हम यह समझने लगे हैं कि शब्द कितने ताकतवर हो सकते हैं

बाहर दुनिया में अंधकार है, लेकिन थोड़ी रोशनी भी है. हमारे पास अभी भी किताबें हैं, हमारे पास कानून है, अभी भी हमारे पास पाठक हैं, हमारे पास त्यौहार हैं, हमारे पास रॉयल्टी चेक और अवार्ड हैं, लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि हम सब साथ हैं.

जेरी पिंटो

मैं एक शब्दजीवी हूं. अपने काम का अधिकांश मैंने शब्दों के भरोसे ही किया है. कितने ही लेखकों की तरह मैंने भी शुरुआत एक पाठक के रुप में की थी. तब शब्द पारदर्शी लगते थे. उनकी अपनी कहन थी. जब मैं पढ़ने लगा तो संसार एक नया रंग और एक नयी बनावट अख्तियार करने लगा. महसूस हुआ कि पढ़ने की वजह से मुझमें एक नयी गहराई और नयी अमीरी आई. मुझे लगता है कि शब्द उस सिलसिले में हमारे तत्पर सहयोगी थे, जिनके जरिए हमने दुनिया को सभ्य बनाया. हमने एक-एककर सारी चीज़ों को नाम दिए.

निस्संदेह यह निरी मासूमियत का आदिकाल था. अक्सर लगता है कि कोई ‘मासूमियत’ जैसे शब्द का प्रयोग, उससे खुद के जुदा होने को इंगित करने के लिए ही कर सकता है. मासूम को मासूमियत के बारे में नहीं पता होता. मुझे नहीं पता कि ऐसा कब होने लगता है, जब लगता है कि हमने एक अमूर्त और उड़नछू चीज़ का भरोसा कर लिया था. क्या ऐसा तब होता है जब लगे कि आप एक शब्द का मतलब जानते हैं लेकिन उसे इस्तेमाल करें तो वह मतलबी होकर बिलकुल अलग ही अर्थ देने लगे? या फिर तब, जब आपको लगे कि किसी कवि की बात का आपने जो अर्थ निकाला और जो कवि का आशय था, दोनों दो अलग-अलग बातें हैं? ऐसा भी समय आता है जब शब्द जीवनपर्यंत धोखा देने और नए तरीकों से लुभाने का चक्कर चलाना शुरू करते हैं.

शायद यह असल में तब शुरू होता है जब आप संप्रेषण के लिए उन शब्दों का इस्तेमाल करने लगते हैं, जिन्हें आप लगभग पारदर्शी मानते हैं और वे शब्द आपके कहे हुए के अर्थ को घुमाकर कुछ और बना देते हैं. क्योंकि जैसे ही वो आपकी तरफ से निकलते हैं, ग्रहण कर लिए जाते हैं. उनका ग्रहण किया जाना उनके ग्राहक की कहानी बन जाता है. कोई किसी शब्द को जस का तस ग्रहण नहीं करता, उसके पास एक इतिहास होता है जो शब्द के खुलने को संभव बनाता है.

परफ़ेक्ट रिसीवर का भ्रम?

हर कोई जिसने शब्दों पर काम किया है, उसके पास शब्दों की कोई न कोई परफ़ेक्ट रिसीवर होती है. वह परफ़ेक्ट रिसीवर हमारे आशयों को सटीक देख सकती है. ऐसे में कभी कोई गलतफहमी नहीं होती क्योंकि वह रिसीवर वह सब भी समझ सकती है, जो हमने नहीं दिया. वह चरित्रों की कल्पना वैसे ही करेगी, जैसी हमारी कल्पना रही. उसे भी उनकी वही ध्वनियां सुनाई देंगी जो हमने सुनी. शब्दों का वह रिसीवर कहे या लिखे की पृष्ठभूमि में हमसे छूटे गए रंग और छायाएं बिलकुल सटीक भाव से भरेगी. वह हर शब्द उसी तरह से ग्रहण करेगी, जैसा हमने सोचा था. क्या यह कहने की ज़रुरत है कि ऐसी स्थिति में उसके पास भी वैसी ही राजनीतिक समझ होगी, जीवन के बिलकुल वैसे ही अनुभव होंगे जैसे कि हमारे हैं और कहीं कोई अंतर होगा ही नहीं? सब बिल्कुल एक जैसा, हूबहू एक जैसा?…और क्या यह भी कहने की ज़रुरत है कि ऐसे रिसीवर का हो पाना असंभव है?

