, हर किसी को.

एक बड़ा, भरा-पूरा और सम्पूर्ण
“हलो” कहना
और फिर बिना अपना वाक्य ख़त्म किए,
खुश और शरारतपूर्ण मुस्कराहट के साथ
तुम्हें देखना
और आंख मारना…

हम इतने अच्छे दोस्त हैं
कि समझ लेते हैं एक-दूसरे को
बिना एक भी लफ्ज़ बोले या लिखे…

हलो, हर किसी को,
हलो आप सभी को…

धंधा

जब सूरज की पहली किरणें पड़ती हैं मेरे बैल की सींगों पर,
खेत जोत रहा होता हूं मैं सब्र और शान के साथ.
प्रेम से भरी और नम होती है धरती मेरे नंगे पांवों के तले.

चमकती हैं मेरी बाहों की मछलियां,
दोपहर तलक मैं पीटता हूं लोहा –
लाल रंग का हो जाता है अन्धेरा.

दोपहर की गरमी में तोड़ता हूं जैतून,
उसकी पत्तियां दुनिया में सबसे खूबसूरत हरे रंग की :
सर से पांव तलक नहा उठता हूं रोशनी में.

हर शाम बिला नागा आता है कोई मेहमान,
खुला रहता है मेरा दरवाज़ा
सारे गीतों के लिए.

रात में, मैं घुसता हूं घुटनों तक पानी में,
समुन्दर से बाहर खींचता हूं जाल :
मछलियां और सितारे उलझे हुए आपस में.

इस तरह मैं जवाबदेह हूं
दुनिया के हालात के लिए :
अवाम और धरती, अंधेरे और रोशनी के लिए.

तो तुम देख सकती हो, मैं गले तक डूबा हुआ हूं काम में,
खामोश रहो प्रिय, समझो तो सही
बहुत मसरूफ़ हूं तुम्हारे प्यार में.

हिरोशिमा की बच्ची

मैं आती हूं और खड़ी होती हूं हर दरवाजे पर
मगर कोई नहीं सुन पाता मेरे क़दमों की खामोश आवाज
दस्तक देती हूं मगर फिर भी रहती हूं अनदेखी
क्योंकि मैं मर चुकी हूं, मर चुकी हूं मैं

सिर्फ सात साल की हूं, भले ही मृत्यु हो गई थी मेरी
बहुत पहले हिरोशिमा में,
अब भी हूं सात साल की ही, जितनी कि तब थी
मरने के बाद बड़े नहीं होते बच्चे

झुलस गए थे मेरे बाल आग की लपलपाती लपटों में
धुंधला गईं मेरी आंखें, अंधी हो गईं वे
मौत आई और राख में बदल गई मेरी हड्डियां
और फिर उसे बिखेर दिया था हवा ने

कोई फल नहीं चाहिए मुझे, चावल भी नहीं
मिठाई नहीं, रोटी भी नहीं
अपने लिए कुछ नहीं मांगती
क्योंकि मैं मर चुकी हूं, मर चुकी हूं मैं

बस इतना चाहती हूं कि अमन के लिए
तुम लड़ो आज, आज लड़ो तुम
ताकि बड़े हो सकें, हंस-खेल सकें
बच्चे इस दुनिया के.

मेरा वक़्त आ पहुंचा है

मेरा वक़्त आ पहुंचा है
जब मैं अचानक छलांग लगा दूंगा शून्यता में.
कभी नहीं एहसास होगा मुझे अपने सड़ते हुए शरीर का
या अपनी आंखों के कोटर में रेंगते हुए कीड़ों का.

मैं लगातार सोचता रहता हूं मौत के बारे में
इसका मतलब है कि मेरा वक़्त नजदीक है.