एक समय था जब मैं सोचता था कि मैं अपने काम का सबसे सटीक पाठक हूं. शायद हो सकता है कि लिखने के बीच में सचमुच मैं ख़ुद का एक सटीक पाठक होऊं. जिस समय मैं तेज़ी से बदलते और क्षणभंगुर विचारों को कागज़ पर पकड़ कर बिठा रहा होता हूं, मैं हार मान लेता हूं. मैं जानता हूं कि मैं जो कहना चाहता हूं, वह पूरी तरह मैं कभी नहीं कह पाऊंगा क्योंकि जो मैं कहना चाहता हूं वह केवल मुझसे ही जुड़ा हुआ है और जिस भाषा में मैं कहूंगा वह केवल मुझसे जुड़ी नहीं है. उसका जलवा उसके सामान्यीकृत होने में ही है. जब मैं एक शब्द लिख रहा हूं, तो मुझे पता है कि उसका मतलब क्या है और मैं उसे क्यों लिख रहा हूं.

समस्या यह है कि मैं अपरिवर्तनशील नहीं हूं. मैं समय के अधीन हूं, नयी-नयी सूचनाओं के अधीन हूं. इस वजह से मैं बदल रहा हूं. मैं आगे बढ़ रहा हूं, मैं टूटफूट रहा हूं, मेरा क्षय हो रहा है… यह इस पर निर्भर करता है कि कौन देख रहा है. तो अक्सर मैं अपने लिखे का एक सटीक और अचूक पाठक नहीं होता. मैं हमेशा उस लिखे हुए की अस्पष्टता, असंक्षिप्तता और संवेदना की कमी पर सिर धुनता हूं.

अब मैंने शब्दों का चरित्र बताने की कोशिश छोड़ दी है और अनिच्छापूर्वक यह स्वीकार कर लिया है कि भाषा उन महानतम सौगातों में से है जो हमने खुद को दिया है लेकिन ‘यह सौगात है तो भी इससे डरने की ज़रुरत है.’ शब्दों के पराप्तकर्ता या रिसीवर यह जान लें और सावधान रहें कि शब्द खतरनाक होते हैं.

डरना मनुष्य होना है

किस वजह से मैं ‘खतरा’ शब्द का प्रयोग कर रहा हूं?

खतरा शब्द एक अजीब चीज है. हममें से ज़्यादातर इसे बचपन से जानते हैं. हम एक पोस्टर देखते हैं जिसमे खोपड़ी और हड्डियों की शक्ल में एक प्रतीकात्मक चित्र बना होता है जो हमें हमारी मृत्यु की याद दिलाता है और किंकर्तव्यविमूढ़ कर देता है. लेकिन धीरे-धीरे हम देखते हैं कि खतरा हमारे जीवन से अनिवार्य रूप से शामिल है और सभ्यता की तरफ अग्रसर होते हुए हमने इसे बेहद ज़रूरी समझा है. अगर हम हमेशा सुरक्षित ही रहना चाहें तो हम जड़ हो जाएंगे. जब मैं हिंदी मुहावरा “बन्दर क्या जाने अदरक का स्वाद” सुनता हूं तो भोजन का आविष्कार करने वाले महान अग्रदूतों के बारे में सोचता हूं. वो पहली महिला, जिसने अदरक चखा, यह कैसे जान लिया कि यह चाय में, बिस्कुट में कमाल करेगा? मसालों और अरकों के साथ मिलकर स्वाद के नए गुल खिलाएगा?