मैं बूढ़ा होने का आदी होता जा रहा हूं 

मैं बूढ़ा होने का आदी होता जा रहा हूं
दुनिया का सबसे मुश्किल हुनर –
आखिरी बार खटखटाना दरवाजों को,
अंतहीन विछोह.
समय बीतता जा रहा है, बीतता जा रहा है…
मैं विश्वास खो देने की कीमत पर समझना चाहता हूं.
मैनें तुमसे कुछ कहना चाहा, और कह न सका.
दुनिया अल्सुबह की सिगरेट-सी लगने लगी है :
मौत ने मेरे पास अपना अकेलापन पहले ही भेज दिया है.
जलन होती है मुझे ऐसे लोगों से जिन्हें पता ही नहीं कि वे बूढ़े हो रहे हैं,
इतना डूबे हैं वे अपने काम में.

मेरा क्रियाकर्म 

क्या मेरा क्रियाकर्म नीचे अपने आंगन से शुरू होगा?
तुम मेरा ताबूत तीसरी मंजिल से नीचे कैसे लाओगी?
लिफ्ट में यह समाएगा नहीं,
और सीढ़ियां बहुत संकरी हैं.

शायद आंगन में घुटनों तक धूप हो, और कबूतर हों
शायद बर्फ हो वहां बच्चों की खिलखिलाहट के साथ,
या क्या पता बारिश से धुली हुई डामर हो वहां.
और कूड़ेदान हों हमेशा की तरह.

अगर, जैसा कि यहां रिवाज है, मुझे चेहरा उघाड़कर रखा जाए ट्रक में,
शायद कोई कबूतर कुछ गिरा दे मेरे माथे पर : यह शुभ संकेत होगा.
बैंड बजाने वाले हों या न हों, बच्चे जरूर आएंगे मेरे पास –
उन्हें पसंद होते हैं अंतिम संस्कार.

हमारी रसोई की खिड़की मुझे जाता हुआ देखेगी.
बालकनी में सूखते कपड़े लहराते हुए मुझे विदा करेंगे.
यहां, मैं तुम्हारी कल्पना से भी ज्यादा खुश रहा.
दोस्तों, आप सबके लिए मैं लम्बी और खुशहाल ज़िंदगी की कामना करता हूं.

तुम्हें प्यार करता हूं मैं

नीचे झुकता हूं मैं : देखता हूं धरती
घास,
कीड़े मकोड़े,
नीले फूलों वाले नन्हे पौधे.
तुम बसंत ऋतु की धरती की तरह हो, मेरी प्रिय,
तुम्हें देख रहा हूं मैं.

पीठ के बल लेटता हूं: देखता हूं आकाश,
एक पेड़ की डालियां,
उड़ते हुए सारस,
खुली आंखों से एक स्वप्न.
तुम बसंत ऋतु के आकाश की तरह हो, मेरी प्रिय,
तुम्हें ही देखता हूं मैं.

रात में जला देता हूं एक अलाव : स्पर्श करता हूं आग,
पानी,
वस्त्र,
रजत.
तुम सितारों के तले जलती एक आग की तरह हो, मेरी प्रिय,
तुम्हें स्पर्श करता हूं मैं.

जाता हूं जनता के बीच : प्यार करता हूं जनता को,
काम,
विचार,
संघर्ष.
तुम एक शख्स हो मेरे संघर्ष में शामिल,
तुम्हें प्यार करता हूं मैं.

जीवन गान

तुम्हारे माथे पर गिरे हुए बाल
अचानक हट गए हैं।
अचानक ज़मीन पर कुछ हलचल हुई।

वृक्ष धीमे-धीमे बातें कर रहे हैं
अंधेरे में।

तुम्हारी खुली बांहें ठंडी हो जायेंगी। 

बहुत दूर
जहां हम देख नहीं सकते
चंद्रमा ज़रूर उग रहा होगा।
अभी वह हम तक पहुंचा नहीं है
पत्तों से फिसलता हुआ
तुम्हारे कंधे को रोशन करने।
लेकिन मैं जानता हूं
एक हवा आती है चांद के साथ।

वृक्ष कर रहे हैं धीमे-धीमे बातें

तुम्हारी खुली बांहें ठंडी हो जायेंगी।

ऊपर से
अंधेरे में डूबी हुई टहनियों से
तुम्हारे पैरों के पास कुछ गिरा है।
तुम मेरे पास आ गयी हो।
मेरे हाथ के नीचे तुम्हारी निर्वस्त्र देह
किसी रोयेदार फल जैसी है। 

ना ही कोई भावुकता ना ही बौद्धिकता
इन वृक्षों, चिड़ियों और कीड़ों के समक्ष
मेरी पत्नी की देह पर मेरा हाथ
सोच रहा है। 

आज की रात मेरा हाथ
पढ़ या लिख नहीं सकता। 

ना ही आसक्त है ना ही अनासक्त। 

यह किसी झरने के पास किसी तेंदुए की जीभ है
अंगूर का एक पत्ता
एक भेड़िए का पंजा

हिलने, सांस लेने, खाने-पीने के लिए। 

मेरा हाथ एक बीज जैसा है
पृथ्वी के नीचे खुलता हुआ। 

ना ही कोई भावुकता न ही बौद्धिकता
ना ही आसक्त ना ही अनासक्त।

मेरा हाथ मेरी पत्नी की देह पर सोचता हुआ
प्रथम पुरूष का हाथ है।
उस जड़ की तरह जिसने ज़मीन के अंदर पानी खोज लिया हो
यह मुझसे कहता है:
“खाने, पीने, ठंडे, गरम, संघर्ष, गंध, रंग के लिए
एक दिन मर जाने को जीने के लिए नहीं
बल्कि जीने के लिए मरते हुए…”

और अब
जब लाल केश मेरे चेहरे पर लहराते हैं
जब पृथ्वी में कोई हलचल होती है
जब वृक्ष अंधेरे में बातें करते हैं
और चंद्रमा कहीं दूर उगता है
जहां हम देख नहीं सकते

मेरी पत्नी की देह पर मेरा हाथ
इन वृक्षों, चिड़ियों और कीड़ों के समक्ष
मैं जीवन का अधिकार चाहता हूं
झरने पर खड़े तेंदुए जैसा, फूटते हुए बीज जैसा
मैं प्रथम पुरूष होने का अधिकार चाहता हूं।

मैं तुमसे पहले मरना चाहता हूं

मैं तुमसे पहले मरना चाहता हूं
क्या तुम्हें लगता है कि जो बाद में मरेगा
ढूंढेगा कि पहले कौन गया?
मुझे नहीं लगता
अच्छा होगा कि तुम मुझे जलवाना
और मुझे अपने कमरे में स्टोव के ऊपर एक जार में रख देना
जार कांच का बना होगा
पारदर्शी, उजला कांच
ताकि तुम मुझे देख सको उसके अंदर…
तुम देखो मेरा बलिदान:
मैंने पृथ्वी का हिस्सा हो जाने का मोह छोड़ा
मैंने एक फूल बनकर उगने का मोह छोड़ा
ताकि तुम्हारे साथ रह सकूं
और मैं धूल बन रहा हूं
तुम्हारे साथ रहने के लिए
बाद में, जब तुम भी मर जाओगी
तुम मेरे जार में आ जाओगी
और वहां हम रहेंगे एक साथ
तुम्हारी राख मेरी राख में मिली हुई,
जब तक कि एक बेपरवाह चिड़िया
या कोई निष्ठाहीन वंशज
हमें वहां से बाहर फेंक दे…
लेकिन हम
उस समय तक
मिले रहेंगे एक दूसरे से
इस तरह से
कि जिस कचरे के ढेर में हम फेंके जाएं
हमारे कण पास-पास गिरें
हम साथ में मिलेंगे मिट्टी में
और एक दिन एक जंगली फूल
उस मिट्टी में पनपेगा और खिलेगा
उसकी आकृति के ऊपर निश्चित ही
दो फूल और होंगे
एक तुम
एक मैं
मैं मृत्यु के बारे में अभी नहीं सोचता
मैं एक बच्चे को जन्म दूंगा
जीवन मुझमें उमड़ रहा है
मेरा रक्त अभी गरम है
मैं जियूंगा बहुत लम्बी उम्र
तुम्हारे साथ
मुझे मृत्यु नहीं डराती
अपनी अंतिम यात्रा का तरीक़ा मैं चुनूंगा
बल्कि कुछ कम पसंद किया जाने वाला
जब तक मैं मरूंगा
मुझे लगता है यह बेहतर हो जाएगा
क्या कोई आशा है कि तुम क़ैद से इन दिनों निकल जाओगे?
मुझमें एक आवाज़ कहती है:
संभवतः