हमारे मनुष्य होने का यही मतलब है कि हम खतरे उठायें वरना हम पतित होने लगेंगे. हमारे साथ हमारी भाषा की भी वही गति होगी. इसी वजह से हमने भय के साथ समझौता किया है. मैं इस भावना (भय) की बनावट में झांकना चाहता हूं, जो हमारी भावनाओं के खजाने में सबसे महत्वपूर्ण रुप में विकसित हुई है. विकास के क्रम में हमें प्रेम और भाषा प्राप्त हुई जिससे कि हम परिवार और समाज बना सकें, मुझे लगता है कि इनमें भय भी छिपा हुआ था जिससे हम खुद को नुकसान पहुंचाने वालों से अपनी हिफाजत करने के काबिल बन सकें.

हमें भय की जरूरत हमेशा रहेगी. यह उस चीज का हिस्सा है जो हमें इंसान बनाती है. लेकिन क्या विकास के क्रम में हमें घृणा भी प्राप्त हुई? या फिर यह भय का ही दूसरा नाम है? हमने स्व या खुदी की जो समझ विकसित की है, उसके मुताबिक इसके दो भाग हैं. एक वैसा जैसा स्व खुद को जानता है और एक वह जो दूसरों की नज़र में प्रतिबिंबित होता है. दोनों के बीच फर्क होने के कारण हमने तय किया होगा कि हम भय के लायक नहीं हैं. यह कमजोरों के लिए है. अतः जो शक्तिशाली होगा, घृणा करेगा और इसे हिंसा तक ले जाएगा.

भय से घृणा तक

तो आप किसे घृणा करते हैं?

एक क्षण को उस घृणा को भूल जाएं जो हमसे की जा रही है और जो हमारे आसपास फैली है. अब आप किससे घृणा करते हैं? और जिससे घृणा करते हैं तो क्यों करते हैं?

शायद यह अन्याय के बोध से जन्म लेता है. फलां ने मुझसे ख़राब बर्ताव किया तो मुझे उससे घृणा करनी चाहिए. मैं यह घृणा करने का हक़दार हूं.

हम सभी मानते हैं कि हमें घृणा करने का हक है क्योंकि केवल हम ही जानते हैं कि हम पर क्या बीती है? हमारी भावनाओं पर हमारा हक़ है क्योंकि वो हमारी हैं. हां, सिर्फ दूसरे लोगों को घृणा नहीं करनी चाहिए क्योंकि आसपास का माहौल जहरीला होता है और चीज़ें भयानक हो जाती हैं.

घृणा के बारे में बात करना आसान नहीं है लेकिन भय के बारे में बात करना और भी मुश्किल है. भय को स्वीकार करना कमजोरी को स्वीकार करना है. यह ऐसा है मानो एक गुफा में इकट्ठे होना और रात और जंगली जानवरों के चमकते दांतों के आतंक से भयाक्रांत होना. तो हमने किसी अनूठे रसायन से भय का पुनर्निर्माण किया और उसे घृणा का रूप दे दिया.

अब घृणा कर्म में बदलने वाली शक्ति से लैस है.

भय निष्क्रिय लगता है. मानो हमारे पास डरने के सिवा कोई चारा नहीं.

लेकिन घृणा? यह ऐसा लगता है जैसे आपने कुछ करने का तय कर लिया. फिर आप अपने आसपास कुछ और डरे हुए लोग जमा करें जो अपने डर को छिपाना चाहते हैं, और फिर आप एक भीड़ तैयार करें और मशाल उठाकर अपने डर के स्रोत की तरफ चल दें.

शब्द की शक्ति

फिर इतने सारे लोग लेखकों से क्यों डरते हैं? एम एम कलबुर्गी और गोविन्द पानसारे और नरेन्द्र दाभोलकर और गौरी लंकेश ऐसा क्या कर रहे थे कि इन लोगों से बाक़ियों को डर लगता था?

मेरे हिसाब से हम यह समझने लगे हैं कि शब्द कितने ताकतवर हो सकते हैं. बचपन में हम एक बात दुहराते थे, ”डंडे और पत्थर मेरी हड्डियां तोड़ सकते हैं, लेकिन बातों से मेरा क्या नुकसान होगा!” यह हम तब बोलते थे जब कहीं हमारा अपमान किया जाता था लेकिन मुझे लगता है कि हम यह बात पीड़ा में कहते थे. और यह साबित कर देते थे कि जो बात कही गयी, उस बात में इतनी सामर्थ्य थी कि हमें चोट पहुंचा सके.

कॉलेज में जब कभी हम उन लम्बी सुस्त दोपहरों में मार्क्सवाद और साम्राज्यवाद पर तुलनात्मक बहस करते, या फिर कृषि संकट पर या और भी किसी विषय पर, तो वो सारी बहसें यह कहकर ख़त्म कर दी जातीं कि ये सब तो केवल बातें हैं, इन पर काम भी होना चाहिए. इसका हमें उस समय कोई जवाब नहीं सूझता था क्योंकि तब हम वोटर नहीं थे और हम ज्यादा बदलाव नहीं कर सकते थे और न ही ‘कल्याण सोना’ के दाम हमारे हाथ में थे.

काश कि उस समय मैं वह जानता होता जो मैं आज जानता हूं. वह यह, कि हम शब्दों का प्रयोग इसलिए करते हैं क्योंकि वो संवाद के सबसे अच्छे माध्यमों में एक हैं और इसलिए पर्याप्त ताकतवर हैं. यह कि वे काम जो किसी विचार पर आधारित नहीं होते, किसी और परेशानी की तरफ ले जाते हैं. लेकिन ‘काम करने’ के आह्वान के बाद छाई चुप्पी में हम साजिशन भाषा और उसका प्रयोग करने वालों को नीचा दिखाते थे. हम उस उपहार की संभाल नहीं कर पाते थे जो हमें दिया गया था.

“हमें डर के अलावा किसी और चीज से नहीं डरना चाहिए,” यह हमें बार-बार बताया गया है. मैं सोचता हूं कि काश यह सच होता. इस समय डरना तर्कसंगत है लेकिन डर को स्वीकार करना भी कठिन है और इसके कारणों को स्वीकार करना भी, और इसे घृणा में न बदलने देना भी.

हम मनुष्य हो सकते हैं

हम हमेशा ऐसे लोगों के बीच रहेंगे जो हमारे जैसे नहीं हैं. यह संसार विविधताओं वाला है. यह विविधता भी एक सौगात है. अगर हम सब एक जैसे होते, तो किसके लिए लिखा जाता, और लिखने के लिए कुछ होता भी क्या? एक संपूर्ण पाठक, क्रूर पाठक हो जाता क्योंकि वह वो सब कुछ जानता जो आपको कहना होता, वो सबकुछ महसूस करता जो आप महसूस करते और लिखना एक तरह का अहंवाद हो जाता.

लेकिन हम ऐसी दुनिया में रहते हैं जहां लोग अलग हैं. कुछ लोग इस अंतर से खुश होंगे, कुछ इसे अनदेखा करेंगे, कुछ इसे ख़त्म करने की कोशिश करेंगे, कुछ इससे डरेंगे. और जो इससे डरेंगे वो इससे घृणा करेंगे.

मैं एक दूसरे प्रश्न पर आता हूं: हम जिस स्थिति में हैं, उसमें हमें क्या करना चाहिए? मैं समझता हूं हम वही कर सकते हैं जो हम अब तक करते आये हैं. हम लिखते रहेंगे. क्योंकि हम खतरा उठाने को ज़रूरी समझते हैं. क्योंकि हम भाषा को महत्व देते हैं. क्योंकि हम एक दूसरे को इतना महत्व देते हैं कि हम हरेक की समीक्षा करना चाहते हैं.