आत्मकथा

मेरा जन्म 1902 में हुआ
मैं दुबारा अपने जन्मस्थान कभी नहीं गया
मुझे मुड़ना पसंद नहीं
तीन वर्ष की उम्र में मैं अलेप्पो में पाशा का पोता बनकर रहा
उन्नीस की उम्र में मास्को कम्युनिस्ट यूनिवर्सिटी का छात्र
उनचास की उम्र में मैं चेका की पार्टी का मेहमान बनकर दोबारा मास्को गया
और चौदह की उम्र से मैं कवि हूं
कुछ लोग सब जानते है पौधों और मछलियों के बारे में
मैं जानता हूं अलगाव को
कुछ लोग तारों का नाम रखते हैं कंठस्थ
मैं अनुपस्थितियां दोहराता हूं
मैं जेलों में सोया हूं और विशाल होटलों में भी
मैं जानता हूं कि भूख क्या है और भूख हड़ताल क्या
और ऐसा कोई भोजन नहीं जो मैंने चखा न हो
तीस की उम्र में वे मुझे फांसी दे देना चाहते थे
अड़तालीस की उम्र में मुझे वे पीस प्राइज़ देना चाहते थे
जो उन्होंने दिया भी
छत्तीस की उम्र में कंकरीट के चार वर्ग मीटर नापते हुए मेरा आधा साल बीता
उनतालीस की उम्र में प्राग से भागकर हवाना अट्ठारह घंटों में पहुंचा
मैंने लेनिन को कभी नहीं देखा लेकिन 1924 में उनके ताबूत के पास मैं सतर्क खड़ा रहा
1961 में उस क़ब्र के पास, जो मैं उनकी किताबों में पाता हूं
उन लोगों ने मुझे पार्टी से अलग कर देना चाहा
यह प्रयास असफल रहा
न ही मैं ढहते आदर्शों के नीचे दबा
1951 में मैं एक युवा मित्र के साथ मौत के मुंह को छूकर निकला
1952 में चार महीने तक टूटा हुआ दिल लेकर पड़ा रहा
मरने का इंतज़ार करते हुए
मुझे उन स्त्रियों से ईर्ष्या थी जिन्हें मैंने प्यार किया
मुझे चार्ली चैपलिन से ज़रा भी जलन नहीं थी
मैंने अपनी स्त्रियों को धोखा दिया
मैंने अपने दोस्तों के बारे में पीठ पीछे कभी बात नहीं की
मैं शराब पिया करता था लेकिन रोज़ नहीं
मैंने अपनी रोज़ी ईमानदारी और खुशी से कमायी
दूसरों को शर्मिंदगी से बचाने के लिए मैंने झूठ बोला
मैंने झूठ इसलिए भी बोला कि किसी और को दुःख न पहुंचे
लेकिन मैंने बिना कारण भी झूठ बोला है
मैं रेलों, हवाई जहाज़ों और कारों पर चढ़ा हूं
बहुत से लोगों को मौक़ा नहीं मिलता
मैं ओपेरा भी गया
बहुत सारे लोगों ने ओपेरा के बारे में सुना भी नहीं
और 1921 से मैं ऐसी कई जगहों पर नहीं गया
जहां अधिकांश लोग जाते रहे हैं
मस्जिदों, मंदिरों, चर्चों, सिनेगॉगों या जादू-घरों में
लेकिन मैंने अपनी बची हुई कॉफ़ी में भविष्य पढ़वाया
मेरा लिखा तीस या चालीस भाषाओं में प्रकाशित हुआ है
लेकिन मेरे देश तुर्की में मेरी भाषा तुर्क में मेरा लिखा प्रतिबंधित है
मुझे अब तक कैंसर ने नहीं जकड़ा है
और लगता भी नहीं कि ऐसा होगा
मैं कभी प्रधानमंत्री या ऐसा कुछ नहीं बनूंगा
और मुझे वैसा जीवन चाहिए भी नहीं
न ही मैं युद्ध में गया
अंधेरी रातों में बमरोधी ठिकानों में मुझे छिपना नहीं पड़ा
ना ही मुझे गोता खाते जहाज़ों के नीचे से गुज़रना पड़ा
लेकिन साठ की उम्र के आसपास मुझे प्रेम हो गया
संक्षेप में, कॉमरेडों
जब आज बर्लिन में मैं पीड़ा से कराह रहा हूं
मैं कह सकता हूं कि मैंने उस मनुष्य का जीवन जिया है
जो जानता है
मैं कितना और जियूंगा
मुझे और क्या होगा