बहादुरी का आदेश देने का कोई मतलब नहीं है. न ही इस तरह की बातों का कोई मतलब है कि अगर आप गर्मी बर्दाश्त नहीं कर सकते तो रसोई से बाहर चले जाएं. हमारे समय में यह कहना कठिन है कि किस बात से किसका अपमान हो जाये और इसकी वजह से ट्रोलिंग से लेकर मौत तक की नौबत आ जाए. अब ऐसे में अगर आप कुक बनना चाहते हों, और आपको स्टोव की जगह भट्ठी दे दी जाए, तब?

मुझे लग रहा है मैं यह प्रवचन देकर जागे हुओं को जगाने की कोशिश कर रहा हूं. आप अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर विश्वास करते होंगे, आप शब्दों का महत्व जानते होंगे, संवाद का महत्व जानते होंगे अन्यथा आप यहां क्यों होते? लेकिन शायद यह बार-बार कहना ज़रूरी है कि हमारे पास डरने के सिवाय रास्ता नहीं है.

बाहर दुनिया में अंधकार है, लेकिन थोड़ी रोशनी भी है. हमारे पास अभी भी किताबें हैं, हमारे पास कानून है, अभी भी हमारे पास पाठक हैं, हमारे पास त्यौहार हैं, हमारे पास रॉयल्टी चेक और अवार्ड हैं, लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि हम सब साथ हैं.

हम यह कर सकते हैं कि इंसान बन सकते हैं. हम साहित्य के द्वारा अपनी मानवीय संवेदनाओं का विकास कर सकते हैं. हम यह भेंट दूसरों को दे सकते हैं, भले ही वो इसे ठुकरा दें या फिर इसका कोई मोल न समझें और जलाकर राख कर दें. हम यही कर सकते हैं क्योंकि हमारे पास और कोई रास्ता नहीं.

और मैं आज आपके सामने यह वचन देता हूं कि मैं आपको सुनने की कोशिश करूंगा, तब भी, जब मुझे वह सुनना पसंद नहीं होगा. आप मुझ पर चिल्ला रहे होंगे फिर भी मैं सुनूंगा. मैं आपके आवेश की हद से आगे तक आपको सुनने की कोशिश करूंगा. तुरंत जवाब देने की स्थिति में होने के बावजूद आपके शब्दों की चोट सहूंगा और वे अशिष्ट प्रतिक्रियाएं भी झेलूंगा, जहां तक संभव हो. मैं यह देखने की कोशिश करूंगा कि अगर आप मेरे अच्छे पाठक नहीं हैं, तो इसका मतलब ये है कि मैं एक अच्छा लेखक नहीं हूं. और अगर हम एक दूसरे के साथ इतना नहीं कर सकते, तो हम साथ में कुछ नहीं कर सकते.

[लेखक और अनुवादक जेरी पिंटो ने यह वक्तव्य इस साल गोवा लिट्रेचर फ़ेस्टिवल में दिया था, इसका हिन्दी अनुवाद अमन त्रिपाठी ने सम्भव किया है. लेखकों में लेखन और आसपास के भूगोल पर बात करते हुए एक आचार्य दृष्टि अख़्तियार करने की आदत है, और यह आदत अक्सर आपे से बाहर चली जाती है. वे ऐसे अनुपलब्ध, दोयम, संबंधहीन और कुदर्शनग्रस्त संदर्भों को लेकर आते हैं कि “पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?” बिना किसी मेहनत के निकल पड़ता है. उनमें गहराई नहीं है, न उसकी संभावना दिखती है. ऐसे में पिंटो का यह वक्तव्य ज़रूरी है. यह तमाम कनेक्टेड और संभावनाशील बातों को लेकर यह बात करते हैं कि यह शब्दों की ही शक्ति है कि लेखकों और “अभिव्यक्ति के ख़तरे उठाने वालों” पर सबसे ज़्यादा हमले हो रहे हैं, और मृत्यु अब एक आम घटना है. इसका मूल स्वरूप यहां प्रकाशित रहा है. इस बातचीत के लिए हम जेरी पिंटो के आभारी हैं, और अनुवाद के लिए अमन के.]

Share, so the world knows!