[कुछ दो सालों पहले एक छोटा-सा फ़िक्र का ईमेल अनुवादक मनोज पटेल को लिखा था. जवाब आया कि वे ठीक थे. कुछ कामों के लिए फ़ोन पर बात भी हुई, जिनके वादों से यह ख़ास पोस्ट निकलकर आपके सामने आ रही है. मौजूदा यथार्थ यह है कि मनोज पटेल हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन अपना ख़ज़ाना वे हमारे लिए छोड़ गए हैं. उनके ब्लॉग “पढ़ते-पढ़ते” पर बहुत सारा काम आज भी पढ़े जाने के लिए रखा पड़ा है, जो अब एक किताब की शक्ल ले चुका है. एकदम अभी अनुवाद को लेकर कमज़ोर कोशिशों-प्रकाशनों के उपक्रमों को मनोज पटेल के कामों से कुछ सीखना चाहिए. जन्मदिन पर कवि, गद्यकार और उपन्यासकार नाज़िम हिकमत को याद करने के उदास कारण हैं. तकनीक इतनी जटिल है कि यह पोस्ट कल आपके बीच नहीं आ सकी. हिकमत की बहुत सारी कविताओं के अनुवाद मनोज पटेल ने किए, और हिकमत के साथ-साथ कई कवियों को हम बरास्ते मनोज पटेल याद करते रहे हैं. मनोज पटेल द्वारा हिकमत की कई अनूदित कविताओं में से कुछ यहां पर. इस प्रस्तुति में आख़िरी तीन कविताओं का अनुवाद उपासना झा ने संभव किया है. जीवन का बड़ा हिस्सा जेल में बिता चुके हिकमत का लिखना इस बात की ओर साफ़ इशारा करता है कि आंदोलन की भाषा और भंगिमा ज़रूरी नहीं कि आपको किसी रूप में उद्वेलित ही करे कि आप भी झंडा उठाते हुए जीवन भूल जाएं. इस झंडाबरदारी में अक्सर चूक हो जाती है, और आप नारे लिखते हुए ख़त्म होते हैं. मालूम तो यह भी होता है कि आवेग और प्रतिरोध की विराट परिकल्पना में प्रेम और तमाम मानवाग्रहों की पूरी संभावना बची-बनी हुई है. इस श्रम के लिए बुद्धू-बक्सा सभी का आभारी है.] 

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